दिव्य नेत्र संबंधित विषय
कई चीगोंग गुरु दिव्य नेत्र के विषय पर चर्चा कर चुके हैं। फा की यद्यपि विभिन्न स्तरों पर विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। एक अभ्यासी जिसकी साधना एक विशिष्ट स्तर तक पहुंची है वह केवल उसी स्तर तक की अभिव्यक्तियों को देख सकता है। वह उस स्तर से आगे के सत्य को देख पाने में असमर्थ होता है, और न ही उस पर विश्वास करेगा। इस प्रकार वह जो अपने स्तर पर देखता है केवल उसी को सत्य समझता है। जब तक उसकी साधना एक ऊँचे स्तर पर नहीं पहुंच जाती; वह समझता है कि उन वस्तुओं का अस्तित्व नहीं है और विश्वास योग्य नहीं हैं; इसका निर्धारण उसके स्तर द्वारा होता है, तथा उसका मन उत्थान नहीं कर पाता। दूसरे शब्दों में, दिव्य नेत्र संबंधित विषय पर कुछ लोग एक प्रकार से व्याख्या करते हैं तो कुछ दूसरे प्रकार से। परिणामस्वरुप, उन्होंने इस विषय को उलझा दिया है, तथा अन्त में कोई भी इसे स्पष्ट रुप से समझा नहीं पाता। दिव्य नेत्र, वास्तव में, एक ऐसा विषय है जिसे स्पष्ट रुप से निम्न स्तर पर नहीं समझाया जा सकता। अतीत में, दिव्य नेत्र की संरचना को अत्यन्त गुप्त माना जाता था, तथा साधारण व्यक्तियों को इसे जानने की मनाही थी। इसलिए संपूर्ण इतिहासकाल में किसी ने इसकी चर्चा नहीं की। किन्तु यहां हम इसकी चर्चा प्राचीन काल के सिध्दान्तों के आधार पर नहीं करेंगे। हम इसे समझाने के लिए आधुनिक विज्ञान और सरलतम आधुनिक भाषा का प्रयोग करेंगे, और इसके मूलभूत विषयों पर प्रकाश डालेंगे।
दिव्य नेत्र जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं, वास्तव में, दोनों भौहों के बीच कुछ ऊपर स्थित है, तथा यह पिनियल ग्रन्थि से जुड़ा है। यही मुख्य नाड़ी है। मानव शरीर में कई अतिरिक्त नेत्र होते हैं। ताओ विचारधारा का कथन है कि प्रत्येक छिद्र एक नेत्र है। ताओ विचारधारा के अनुसार शरीर में एक एक्यूपंक्चर बिंदु एक छिद्र कहलाता है जबकि चीनी चिकित्सा विज्ञान में यह एक एक्यूपंक्चर बिंदु कहलाता है। बुध्द विचारधारा का मत है कि प्रत्येक रोम छिद्र एक नेत्र है। इसलिए कुछ लोग कानों द्वारा पढ़ सकते हैं, तथा कुछ हाथों द्वारा अथवा सिर के पीछे से देख सकते हैं, कुछ पैर अथवा उदर द्वारा देख सकते हैं। यह सब संभव है।
दिव्य नेत्र के बारे में बताते हुए, हम पहले इन दो भौतिक मानव नेत्रों की बात करेंगे। वर्तमान में कुछ लोग सोचते हैं कि ये नेत्र इस विश्व में कोई भी पदार्थ अथवा वस्तु देख सकते हैं। इसलिए कुछ लोगों ने यही हठी धारणा अपना ली है कि व्यक्ति जो कुछ नेत्रों द्वारा देख सकता है, केवल वही वास्तविक तथा निश्चित है। जो वे नही देख सकते उस पर वे विश्वास नहीं करते। अतीत में, यह माना जाता था कि इस प्रकार के लोगों का ज्ञानोदय का गुण निम्न है। यदि देखा नहीं तो विश्वास नहीं। यह बहुत कुछ तर्कसंगत लग सकता है। किन्तु कुछ ऊँचे स्तर के दृष्टिकोण से देखें तो, यह तर्कसंगत नहीं है। प्रत्येक काल-अवकाश पदार्थ से निर्मित है। वास्तव में विभिन्न काल-अवकाशों की विभिन्न भौतिक संरचनाएं होती हैं, तथा विभिन्न जीवनों के अनेक अभिव्यक्त रूप होते हैं।
मैं आपको एक उदाहरण देता हँ। बुध्दमत में, यह कहा जाता है कि मानव समुदाय में घटित प्रत्येक कार्य-कलाप मिथ्या है तथा अवास्तविक है। वे मिथ्या कैसे हो सकते हैं? ठीक यहां वास्तविक तथा ठोस भौतिक वस्तुएं विद्यमान हैं, तो कौन कहेगा कि वे असत्य हैं? एक भौतिक वस्तु के अस्तित्व का रूप इसी प्रकार दिखाई पड़ता है, किन्तु यह वास्तव में, जिस प्रकार है वह इस प्रकार नहीं है। हमारे नेत्र, यद्यपि, भौतिक वस्तुओं को हमारे भौतिक आयाम में उस अवस्था में स्थिर करने में सक्षम होते हैं जिसे अब हम देख सकते हैं। वस्तुएं वास्तव में इस अवस्था में नहीं हैं, तथा वे हमारे आयाम में भी इस अवस्था में नहीं हैं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति सूक्ष्मदर्शी द्वारा कैसा दिखाई पड़ता है? संपूर्ण शरीर बिखरे हुए, सूक्ष्म अणुओं का बना है, ठीक उसी प्रकार जैसे रेत के कण जो गतिमान हैं। इलेक्ट्रॉन नाभिक की परिक्रमा करते हैं, तथा संपूर्ण शरीर कंपायमान तथा गतिमान है। शरीर की सतह न तो चिकनी है और न ही एकसार। ब्रह्माण्ड में विद्यमान कोई भी पदार्थ जैसे स्टील, लौहा और पत्थर एक समान हैं तथा उनके अन्दर, उनके सभी आण्विक तत्व गतिमान हैं। आप उनकी संपूर्ण सरंचना नहीं देख सकते, तथा वे वास्तव में स्थिर नहीं हैं। यह मेज भी कंपन कर रही है, किन्तु आपके नेत्र सत्य नहीं देख सकते। ये दो नेत्र व्यक्ति को इस प्रकार झूठा दृश्य दिखा सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि हम वस्तुओं को सूक्ष्म स्तर पर नहीं देख सकते, या लोगों के पास यह योग्यता नहीं है। लोगों में यह योग्यता जन्मजात होती है, तथा वे एक निश्चित सूक्ष्म स्तर पर वस्तुओं को देख सकते हैं। चूंकि इस भौतिक आयाम में हमारे पास ये दो नेत्र हैं, लोग झूठा दृश्य ग्रहण करते हैं तथा वस्तुओं को देख पाने में असमर्थ होते हैं। इसलिए, विगत में यह कहा जाता था कि यदि लोग उस पर विश्वास नहीं करते जो वे नहीं देख पाते, ऐसे लोगों को साधक समुदाय द्वारा निम्न ज्ञानोदय के गुण वाला, साधारण लोगों की मोहमाया में भटका हुआ, तथा साधारण लोगों के बीच दिग्भ्रमित माना जाता था। यह कथन प्राचीन काल से धर्मो में कहा गया है। वास्तव में, हमने भी इसे बहुत कुछ तर्कसंगत माना है।
ये दो नेत्र हमारे इस भौतिक आयाम में वस्तुओं को इस अवस्था में स्थिर कर सकते हैं। इसके अलावा इनकी कोई और विशेष योग्यता नहीं है। जब व्यक्ति किसी वस्तु को देखता है, तो प्रतिबिंब सीधे उसके नेत्र में नहीं बनता। नेत्र कैमरे के लेंस की तरह होते हैं जो केवल एक उपकरण की भांति प्रयोग में आते हैं। दूर की वस्तुऐं देखने पर, लेंस का विस्तार होता है, हमारे नेत्र भी इसी प्रकार कार्य करते हैं। अधेंरे में देखने पर, पुतलियों में फैलाव होता है। जब कैमरा अन्धकार में चित्र लेता है, इसका एपरर्चर भी फैल जाता है। अन्यथा अपर्याप्त प्रकाश के कारण संपूर्ण चित्र गहरे रंग का होगा। जब कोई व्यक्ति बाहर अधिक प्रकाश में जाऐ, तो उसकी पुतलियां तुरन्त संकुचित हो जायेंगी। अन्यथा उसके नेत्र प्रकाश से चुंधिया जायेंगे और वह वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख सकेगा। कैमरा भी इसी नियम से कार्य करता है, और एपरर्चर को भी संकुचित होना आवश्यक होता है। यह केवल वस्तु के प्रतिबिंब का चित्र ले सकता है, और यह केवल एक उपकरण है। जब हम वास्तव में वस्तुओं को, किसी व्यक्ति को, या किसी वस्तु के अस्तित्व के रूप को देखते है, तो प्रतिबिंब मस्तिष्क में बनते हैं। यानि, जो हम नेत्रों द्वारा देखते हैं वह ऑप्टिक नर्व द्वारा मस्तिष्क के पिछले भाग में पिनियल ग्रंथि को भेज दिया जाता है, और तब यह उस भाग में चित्र की भांति परावर्तित होता है। कहने का अर्थ है कि वास्तविक परावर्तित चित्र मस्तिष्क की पिनियल ग्रन्थि में दिखाई देते हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी इसे स्वीकार करता है।
जिसे हम दिव्य नेत्र का खुलना कहते हैं उसमें मानवीय आप्टिक नर्व के प्रयोग के बिना ही व्यक्ति की भौहों के बीच से एक मार्ग खुल जाता है जिससे पिनियल ग्रन्थि सीधे बाहर देख सकती है। इसे दिव्य नेत्र का खुलना कहते हैं। कुछ लोग सोचेंगे : "यह सत्य नहीं हो सकता। आखिरकार, ये नेत्र अभी भी उपकरण की भांति प्रयोग हो सकते हैं, ओर वे वस्तुओं का प्रतिबिंब ग्रहण कर सकते हैं, जो नेत्रों के बिना असंभव है।" आधुनिक शल्य चिकित्सा में पाया गया है कि पिनियल ग्रन्थि का अग्रभाग एक मानवीय नेत्र की संपूर्ण संरचना जैसा है। चूंकि यह व्यक्ति के कपाल में विकसित होती है, इसलिए इसे नेत्रों का पदचिन्ह भी कहा जाता है। यह नेत्रों का पदचिन्ह है अथवा नहीं, हमारे साधक समुदाय में ऐसा नहीं माना जाता। आधुनिक चिकित्सा, जबकि, पहले से मान चुकी है कि मानव मस्तिष्क के बीच में एक नेत्र स्थित है। जो मार्ग हम खोलते है वह सीधे इसी स्थान पर लक्ष्य बनाता है और यह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की समझ से पूरी तरह सहमत पाया गया है। यह नेत्र हमारे भौतिक नेत्रों की तरह झूठा प्रतिबिंब नहीं बनाता, क्योंकि यह पदार्थ की प्रकृति और पदार्थ के मूलरुप दोनों को देखता है। इसलिए ऊँचे स्तर के दिव्य नेत्र वाला व्यक्ति हमारे इस भौतिक आयाम के पार दूसरे काल-अवकाशों में देख सकता है, तथा वह वे दृश्य देख सकता है जो साधारण लोग नहीं देख सकते। निम्नस्तर के दिव्य नेत्र वाले व्यक्ति के पास छेदक दृष्टि हो सकती है जिससे वह दीवार के पार और मानव शरीर के पार देख सकता है। इसमें यही दिव्य सिध्दि होती है।
बुध्द विचारधारा दृष्टि के पांच स्तरों के बारे में बताता है : भौतिक दृष्टि, दिव्य दृष्टि, विवेक दृष्टि, फा दृष्टि तथा बुध्द दृष्टि। दिव्य नेत्र के ये पांच मुख्य स्तर हैं, तथा प्रत्येक उच्च, मध्य और निम्न स्तरों में विभाजित है। ताओ विचारधारा फा दृष्टि के नौ गुणा नौ अथवा इक्यासी स्तरों के बारे में बताता है। हम यहां सभी के लिए दिव्य नेत्र खोल रहे हैं, किन्तु हम इसे दिव्य दृष्टि या उससे नीचे के स्तर पर नहीं खोलते। क्यों? यद्यपि आप यहां बैठे हैं और आपने साधना का अभ्यास प्रारंभ किया है, परन्तु, आप अभी एक साधारण व्यक्ति के स्तर से आरंभ कर रहे हैं जिसमें साधारण लोगों के बहुत से मोहभाव नहीं छूटे हैं। यदि आपका दिव्य नेत्र दिव्य दृष्टि से नीचे के स्तर पर खोल दिया जाता है, तो आपके पास वह होगा जिसे साधारण लोग दिव्य सिध्दियां मानते हैं, क्योंकि आप दीवार के पार वस्तुओं को देख सकेंगे और मानव शरीर के पार देख सकेंगे। यदि हम यह दिव्य सिध्दि सर्वत्र उपलब्ध करा दें और यदि सभी के दिव्य नेत्र इस स्तर पर खोल दिये जाएं, इससे साधारण मानव समाज में गहन व्यावधान उत्पन्न हो जायेगा और साधारण मानव समाज की दशा तितर-बितर हो जाएगी : राजकीय गोपनीय दस्तावेज खतरे में पड़ जायेंगे; यह वैसे ही होगा कि लोग कपड़े पहने हैं या नहीं; और आप किसी भी घर में लोगों को बाहर से देख सकेंगे, सड़क पर चहल कदमी करते हुए आप लॉटरी के टिकट के सभी शीर्ष ईनाम पा लेंगे। इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती! इसके बारे में आप सभी सोचें : यदि सभी के दिव्य नेत्र दिव्य दृष्टि स्तर पर खोल दिए जायें तो क्या इसे तब भी मानव समाज कहा जायेगा? मानव समाज की दशा में गहन व्यावधान उत्पन्न करना पूर्णतया निषेध है। यदि मैं वास्तव में आपका दिव्य नेत्र उस स्तर पर खोलता हूँ, तो आप तुरन्त एक चीगोंग गुरू बन सकते हैं। कुछ लोग पहले से ही चीगोंग गुरु बनने के स्वप्न देखते थे। यदि उनके दिव्य नेत्र आकस्मिक खोल दिऐ जाऐं, वे रोगियों का उपचार कर सकेंगे। उस स्थिति में क्या मैं आपको दुष्ट मार्ग की ओर अग्रसर नहीं कर रहा हूँ? तब, मैं आपका दिव्य नेत्र किस स्तर पर खोलता हूँ? मै आपका दिव्य नेत्र सीधे विवेक दृष्टि के स्तर पर खोलूंगा। यदि इसे और ऊँचे स्तर पर खोला जाए, तो आपका नैतिकगुण पर्याप्त नहीं होगा। यदि इसे किसी निम्न स्तर पर खोला जाऐ, तो इससे साधारण मानव समाज की दशा में व्यावधान उत्पन्न होगा। विवेक दृष्टि से आपमें दीवार के पार अथवा मानव शरीर के पार देखने की योग्यता नहीं आती, किन्तु आप दूसरे आयामों के दृश्यों को देख सकते हैं। इससे क्या फायदे होंगे? इससे अभ्यास में आपका विश्वास बढ़ सकता है। जब आप वास्तव में कुछ देखते हैं जो साधारण लोग नहीं देख सकते, आप सोचेंगे कि वास्तव में उसका अस्तित्व है। कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि आप अभी दृश्य स्पष्टता से देख पाते हैं या नहीं, आपका दिव्य नेत्र इस स्तर पर खोला जायेगा, और यह आपके अभ्यास के लिए अच्छा है। एक सच्चा दाफा अभ्यासी इस पुस्तक को पढ़ कर भी समान लाभ प्राप्त कर सकता है, यदि वह नैतिकगुण सुधारने में अपने साथ कठोर रहता है।
व्यक्ति के दिव्य नेत्र के स्तर का र्निधारण कैसे होता है? यह इस प्रकार नहीं है कि जैसे ही आपका दिव्य नेत्र खोला जाता है आप सब कुछ देख सकेंगे-ऐसा नहीं है। इसमें स्तरों का वर्गीकरण भी होता है। तो, स्तरों का निर्धारण कैसे होता है? इसमें तीन कारक हैं। पहला यह कि व्यक्ति के दिव्य नेत्र में अन्दर से बाहर की ओर जाता हुआ शक्ति क्षेत्र होना चाहिए और इसे हम ची सत्व कहते हैं। इसकी क्या उपयोगिता है? यह एक टेलीविजन की स्क्रीन की तरह है : फोसफोर के बिना, यदि टेलीविजन को चलाया जाये तो यह केवल एक प्रकाश का बल्ब ही है। इसमें केवल प्रकाश होगा, किन्तु दृश्य नहीं। फोसफोर के कारण ही दृश्य प्रतिबिंबित होते हैं। यद्यपि, यह उदाहरण पूर्णतया उपयुक्त नहीं है क्योंकि हम वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखते है जबकि टेलीविजन वस्तुओं को स्क्रीन पर प्रतिबिंबित करके दिखाता है। इसे लगभग इस प्रकार समझा जा सकता है। यह थोड़ा सा ची सत्व अत्यन्त अनमोल है, क्योंकि यह एक सूक्ष्म तत्व का बना है जो सद्गुण से परिष्कृत किया गया है। साधारणत:, प्रत्येक व्यक्ति का ची सत्व भिन्न होता है। लगभग दस हजार में दो व्यक्ति समान स्तर पर होते हैं।
दिव्य नेत्र हमारे ब्रह्माण्ड के फा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। यह दिव्य है तथा इसका व्यक्ति के नैतिकगुण से घनिष्ट संबंध है। यदि किसी व्यक्ति का नैतिकगुण स्तर निम्न है तो उसका स्तर भी निम्न है। नैतिकगुण स्तर निम्न होने के कारण इस व्यक्ति के अधिकांश ची सत्व का क्षय हो चुका होता है। यदि किसी व्यक्ति का नैतिकगुण स्तर ऊँचा है और साधारण मानव समाज में बचपन से व्यस्क होने तक उसने प्रसिध्दि, लाभ, एक दूसरे के बीच संघर्ष, स्वार्थ तथा अनेकों मानवीय भावनाओं और इच्छाओं की ओर कम ध्यान दिया है, उसका ची सत्व अपेक्षाकृत अधिक संरक्षित होगा। इसलिए उसके दिव्य नेत्र खुलने के बाद वह वस्तुओं को अधिक स्पष्ट देख सकता है। छ: वर्ष से कम उम्र का बच्चा दिव्य नेत्र खुलने के बाद वस्तुओं को बहुत स्पष्ट देख सकता है। उसका दिव्य नेत्र खोलना सरल भी है। यदि मैं एक शब्द कहूँ, यह खुल जायेगा।
साधारण मानव समाज के कलुषित प्रवाह या दूषित वातावरण के कारण, जिन वस्तुओं को लोग उचित समझते हैं, वास्तव में, अक्सर अनुचित होती हैं। क्या सभी एक अच्छे जीवन की कामना नहीं करते ? अच्छे जीवन की इच्छा से हो सकता है दूसरों के हितों का उल्लघन हो, स्वयं की स्वार्थी इच्छाओं को बढ़ावा मिले; दूसरों के लाभों में रुकावट हो, या दूसरों को डराने धमकाने और हानि पहुंचाने की प्रवृति बढ़े। व्यक्ति निजी-लाभ के लिए साधारण लोगों के बीच स्पर्धा और संघर्ष करेगा। क्या यह ब्रह्माण्ड की प्रकृति के विपरीत जाना नहीं है? इस प्रकार जिसे लोग उचित समझते हैं आवश्यक नहीं कि उचित हो। बच्चों को शिक्षा देते हुए, व्यस्क अक्सर सिखाते हैं, "तुम्हें चतुर बनना चाहिए," जिससे भविष्य में वह साधारण लोगों के समाज में अपना स्थान बना सके। हमारे विश्व के दृष्टिकोण से "चतुर होना" पहले से ही अनुचित है, क्योंकि हम प्रकृति के क्रम के अनुरुप चलने तथा निजी-लाभ पर कम ध्यान देने पर बल देते हैं। चतुर होने पर वह निजी-लाभ पर अधिक ध्यान देने लगता है। "जो भी तुम्हें धमकाये, उसके शिक्षक के पास जाओ और उसके माता-पिता का पता करो।" "यदि तुम जमीन पर पड़ा हुआ पैसा देखो तो उठा लो।" बच्चों को इसी प्रकार सिखाया जाता है। बचपन से बड़े होने तक जैसे-जैसे वह और सीखता है, धीरे-धीरे वह साधारण मानव समाज में और स्वार्थी होता जायेगा। वह दूसरों का लाभ उठायेगा और सद्गुण का क्षय करेगा।
यह पदार्थ, सद्गुण, क्षय होने पर भी लुप्त नहीं होता। यह दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाता है। किन्तु यह ची सत्व नष्ट हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति बचपन से बड़े होने तक कपटी रहा है और उसकी स्वहित और लाभ पाने की इच्छा बहुत प्रबल रही है, इस व्यक्ति का दिव्य नेत्र खुलने के बाद साधारणत: कार्य नहीं करेगा, या वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पायेगा। यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं है कि यह इसके बाद कार्य करेगा ही नहीं। क्यों ? क्योंकि साधना अभ्यास के क्रम के दौरान हम अपनी मूल, वास्तविक प्रकृति की ओर लौटने का प्रयत्न करते हैं और दृढ़ अभ्यास द्वारा हम निरन्तर इसकी पूर्ति तथा पुन: प्राप्ति कर सकेंगे। इसलिए नैतिकगुण पर ध्यान देना आवश्यक है। हम परिपूर्ण विकास तथा परिपूर्ण सुधार पर बल देते हैं। यदि नैतिकगुण में सुधार होता है, बाकी सब स्वयं सुधर जायेगा। यदि नैतिकगुण में सुधार नहीं होता है, उस थोड़े से ची सत्व की पूर्ति भी नहीं हो सकेगी। यही नियम है।
दूसरा कारण है कि जब व्यक्ति स्वयं अपने आप साधना अभ्यास करता है, यदि उसका ज्ञानोदय का गुण उत्ताम है तो उसका दिव्य नेत्र खुल सकता है। अक्सर, कुछ लोग जिस पल उनका दिव्य नेत्र खुलता है, भयभीत हो जाते हैं। वे क्यों भयभीत हो जाते हैं? यह इसलिए क्योंकि लोग अक्सर मध्य रात्रि में चीगोंग का अभ्यास करते हैं, जब रात्रि अधंकारमय और शांत होती है। जैसे वह व्यक्ति अभ्यास करता है, अचानक वह एक बड़ा नेत्र अपनी आंखो के सम्मुख देख सकता है, जो उसे तुरन्त भयभीत कर देगा। यह भय असाधारण रुप से बड़ा होता है, और वह उसके बाद चीगोंग का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं जुटा सकेगा। कितना डरावना! एक पलक झपकता हुआ विशाल नेत्र आपको देख रहा है, और यह पूर्णतया स्पष्ट है। इस कारण, कुछ लोग इसे राक्षस का नेत्र कहते हैं, तो कुछ बुध्द का नेत्र, इत्यादि। वास्तव में, यह आपका अपना नेत्र है। निश्चित ही, साधना अपने प्रयत्न पर निर्भर करती है, जबकि गोंग का रुपान्तरण व्यक्ति के गुरु द्वारा किया जाता है। गोंग के रुपान्तरण की संपूर्ण प्रक्रिया बहुत जटिल होती है, और दूसरे आयामों में फलित होती है। शरीर में परिवर्तन केवल दूसरे एक आयाम में नहीं होता, बल्कि सभी विभिन्न आयामों में होता है। क्या आप यह स्वयं कर सकते हैं? आप नहीं कर सकते। ये वस्तुऐं गुरु द्वारा व्यवस्थित की जाती हैं और गुरु द्वारा पूर्ण की जाती हैं। इसलिये, यह कहा जाता है कि साधना व्यक्ति के अपने प्रयत्नों पर निर्भर करती है, जबकि गोंग का रुपान्तरण उसके गुरु द्वारा किया जाता है। आपकी केवल ऐसी इच्छा हो सकती है और इसके बारे में इस प्रकार सोच सकते हैं, किन्तु इन कार्यों को गुरु ही वास्तव में करते हैं।
कुछ लोग दिव्य नेत्र स्वयं अपने अभ्यास द्वारा खोलते हैं। हम आपके उस नेत्र के बारे में कह रहे हैं, किन्तु आप इसे स्वयं विकसित करने में असमर्थ हैं। कुछ लोगों के गुरु होते हैं जो, यह पता लगने पर कि उनके दिव्य नेत्र खुल गये हैं, उनके लिये एक रुपान्तरित कर देंगे। इसे यथार्थ नेत्र कहा जाता है। यद्यपि, कुछ लोगों के गुरु नहीं होते, किन्तु ऐसा गुरु हो सकता है जो समीप से गुजर रहा हो। बुध्द विचारधारा का कथन है : "बुध्द सर्वव्यापी हैं।" वे इतने अधिक हैं कि वे सब ओर हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं : "व्यक्ति के सिर से तीन फुट ऊपर भी आध्यात्मिक प्राणी हैं," जिसका अर्थ यह है कि वे अनगिनत हैं। यदि एक समीप से गुजरता हुआ गुरु यह देखता है कि आपने बहुत अच्छा अभ्यास किया है जिससे दिव्य नेत्र खुल गया है तथा आपको एक नेत्र की आवश्यकता है, वह एक आपके लिए रुपान्तरित कर देगा, जिसे आपकी अपनी साधना का फल माना जा सकता है। लोगों को मुक्ति प्रदान करने में मूल्य, पारितोषिक अथवा प्रसिध्दि की कोई शर्त या विचार नहीं होता। वे इस प्रकार साधारण लोगों के नायकों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। वे इसे पूरी तरह अपने करुणाभाववश करते हैं।
जब आपका दिव्य नेत्र खोला जाता है, एक परिस्थिति उत्पन्न होगी : आपकी आंखें प्रकाश से चौंधिया जायेंगी और जलन अनुभव होगी। वास्तव में आपकी आंखें चकाचौंध नहीं हुई हैं। बल्कि, यह आपकी पिनियल ग्रंथि है जिसमें जलन होती है, जबकि आपको लगता है कि आपकी आंखों में जलन हो रही है। यह इसलिए होता है क्योंकि आपने इस नेत्र को अभी प्राप्त नहीं किया है। जब आपको यह नेत्र उपलब्ध हो जाता है, तब आपकी आंखों में जलन नहीं होगी। हमारे कई अभ्यासी इस नेत्र का अनुभव कर सकेंगे अथवा देख सकेंगे। क्योंकि इसमें ब्रह्माण्ड के समान प्रकृति का समावेश है, इसलिए यह बहुत ही पवित्र और साथ ही जिज्ञासु होता है। यह अन्दर की ओर देखता है कि आपका दिव्य नेत्र खुल चुका है और यह वस्तुओं को देख सकता है अथवा नहीं। यह अन्दर की ओर आपको भी देखता है। तब तक आपका दिव्य नेत्र खुल चुका होता है। जब यह आपको देखता है, आप इसे अचानक देखकर चौंक जायेंगे। वास्तव में, यह आपका अपना नेत्र है। अब से, जब आप वस्तुओं को देखेंगे, आप इस नेत्र द्वारा देखेंगे। यदि आपका दिव्य नेत्र खुला भी हो, आप इस नेत्र के बिना वस्तुओं को बिल्कुल नहीं देख पायेंगे।
तीसरा कारण वे भिन्नताऐं हैं जो विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त होती है जब व्यक्ति अलग-अलग स्तरों का भेदन करता है। यही विषय है जो वास्तव में व्यक्ति का स्तर निर्धारित करता है। वस्तुओं को देखने के लिए मुख्य नाड़ी के अलावा, कई सह नाड़ियां भी होती हैं। बुध्द विचारधारा का मानना है कि प्रत्येक रोमछिद्र एक नेत्र है, जबकि ताओ विचारधारा के अनुसार शरीर का प्रत्येक छिद्रमार्ग एक नेत्र है। यानि, सभी एक्यूपंक्चर बिंदु नेत्र हैं। यद्यपि, जो कुछ उन्होंने कहा है वह शरीर में फा के रुपान्तरणों का एक रूप ही है; व्यक्ति शरीर के किसी भी भाग से वस्तुओं को देख सकता है।
स्तर जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं वह इससे भिन्न है। मुख्य नाड़ी के अलावा, विभिन्न भागों में कई मुख्य सह-नाड़ियां भी होती है, जैसे दोनो भौहों के ऊपर, पलकों के ऊपर और नीचे, और शानगन 1 बिंदु पर। वे व्यक्ति के स्तरों के भेदन के विषय को निर्धारित करते हैं। निश्चित ही, एक साधारण अभ्यासी यदि शरीर के अलग अलग भागों से वस्तुओं को देख सके, तो वह पहले ही एक बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच चुका है। कुछ अपनी भौतिक आंखों द्वारा भी दृश्य देख पाते हैं। वे भी इन नेत्रों का संवर्धन करने में सफल रहे हैं जो विभिन्न प्रकार की दिव्य सिध्दियों से सज्जित हैं। यदि इस नेत्र का उचित प्रकार से प्रयोग नहीं किया जाता है, तो व्यक्ति दूसरी वस्तु को न देख कर सदैव एक ही वस्तु देखेगा। किन्तु, इससे भी काम नहीं बनेगा। इस प्रकार, कुछ लोग अक्सर एक ओर एक नेत्र से देखते हैं तथा दूसरी ओर दूसरे नेत्र से। किन्तु इस दायें नेत्र के नीचे कोई सह नाड़ी नहीं है क्योंकि यह सीधे फा से संबंधित है। लोग दायें नेत्र का प्रयोग बुरे कार्यों को करने में करते हैं; इसलिए दायें नेत्र के नीचे कोई सह नाड़ी नहीं होती। यह विभिन्न मुख्य सह नाड़ियों के संदर्भ में है जो व्यक्ति की त्रिलोक-फा साधना में विकसित होती हैं।
एक अत्यन्त ऊँचे स्तर पर पहुँचने के पश्चात तथा पर-त्रिलोक-फा साधना के बाद, एक नेत्र विकसित होगा जो एक युग्म नेत्र जैसा लगता है। मुख्य रुप से, चेहरे के ऊपरी भाग में एक वृहत नेत्र विकसित होगा जिसमें बहुत से लघु नेत्र होंगे। कुछ महान ज्ञान प्राप्त व्यक्ति जो बहुत ऊँचे स्तरों पर हैं इतने नेत्र विकसित कर लेते हैं कि वे उनके पूरे चेहरे पर होते हैं। सभी नेत्र, वस्तुओं को इस वृहत नेत्र द्वारा देखते हैं, तथा वे वह सब देख सकते हैं जो वे चाहें। वर्तमान में, जन्तु विशेषज्ञ तथा कीट विशेषज्ञ मक्खियों पर शोध करते हैं, एक मक्खी की आंख बहुत बड़ी होती है सूक्ष्मदर्शी से देखने पर यह ज्ञात होता है कि इसके अन्दर बहुत सी छोटी आंखें होती हैं, तथा इसे युग्म आंख कहा जाता है। अभ्यासियों के एक अत्यन्त ऊँचे स्तर पर पहुँचने पर, यह स्थिति आ सकती है। किन्तु इसे संभव करने के लिए व्यक्ति का स्तर तथागत स्तर से भी कई गुणा ऊँचा होना चाहिए। हालांकि एक साधारण व्यक्ति इसे नहीं देख सकता। औसत स्तर पर भी लोग इसके अस्तित्व को नहीं देख सकते, और क्यों यह दूसरे आयाम में होता है वे केवल यह देख सकते हैं कि यह व्यक्ति दूसरे लोगों की भांति साधारण ही हैं। यह स्तरों के भेदन का विवरण है। कहने का अर्थ है, यह विषय इस बात से संबंधित है कि आप विभिन्न आयामों तक पहुँच सकते हैं अथवा नहीं।
मैने मूल रुप से दिव्य नेत्र की रचना सभी को बता दी है। हम आपका दिव्य नेत्र एक बाहय शक्ति द्वारा खोलते हैं, जिससे यह अपेक्षाकृत शीघ्रता और सुगमता से हो जाता है। जब मैं दिव्य नेत्र के बारे में बता रहा था, आप सभी अनुभव कर सकते थे कि आपका माथा संकुचन कर रहा है; इसकी पेशियां ऐसी महसूस हो रही थीं जैसे एक साथ अन्दर की ओर भेदन कर रहीं हों। यह इस प्रकार था, क्या नहीं? यह इसी प्रकार था। जब तक आप अपना मन यहां फालुन दाफा को सीखने में लगाऐंगे, आप सभी इसे अनुभव करेंगे; बाहय शक्ति जब भेदन करती है बहुत तीव्रता से आती है। मैंने विशिष्ट शक्ति छोड़ी है जो दिव्य नेत्र को खोलती है। साथ ही, आपके दिव्य नेत्र के उपचार के लिए मैने फालुन भी भेजे हैं। जब मैं दिव्य नेत्र के बारे में बात कर रहा था, मैं सभी के दिव्य नेत्र खोल रहा था, जब तक वे फालुन दाफा में साधना अभ्यास करते हैं। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि हर कोई वस्तुओं को स्पष्टता से देख सकेगा, और न ही यह आवश्यक है हर कोई वस्तुओं को देख सके। इसका संबंध सीधे स्वयं आप से है। चिन्ता न करें, कोई फर्क नहीं पड़ता यदि आप इससे वस्तुओं को नहीं देख पाते। इसका संर्वधन करने में अपना समय लीजिए। जैसे-जैसे आप निरन्तर अपने स्तर को उठाएंगे, आप धीरे-धीरे वस्तु को देख पायेंगे, और आपकी अंधकारमय दृष्टि और स्पष्ट होती जायेगी। जब तक आप साधना का अभ्यास करते रहेंगे और साधना अभ्यास के लिए मन बना लेते हैं, आप वह सब प्राप्त कर पायेंगे जो आपने खोया है।
दिव्य नेत्र को स्वयं खोल पाना अपेक्षाकृत कठिन है। मैं अब स्वयं दिव्य नेत्र खोलने के विभिन्न तरीकों के बारे में बताता हूँ। उदाहरण के लिए, ध्यान मुद्रा में बैठ कर जब आप अपने माथे और दिव्य नेत्र पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, आप में से कुछ यह अनुभव करते हैं कि माथे के अन्दर अंधकारमय है, और वहां कुछ नहीं है। जैसे समय बीतता है आप पायेंगे कि धीरे-धीरे माथे के अंदर यह कुछ श्वेत होने लगता है। कुछ अवधि तक साधना अभ्यास के बाद, आप पायेंगे कि धीरे-धीरे माथे में उज्जवल होने लगता है, और फिर यह लाल हो जाता है। इस समय, यह फूलों के खिलने की भांति दिखाई पडेग़ा जैसे टेलीविजन अथवा फिल्म में फूल पल भर में खिल जाते हैं। इस प्रकार के दृश्य दिखाई पड़ेंगे। पहले लाल रंग दिखाई पड़ेगा, और फिर यह तुरन्त केन्द्र में एकत्रित होकर निरन्तर घूमेगा। यदि आप इसे स्वयं अन्त तक घुमाना चाहें, हो सकता है आठ से दस वर्ष भी कम पड़ें, क्योंकि संपूर्ण दिव्य नेत्र अवरुध्द है।
कुछ लोगों के दिव्य नेत्र अवरुध्द नहीं होते, और इसमें एक विवर मार्ग होता है। किन्तु इसमें वहां कोई शक्ति नहीं होती, क्योंकि वे चीगोंग का अभ्यास नहीं करते। इस प्रकार, जब वे चीगोंग का अभ्यास करते हैं, एक काले पदार्थ की गेंद उनकी आंखों के आगे अचानक प्रकट होगी। कुछ समय अभ्यास करने के पश्चात, यह क्रमश: सफेद तथा उज्जवल हो जायेगी। अन्त में, यह और उज्जवल होती जायेगी तथा आंखें बहुत कुछ चौंधियाती हुई महसूस होगीं । इसलिए, कछ लोग कहते हैं, "मैने सूर्य देखा," या "मैंने चांद देखा।" वास्तव में उन्होंने न तो सूर्य देखा और न ही चांद। तब उन्होंने क्या देखा? यह उनका विवर मार्ग था। कुछ लोग अपने स्तरों को शीघ्रता से पार करते हैं। नेत्र स्थापित कर दिये जाने के पश्चात, वे वस्तुओं को तभी से देखना आरम्भ कर सकते हैं। दूसरों के लिए, यह बहुत कुछ कठिन होता है। जब वे चीगोंग का अभ्यास करते हैं, उन्हे प्रतीत होगा जैसे वे इस विवर मार्ग, जो एक सुरंग अथवा कुंऐ की तरह है, में से बाहर की ओर भाग रहे हों। यहां तक कि उनकी निद्रा में भी उन्हे प्रतीत होगा, जैसे बाहर की ओर भाग रहे हों। कुछ को ऐसा लगेगा जैसे घोड़े की सवारी कर रहे हों; कुछ लोगों को लगेगा जैसे उड़ रहे हों; कुछ को लगेगा जैसे दौड़ रहे हों; और कुछ महसूस करेंगे जैसे कार में तेजी से आगे जा रहे हों। क्योंकि दिव्य नेत्र को स्वयं खोलना बहुत कठिन है, उन्हे हमेशा ऐसा लगेगा कि वे अन्त तक नहीं पहुँच सकते। ताओ विचारधारा का मानना है कि मानव शरीर एक लघु ब्रह्माण्ड है। यदि यह एक लघु ब्रह्माण्ड है, तो सोचें, कि माथे से पिनियल ग्रंथि की दूरी एक लाख आठ हजार ली 2 से अधिक है। इस प्रकार व्यक्ति को हमेशा यह प्रतीत होगा जैसे आगे की ओर भाग रहा हो और अन्त की ओर न पहुँच पा रहा हो।
ताओ विचारधारा द्वारा मानव शरीर को लघु ब्रह्माण्ड मानना बहुत कुछ तर्क संगत है। इसका यह अर्थ नहीं है कि इसकी संरचना तथा बनावट एक ब्रह्माण्ड के समरुप है, और न ही इसका इशारा हमारे भौतिक आयाम के शरीर की वर्तमान संरचना से है। हम पूछते हैं, "आधुनिक विज्ञान की समझ के अनुसार, कोशिकाओं से बने भौतिक शरीर की अवस्था और अधिक सूक्ष्म स्तर पर कैसी दिखाई पड़ती है?" इसमें विभिन्न अणुओं की संरचनाऐं हैं। अणुओं से सूक्ष्म परमाणु, प्रोटोन, नाभिक, इलेक्ट्रोन और क्वार्क हैं। अब पाये गए सूक्ष्मतम कण न्यूट्रिनो हैं। तो, सूक्ष्मतम कण क्या है? इसका अध्ययन करना बहुत कठिन है। अपने अंतिम वर्षों में, शाक्यमुनि ने यह वाक्य कहा था : "यह इतना वृहत है कि इसकी कोई बाहय सीमा नहीं है, तथा यह इतना सूक्ष्म है कि इसकी कोई आन्तरिक सीमा नहीं है।" इसका क्या अर्थ है? तथागत के स्तर पर, ब्रह्माण्ड इतना वृहत है कि इसकी सीमा अबोध है, साथ ही इतना सूक्ष्म है कि पदार्थ के सूक्ष्मतम कणों का बोध नहीं किया जा सकता है। परिणामस्वरुप, उन्होने कहा : "यह इतना वृहत है कि इसकी कोई बाहय सीमा नहीं है, और इतना सूक्ष्म कि इसकी कोई आन्तरिक सीमा नहीं है।"
शाक्यमुनि ने तीन हजार विश्वों के सिध्दान्त के बारे में भी कहा। उन्होंने कहा कि, हमारे ब्रह्माण्ड और हमारी आकाशगंगा में तीन हजार ग्रह है जहां ऐसे प्राणी वास करते हैं जिनके भौतिक शरीर हमारी मानव जाति के जैसे ही हैं। उन्होने यह भी कहा कि ऐसे तीन हजार विश्व एक रेत के कण में हैं। एक रेत का कण इस प्रकार एक विश्व के जैसा ही है, जिसमें हमारे जैसे बुध्दिवान प्राणी हैं, ग्रह, पर्वत और नदियां हैं। यह अविश्वस्नीय लगता है! यदि ऐसा है तो आप सब सोचें : क्या उन तीन हजार विश्वों में रेत है? और क्या उन रेत के किसी कण में और तीन हजार विश्व हैं? तब, क्या उन तीन हजार विश्वों में रेत है? तब, क्या उन रेत के कणों में से किसी में और तीन हजार विश्व हैं? इस प्रकार, तथागत के स्तर पर, इसका अन्त नहीं देखा जा सकता।
यही बात मानव आण्विक कोषिकाओं के लिए सत्य है। लोग पूछते हैं कि ब्रह्माण्ड कितना बड़ा है। मैं आपको बताना चाहूँगा कि इस ब्रह्माण्ड की भी अपनी सीमा है। किन्तु, तथागत के स्तर पर भी यह असीमित और अनंत रुप से वृहत लगता है। किन्तु, मानव शरीर का आन्तरिक भाग इस ब्रह्माण्ड जितना ही बड़ा है, अणुओं से लेकर सूक्ष्म स्तर के सूक्ष्म कणों तक। यह बहुत अविश्वस्नीय लग सकता है। जब कोई मानव अथवा जीव की रचना की जाती है, उसके विशिष्ट जीवन तत्व और आवश्यक गुण की रचना पहले से अत्यन्त सूक्ष्म स्तर पर हो चुकी होती है। इस प्रकार, इस विषय के ज्ञान में, हमारा आधुनिक विज्ञान कहीं पीछे है। हमसे अधिक बुध्दिवान उन प्राणियों की तुलना में जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड में विभिन्न ग्रहों पर वास करते हैं, हमारी मानव जाति का वैज्ञानिक स्तर बहुत निम्न है। हम उन दूसरे आयामों तक भी नहीं पहुँच सकते जिनका अस्तित्व साथ ही साथ उसी स्थान पर है, जबकि दूसरे ग्रहों की उड़न तश्तरियां सीधे दूसरे आयामों में प्रवेश कर सकती हैं। उस काल-अवकाश की धारणा बिल्कुल भिन्न है। इस प्रकार वे जब चाहे आ-जा सकती हैं और इतनी तीव्र गति से जिसे मानव मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर सकता।
दिव्य नेत्र के बारे में बात करते हुए, मैं इस विषय पर चर्चा कर चुका हूँ जब आप ऐसा महसूस करते हैं जैसे किसी विवर मार्ग में से बाहर की ओर ढकेले जा रहे हों, आपको प्रतीत होता है जैसे यह असीमित और अनन्त हो। कुछ लोग दूसरी स्थिति देख सकते हैं जहां उन्हे यह नहीं लगता कि वे किसी विवर में से भागे जा रहे हों, बल्कि एक असीमित और अनन्त राह पर आगे की ओर बढ़े जा रहे हों। बाहर की ओर बढ़ते हुए, वहां दोनो ओर पर्वत, नदियां और शहर हैं। यह और भी अधिक अविश्वस्नीय लग सकता है। मुझे याद है कि एक चीगोंग गुरु ने इसी प्रकार से कहा था : "मानव शरीर के प्रत्येक रोमछिद्र में एक शहर है, जिसमें रेलगाड़ियां तथा कारें दौड़ती हैं।" इसे सुनने पर, दूसरे लोग अचंभित रह गए और उन्हे यह अविश्वस्नीय लगा। आप जानते हैं कि पदार्थ के सूक्ष्म कणों में अणु, परमाणु, तथा प्रोटोन होते हैं। इसमें आगे जांच करते हुए, यदि आप प्रत्येक स्तर पर एक बिंदु के स्थान पर उसका आयाम देख सकें, और अणुओं का आयाम, परमाणुओं का आयाम, प्रोटोन का आयाम तथा नाभिक का आयाम देख सकें, तो आप दूसरे आयामों में अस्तित्व की रचनाओं को देखेगें। मानव शरीर और सभी पदार्थ, विश्वक अंतरिक्ष के आयाम स्तरों के साथ अस्तित्व में हैं। जब हमारा आधुनिक भौतिक विज्ञान पदार्थ के सूक्ष्म कणों पर शोध करता है, यह सूक्ष्म कण का अध्ययन केवल इसके विभाजन अथवा विखंडन द्वारा करता है। यह इसके तत्वों का अध्ययन नाभिकीय विखंडन द्वारा करता है। यदि ऐसा कोई उपकरण होता जिससे हम उस स्तर को विस्तारित कर पाते और देख पाते जिस पर सभी परमाणु या अणु तत्व अपने पूर्ण रुप में प्रकट हों, या यदि इस दृश्य को देखा जा सकता, तो आप इस आयाम से आगे पहुँच जाते और दूसरे आयामों के दृश्यों को देख पाते। मानव शरीर का संबंध बाहरी आयामों से है, और उन सभी के अस्तित्व के ऐसे रूप होते हैं।
जब व्यक्ति स्वयं दिव्य नेत्र को खोलता है तो कुछ और विभिन्न परिस्थ्ितियां होती हैं। हमने मुख्यत: कुछ सबसे साधारण घटनाओं के बारे में बताया है। कुछ लोग यह भी पाते हैं कि उनका दिव्य नेत्र घूम रहा है। जो ताओ विचारधारा में अभ्यास करते हैं वे अक्सर अपने दिव्य नेत्र में कुछ घूमता हुआ देखते हैं। तब ताइची कवच के एक चटक के साथ खुलने पर, व्यक्ति को दृश्य दिखाई देंगे; किन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके सिर में एक ताइची है। आपके गुरु ने आरंभ में ही आपके लिए एक वस्तुओं का संग्रह स्थापित किया था जिनमें से एक ताइची था। उन्होने आपके दिव्य नेत्र को बंधित रखा था। जब आपका दिव्य नेत्र खोला जाता है, यह चटक कर खुल जाता है। गुरु ने जानबूझ कर इसे इसी प्रकार व्यवस्थित किया था, और यह मूल रुप से आपके सिर की वस्तु नहीं है।
तब भी कुछ लोग दिव्य नेत्र को खोलने की इच्छा रखते हैं। जितना वे इसके लिए अभ्यास करते हैं, उतना इसे खोलना कठिन होता है। इसका क्या कारण है? उन्हे स्वयं इसकी समझ नहीं है। यह मुख्यत: इसलिए है कि दिव्य नेत्र की कामना नहीं की जा सकती; जितनी अधिक व्यक्ति की इच्छा होती है, उतना ही कम उसे मिलता है। जब कोई व्यक्ति इसे उदण्डपूर्वक चाहता है, तो न केवल यह नहीं खुलेगा, बल्कि उसके दिव्य नेत्र से एक मटमैले पदार्थ का स्राव होगा। यह उसके दिव्य नेत्र को ढक लेगा। जैसे समय बीतेगा, यह एक बहुत बडा पुंज बना लेगा। जितना अधिक यह निकल कर बहेगा, उतना ही यह संचित होता जायेगा। दिव्य नेत्र का खुलना जितना अधिक कठिन होगा, उतना ही अधिक वह इच्छा प्रयास करेगा, तथा उतना ही अधिक यह पदार्थ निकलेगा। परिणामस्वरुप, यह उसके शरीर को इस सीमा तक ढक लेगा कि एक बहुत मोटी परत वाला एक बडा पुंज बना लेगा। यदि इस व्यक्ति का दिव्य नेत्र वास्तव में खोल दिया जाये, तो भी वह कुछ देख नहीं पायेगा क्योंकि यह उसके अपने मोहभाव द्वारा बंद है। केवल यदि वह इसके बारे में भविष्य में न सोचे और इस मोहभाव को पूरी तरह छोड़ दे, तभी यह धीरे धीरे लुप्त होगा। किन्तु इसे हटाने के लिए साधना अभ्यास का एक बहुत कठिनाई भरा और लंबा समय लगेगा। यह पूरी तरह अनावश्यक है। कुछ लोग यह नहीं जानते। यद्यपि गुरु उन्हे बताते हैं कि वे इसके पीछे न जाएं या इच्छा प्रयास न करें, वे इस पर विश्वास नहीं करते। वे इसकी कामना करते रहते हैं, और अन्त में, परिणाम बिल्कुल विपरीत होता है।
दूरदृष्टि की दिव्य सिध्दि
एक दिव्य सिध्दि जो दिव्य नेत्र से सीधे संबंधित है वह दूरदृष्टि है। कुछ लोग दावा करते हैं : "यहां बैठे हुए मैं बीजिंग और अमेरिका के दृश्यों को देख सकता हूँ साथ ही पृथ्वी के दूसरे छोर पर देख सकता हूँ।" कुछ लोग इसे नहीं समझ पाते और न ही इसे वैज्ञानिक तौर पर समझाया जा सकता है। यह कैसे संभव है? कुछ लोग इसे अपने अपने तरीके से समझाते हैं, किन्तु कुछ भी अर्थपूर्ण नहीं लगता। उन्हें आश्चर्य होता है कि कोई व्यक्ति इतना सामर्थ्यवान कैसे हो सकता है। किन्तु यह इस प्रकार नहीं है। एक अभ्यासी जो त्रिलोक-फा के स्तर पर होता है, के पास यह सिध्दि नहीं होती। दूरदृष्टि तथा कई और दिव्य सिध्दियों सहित जो वह देखता है, वे एक विशिष्ट आयाम में कार्य करती हैं। अधिक से अधिक वे इस भौतिक आयाम से बाहर नहीं है जिसमें हमारे मानव समुदाय का अस्तित्व है। साधारणत: वे व्यक्ति के अपने आयाम क्षेत्र के बाहर भी नहीं हैं।
एक विशिष्ट आयाम में, मानव शरीर का एक प्रभाव क्षेत्र होता है जो सद्गुण के प्रभाव क्षेत्र से भिन्न है। वे समान आयाम में नहीं होते, किन्तु उनका आकार एक जैसा होता है। यह प्रभाव क्षेत्र ब्रह्माण्ड से परस्पर संबंधित होता है। जो कुछ वहां ब्रह्माण्ड में व्याप्त है वह परस्पर यहां परावर्तित होता है। यहां सभी कुछ परावर्तित किया जा सकता है। यह एक प्रकार का प्रतिबिंब होता है। किन्तु यह वास्तविक नहीं होता। उदाहरण के लिए इस पृथ्वी पर अमेरिका और वाशिंगटन हैं। व्यक्ति के प्रभाव क्षेत्र के अंदर, अमेरिका और वाशिंगटन परावर्तित होते हैं। किन्तु वे परावर्तित दृश्य होते हैं। परावर्तित दृश्यों का हालांकि भौतिक अस्तित्व भी होता है, और वे इसी प्रकार परावर्तित होते हैं जिस प्रकार वहां बदलाव होते हैं। इस प्रकार, जिसे लोग दूरदृष्टि की दिव्य सिध्दि कहते हैं वह स्वयं अपने प्रभाव क्षेत्र की वस्तुओं को देख पाने की सिध्दि है। जब व्यक्ति पर-त्रिलोक-फा साधना स्तर पर अभ्यास करता है, वह वस्तुओं को इस प्रकार नहीं देखता। वह वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखेगा, और वह बुध्द फा की दिव्य शक्ति कहलाती है। यह महा शक्तिपूर्ण होती है।
त्रिलोक-फा साधना के अंर्तगत दूरदृष्टि की दिव्य सिध्दि किस प्रकार कार्य करती है? मैं यह सभी को समझाने जा रहा हूँ। उस आयाम क्षेत्र में, व्यक्ति के मस्तक में एक दर्पण होता है। वे लोग जो अभ्यास नहीं करते उनका दर्पण उनके सम्मुख होता है, किन्तु अभ्यासी का दर्पण घूम जाता है। जब व्यक्ति की दूरदृष्टि की सिध्दि प्रकट होने वाली होती है, यह अपनी धूरी पर आगे-पीछे घूमने लगता है। ज्ञातव्य है कि फिल्म में चित्रों को निरंतर गति से दिखाने के लिए चौबीस फ्रेम प्रति सेकण्ड दिखाऐ जाते हैं। यदि चौबीस फ्रेम प्रति सेकण्ड से कम दिखाऐ जाऐं तो फिल्म रुकी-रुकी दिखाई देगी। दर्पण के घूमने की गति चौबीस फ्रेम प्रति सेकण्ड से अधिक होती है तथा यह जो ग्रहण करता है उसे परावर्तित करता है और पलट कर आपको दर्शाता है। दोबारा पलटने पर प्रतिबिंब मिटा दिया जाता है। यह परावर्तित करता है और पलटता है, और तब प्रतिबिम्ब को मिटा देता है। आगे पीछे घूमना निरंतर चलता रहता है। इस प्रकार, जो आप देखते हैं वह गतिशील होता है। यह आपको वह देखने देता है जो आपके अपने आयाम क्षेत्र के अन्दर परावर्तित होता है, तथा यह वृहत ब्रह्माण्ड से समतुल्य होता है।
तब, कोई अपने शरीर के पीछे कैसे देख सकता है? इतने छोटे दर्पण से शरीर के सब ओर की वस्तुओं को कैसे देखा जा सकता है? आप जानते हैं कि जब व्यक्ति का दिव्य नेत्र दिव्य दृष्टि से आगे खोला जाता है और विवेक दृष्टि तक पहुंचने वाला होता है, यह हमारे आयाम को पार करने वाला होता है। इस अवस्था में जब स्तर विच्छेदन होने वाला होता है, दिव्य नेत्र में एक बदलाव अनुभव होगा। जब यह भौतिक वस्तुओं की ओर देखता है, वे सब लुप्त हो चुकी होती हैं। लोग और दीवारें सब लुप्त हो चुके हैं- सभी कुछ लुप्त हो गया है। यहां किसी भौतिक वस्तु का अस्तित्व नहीं रहता। अर्थात्, जब आप ध्यान से देखते हैं, आपको दिखाई पड़ता है कि इस विशिष्ट आयाम में लोगों का अस्तित्व नहीं है, वहां आपके आयाम क्षेत्र के अन्दर केवल एक दर्पण खड़ा है। किन्तु आपके आयाम क्षेत्र में यह दर्पण आपके संपूर्ण आयाम क्षेत्र जितना बड़ा है। इस प्रकार, जब यह आगे और पीछे घूमता है, यह सर्वत्र सभी कुछ परावर्तित करता है। आपके आयाम क्षेत्र के अन्दर यह आपको सब कुछ दिखा सकता है, केवल यह उसके अनुरूप होना चाहिए जो ब्रह्माण्ड में है। इसी को हम दूरदृष्टि की दिव्य सिध्दि कहते हैं।
जब वे लोग जो मानव शरीर विज्ञान का अध्ययन करते हैं इस दिव्य सिध्दि का परिक्षण करते हैं, वे इसे सरलता से नकार देते हैं। नकारने का कारण इस प्रकार है। उदाहरण के लिए, जब किसी व्यक्ति से बीजिंग में उसके संबंधी के बारे में पूछा जाता है, "संबंधी घर में क्या कर रहा है?" जब संबंधी का नाम व विवरण दिये जाते हैं, व्यक्ति उसे देख सकता है। वह बताएगा कि इमारत कैसी दिखती है, दरवाजे से कैसे प्रवेश किया जाये, और कमरे में प्रवेश करने के पश्चात साज-सज्जा कैसी है। जो कुछ उसने बताया सब ठीक है। संबंधी क्या कर रही है? वह बतायेगा की संबंधी कुछ लिख रही है। जांच करने के लिए, वे उसके संबंधी को फोन करेंगे और पूछेंगे, "इस समय आप क्या कर रही हैं?" "मैं खाना खा रही हूँ।" जो उसने देखा क्या यह उससे असहमत नहीं है? विगत में, इस दिव्य सिध्दि को मान्यता न देने का यही कारण था। यद्यपि जो वातावरण उसने देखा वह गलत नहीं था। क्योंकि हमारा स्थान व समय जिसे हम "काल-अवकाश" कहते हैं उस आयाम के काल-अवकाश से भिन्न है जहां दिव्य सिध्दि का अस्तित्व है, दोनों ओर समय की अवधारणाएं भिन्न हैं। पहले वह कुछ लिख रही थी, और अब वह खाना खा रही है; इसमें यह समय अन्तराल है। परिणामस्वरुप, यदि वे जो मानव शरीर का अध्ययन करते हैं निष्कर्ष द्वारा परिकल्पना करते हैं तथा आधुनिक विज्ञान और रुढ़ीगत सिध्दान्तों के आधार पर शोध करते हैं, तो आने वाले दस हजार वर्षों तक भी उनके प्रयत्न निराशाजनक ही रहेंगे, क्योंकि यह विषय साधारण मनुष्य की परिधि से पहले ही बाहर है। इसलिए मानवजाति को अपनी मानसिकता बदलनी आवश्यक है और इस प्रकार वस्तुओं को समझना छोड़ना होगा।
पूर्व-ज्ञान व अतीत-ज्ञान की दिव्य सिध्दि
दिव्य नेत्र से सीधे संबंधित दूसरी दिव्य सिध्दि है पूर्व-ज्ञान व अतीत-ज्ञान। आज संसार में छ: प्रकार की दिव्य सिध्दियाँ सर्वमान्य हैं जिनमें दिव्य नेत्र, दूर दृष्टि, पूर्व-ज्ञान व अतीत-ज्ञान सम्मिलित हैं। पूर्व-ज्ञान और अतीत-ज्ञान क्या है? यह दूसरे व्यक्ति के भविष्य तथा भूतकाल को बताने की योग्यता है। यदि योग्यता प्रबल है तो व्यक्ति समुदाय के उत्थान व पतन के बारे में बता सकता है। और उच्च योग्यता से, वह समस्त ब्रह्माण्ड के परिवर्तनों के सिध्दांत को देख सकता है। इसे पूर्व-ज्ञान व अतीत-ज्ञान की दिव्य सिध्दि कहते हैं। क्योंकि पदार्थ गतिमान है और एक विशिष्ट नियम का पालन करता है, एक विशेष आयाम में, समस्त पदार्थ की दूसरे अनेक आयामों की अवस्थाऐं होती हैं। उदाहरण के लिए, जब मनुष्य का शरीर गति करता है, तो शरीर की कोशिकाऐं भी गतिमान होती हैं, तथा सूक्ष्म स्तर पर सभी तत्व जैसे सभी प्रोटोन, इलेक्ट्रोन तथा अत्यन्त सूक्ष्म कण भी गति करते हैं। यद्यपि इनके अपने स्वतंत्र अस्तित्व के रुप होते हैं, तथा दूसरे आयामों के शरीरों की अवस्थाओं में भी परिवर्तन आता है।
क्या हम बता नहीं चुके हैं कि पदार्थ विलुप्त नहीं होता? एक विशिष्ट आयाम में, जो कुछ एक व्यक्ति ने किया है या जो कुछ अपने हाथ को हिलाकर करता है सब पदार्थ का अस्तित्व है, और जो कुछ वह करता है वह एक छवि और एक संदेश छोड़ जाएगा। दूसरे आयाम में यह विलुप्त नहीं होता और वहां सदा के लिए स्थायी रहता है। एक दिव्य सिध्दि प्राप्त व्यक्ति अतीत में स्थित छवियों को देखकर जान सकता है कि क्या हुआ होगा। जब भविष्य में आपके पास भविष्यज्ञान और अतीतज्ञान की दिव्य सिध्दि आएंगी, मेरे आज के व्याख्यान का स्वरूप तब भी आपके देखने के लिए रहेगा। यह अभी भी वहां साथ-साथ अस्तित्व में है। एक विशिष्ट आयाम में जहां समय की अवधारणा नहीं होती, जब एक व्यक्ति का जन्म होता है, उसका पूरा जीवनकाल वहां पहले से ही अस्तित्व में होता है। कुछ लोगों के, वहां एक से अधिक जीवनकाल भी अस्तित्व में होते हैं।
कुछ लोग आश्चर्य करेंगे, "क्या इसका अर्थ है कि स्वयं को बदलने के लिए, हमारे व्यक्तिगत प्रयत्न व्यर्थ हैं?" वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते। वास्तव में, व्यक्तिगत प्रयत्न किसी व्यक्ति के जीवन में थोड़ा परिवर्तन ही ला सकते हैं। व्यक्तिगत प्रयत्नों से कुछ छोटी वस्तुओं में थोड़ा सा बदलाव लाया जा सकता है, किन्तु यह आपके बदलाव के लिए प्रयासों के कारण ही है, कि आप कर्म प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा, बुरे कर्म करने का विषय ही अस्तित्व में नहीं रहता, और न ही अच्छे कार्य या बुरे कार्य का विषय होता। जब कोई व्यक्ति, इसी प्रकार कार्य करने पर जोर देता है, वह औरों का लाभ उठाएगा और बुरे कार्य करेगा। इसलिए, साधना अभ्यास की सदैव आवश्यकता रही है कि व्यक्ति प्रकृति के क्रम का अनुसरण करे, क्योंकि अपने प्रयासों द्वारा आप दूसरों को हानि पहुंचाएंगे। यदि आपके जीवन में आरम्भ से कुछ नहीं है और आप वह प्राप्त करते हैं जो समाज में किसी और व्यक्ति का होना चाहिए था, तो आप उस व्यक्ति के ऋणी हो जाएंगे।
जहां तक बड़ी घटनाओं की बात है, एक साधारण व्यक्ति उनमें जरा भी परिवर्तन नहीं कर सकता। ऐसा करने का केवल एक ही मार्ग है। वह यह यदि यह व्यक्ति केवल बुरे कार्य करे, केवल बुरे कार्य, वह अपना जीवन बदल सकता है। यद्यपि जो उसके साथ होगा वह है उसका पूर्ण विनाश। एक ऊँचे स्तर से, हम देखते हैं जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है उसकी मूल आत्मा विलुप्त नहीं होती। मूल आत्मा विलुप्त क्यों नहीं होती? वास्तव में, हमने देखा है कि व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात, शवगृह में उसका शव और कुछ नहीं केवल हमारे आयाम में मानव कोशिकाओं से बना शरीर है। इस आयाम में, आंतरिक अंगों के विभिन्न कोशिकातंतु और पूरे मानव शरीर की सभी कोशिकाऐं छूट कर बिखर जाती हैं, जबकि दूसरे आयामों में अणुओं, परमाणुओं, प्रोटोन, आदि, से भी सूक्ष्म कणों से बने शरीर बिलकुल मृत नहीं होते। उनका अस्तित्व दूसरे आयामों में बना रहता है और वे सूक्ष्म आयामों में जीवित रहते हैं। जो व्यक्ति सभी प्रकार के बुरे कार्य करता है जो उसे प्राप्त होगा वह है उसकी समस्त कोशिकाओं का विघटन, जिसे बुध्दमत में शरीर और आत्मा का विनाश कहा जाता है।
अपना जीवन बदलने के लिए एक और मार्ग है, और केवल यही मार्ग है : वह यह कि वह व्यक्ति अब से साधना अभ्यास का मार्ग अपना ले। यदि कोई व्यक्ति साधना अभ्यास का मार्ग अपनाता है तो उसका जीवन क्यों बदला जा सकता है? कौन आसानी से इस प्रकार का बदलाव ला सकता है? जैसे ही यह व्यक्ति साधना अभ्यास के मार्ग को अपनाने के बारे में सोचता है, और जैसे ही यह विचार आता है, यह सोने की भांति प्रकाशवान होता है, और दसों दिशाओं में विश्व को हिला देता है। बुध्द विचारधारा का ब्रह्माण्ड के बारे में दस दिशाओं वाले विश्व का सिध्दांत है। एक ऊँचे स्तर के प्राणी के दृष्टिकोण से, एक व्यक्ति के जीवन का प्रयोजन केवल मानव होना नहीं हैं। यह प्राणी सोचता है कि व्यक्ति के जीवन का जन्म ब्रह्माण्ड के अंतरिक्ष में हुआ है और यह ब्रह्माण्ड के समान गुण से आत्मसात है; जीवन परोपकारी है और सत्य-करूणा-सहनशीलता पदार्थ से बना है। किन्तु एक जीवन सामाजिक संबंध भी स्थापित करता है। समुदाय में सामाजिक क्रियाकलापों के दौरान, कुछ जीवन भ्रष्ट हो जाते हैं और एक निम्न स्तर पर गिर जाते हैं। जब वे उस स्तर पर भी स्थायी नहीं रह पाते और फिर से बुरे हो जाते हैं, तो वे और भी निचले स्तर पर गिर जाते हैं। वे इस प्रकार निरन्तर गिरते रहते हैं, जब तक अंत में वे इस साधारण मानव स्तर पर नहीं पहुंच जाते।
इस स्तर पर, इन लोगों को नष्ट और समाप्त हो जाना चाहिए था। किन्तु उन महान ज्ञानप्राप्त व्यक्तियों ने अपनी महान परोपकारी करुणावश, विशेष रूप से हमारे मानव समुदाय के लोक का निर्माण किया। इस आयाम के लोक में, व्यक्ति को यह अतिरिक्त मानव भौतिक शरीर और ये अतिरिक्त आंखें दी गई हैं जो केवल इस भौतिक आयाम में वस्तुओं को देख सकती हैं। यानि व्यक्ति मायाजाल में खो जाता है और ब्रह्माण्ड का सत्य देखने में असमर्थ होता है, जिसे और सभी आयामों में देखा जा सकता है। इस मायाजाल में और इन परिस्थितियों में, व्यक्ति को इस प्रकार का अवसर प्रदान किया जाता है। चूंकि व्यक्ति माया में घिरा है, यह बहुत दु:खदायी भी है। इस शरीर के साथ उसे पीड़ा भी भोगनी होती है। यदि कोई व्यक्ति इस आयाम से अपने मूल की ओर वापस जाना चाहता है, तो ताओ विचारधारा का कहना है कि अपनी मूल प्रकृति की ओर वापस जाने के लिए उसे साधना का अभ्यास करना आवश्यक है। यदि उसका हृदय साधना अभ्यास के लिए कहता है, तो यह उसका बुध्द स्वभाव है जो जागृत हो गया है। इस हृदय को सर्वाधिक मूल्यवान माना जाता है तथा लोग उसकी मदद करते हैं। इस प्रकार की कठिन परिस्थितियों में, यह व्यक्ति अभी भी भ्रमित नहीं हुआ है और वापस लौटना चाहता है। परिणामस्वरूप, लोग उसकी मदद करेंगे और बिना शर्त सहयोग देंगे-वे उसकी किसी भी प्रकार मदद करेंगे। हम इस प्रकार का कार्य एक अभ्यासी के लिए क्यों कर पाते हैं किन्तु साधारण व्यक्ति के लिए नहीं? यही कारण है।
जहां तक एक साधारण व्यक्ति का प्रश्न है जो रोग का उपचार करना चाहता है, हम उसकी किसी प्रकार मदद नहीं कर सकते। एक साधारण व्यक्ति, केवल एक साधारण व्यक्ति ही है। एक साधारण व्यक्ति को साधारण मानव समुदाय की स्थिति के अनुरूप होना चाहिए। कई लोग कहते हैं कि बुध्द सभी प्राणियों का उध्दार करते हैं और बुध्द विचारधारा सभी प्राणियों का उध्दार सिखाती है। मैं आपको बताना चाहूँगा कि आप सभी बुध्दमत के शास्त्र देख सकते हैं, और उनमें कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि साधारण लोगों का उपचार करना समस्त प्राणियों का उध्दार करना है। यह गत वर्षों के वे पाखण्डी चीगोंग गुरु हैं जिन्होंने इन विषय को उलझा दिया है। वे सच्चे चीगोंग गुरु, जिन्होंने मार्ग प्रशस्त किया था, उन्होंने आपको दूसरों के रोग उपचार के लिए बिल्कुल नहीं कहा था। उन्होंने आपको केवल स्वयं अभ्यास करने, रोग निवारण, और स्वस्थ रहने के लिए कहा था। आप एक साधारण व्यक्ति हैं। आप रोगों का उपचार केवल दो दिन इसका अध्ययन करके कैसे कर सकते हैं? क्या यह औरों को धोखा देना नहीं है? क्या इससे आपके मोहभाव को बढ़ावा नहीं मिलता? यह साधारण लोगों के बीच प्रसिध्दि, निजी-लाभ के पीछे भागना, और कुछ अति-मानवीय दिखाने जैसा है! इसकी बिल्कुल मनाही है। इसलिए, ंजितना अधिक लोग किसी वस्तु का इच्छा प्रयास करते हैं, उतना कम वे उसे प्राप्त करते हैं। आपको ऐसा करने की अनुमति नहीं है, और न ही आपको इतनी सुगमता से साधारण मानव समाज की परिस्थिति में विघ्न डालने की अनुमति है।
इस ब्रह्माण्ड में एक ऐसा नियम है कि जब आप अपनी मूल, सत्य प्रकृति की ओर लौटना चाहते हैं, दूसरे आपकी मदद करेंगे। वे सोचते हैं कि एक मनुष्य जीवन को वहीं लौटना चाहिए, जहां से वह आया है न कि साधारण लोगों के बीच में रहना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को कोई बीमारी न होने दी जाए और वह आरामदायक जीवन-यापन कर सके, तो उसे अमरत्व प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं होगी- यदि उसे पूछा जाए तो भी। कितना ही अच्छा होता यदि किसी को कोई बीमारी अथवा कठिनाई न सहनी पड़ती और वह सब प्राप्त कर पाता जो वह चाहता ! यह जगत वास्तव में देवलोक कहलाता। किन्तु आप इस स्तर पर इसीलिए गिरे क्योंकि आप भ्रष्ट हो गए थे, इसलिए आप आरामदेह नहीं हो सकते। व्यक्ति मायाजाल में सरलता से बुरे कार्य कर सकता है, और बुध्दमत में इसे कर्मफल भुगतान कहा जाता है। इसलिए, जब कुछ लोगों पर कुछ कठिनाईयां अथवा अभाग्य आते हैं, वे अपने कर्म का भुगतान अपने कर्मफल के अनुसार करते हैं। बुध्दमत का यह भी मानना है कि बुध्द सर्वव्यापी हैं। यदि कोई बुध्द एक बार अपना हाथ हिला दे, मनुष्य जाति के सारे रोग दूर हो जाएंगे : ऐसा होना बिल्कुल संभव है। जब इतने बुध्द सब ओर हैं, फिर किसी ने यह क्यों नहीं किया? यह इसलिए क्योंकि व्यक्ति ने अतीत में बुरे कार्य किए थे जिससे वह इन कठिनाइयों को भोग रहा है। यदि आपने उसके रोग का उपचार कर दिया, तो वह ब्रह्माण्ड के नियम की अवहेलना होगी, क्योंकि तब व्यक्ति बुरे कार्य कर सकता है और बिना भुगतान किए भी किसी का ऋणी रह सकता है। इसकी अनुमति नहीं है। इस प्रकार, हर कोई साधारण मानव समुदाय की स्थिति को संरक्षित रखता है, और कोई इसमें विघ्न नहीं डालना चाहता। साधना अभ्यास एक अकेला मार्ग है जिससे आप रोगमुक्त अवस्था सुगमता से पा सकते हैं और सच्चे रूप में मुक्त होने का ध्येय पा सकते हैं! लोगों द्वारा एक सच्चे मार्ग का अभ्यास करने पर ही सभी जीवों का सच्चा उध्दार हो सकता है।
बहुत से चीगोंग गुरु रोगों को क्यों ठीक कर पाते हैं? वे रोग निवारण के बारे में बात क्यों करते हैं? कुछ लोगों ने इन प्रश्नों के बारे में सोचा होगा। इनमें से अधिकतर चीगोंग गुरु उचित पध्दतियों से नहीं हैं। इसकी अनुमति तब है जब अपने साधनाक्रम के दौरान, एक सच्चा चीगोंग गुरु समस्त प्राणियों को दु:ख में पाता है और अपने करुणा और सहानुभूति से किसी की मदद करता है। वह रोगों का निवारण नहीं कर सकता, हालांकि वह केवल उन्हें अस्थायी रूप से दबा अथवा आगे के लिए विलंबित कर सकता है। वे आपको अभी नहीं होंगे किन्तु बाद में होंगे, क्योंकि उसने आपके रोग को विलंबित कर दिया है। वह उन्हें कहीं और या आपके संबंधियों के शरीरों पर स्थानांतरित कर देगा। वह आपके लिए पूरी तरह से कर्म हटाने में वास्तव में असमर्थ है। उसे यह किसी साधारण व्यक्ति के लिए करने की अनुमति नहीं है, किन्तु केवल अभ्यासियों के लिए कर सकता है। यही नियम है।
बुध्द विचारधारा में "सभी प्राणियों के उध्दार" का अर्थ है कि आपको साधारण लोगों की सर्वाधिक दुर्दायी स्थिति से निकाल कर ऊँचे स्तरों पर लाना। तब आप दु:ख नहीं भोगेंगे, और मुक्त हो जायेंगे-इसका यह अर्थ है। क्या शाक्यमुनि ने "निर्वाण के दूसरे ओर" की बात नहीं की थी? समस्त प्राणियों के उध्दार का वास्तविक अर्थ यह है। यदि आप साधारण लोगों के बीच आरामदायक जीवन-यापन करते हैं, आपके पास बहुत सा धन है, और यदि आपका बिस्तर धन से भरा हो और आपको कोई दु:ख नहीं है, आपको अमरत्व भी प्रदान किया जाए तो भी आपको उसकी इच्छा नहीं होगी। एक अभ्यासी होने के कारण, आपके जीवन का क्रम बदला जा सकता है। केवल साधना अभ्यास द्वारा आपका जीवन बदला जा सकता है।
जिस प्रकार भविष्यज्ञान और अतीतज्ञान की दिव्य सिध्दि काम करती है वह उसी प्रकार है जैसे व्यक्ति के माथे पर एक छोटा टेलीविजन का पर्दा लगा हो। कुछ लोगों का यह माथे पर होता है; कुछ लोगों का माथे के पास। कुछ लोगों का माथे के अंदर होता है। कुछ लोग अपनी आंखें बंद करके दृश्यों को देख पाते हैं। यदि सिध्दि प्रबल है, तो व्यक्ति आंखें खोल कर भी दृश्यों को देख सकता है। दूसरे, यद्यपि, उन्हें नहीं देख सकते, क्योंकि वे व्यक्ति के आयाम क्षेत्र के दायरे में आते हैं। दूसरे शब्दों में, जब यह दिव्य सिध्दि विकसित होती है, तो साथ ही एक दूसरी भी होनी चाहिये जो दूसरे आयाम के दृश्यों को दर्शाने में वाहक का कार्य करती है। परिणामस्वरूप, इसे इस दिव्य नेत्र द्वारा देखा जा सकता है। इससे किसी व्यक्ति का भविष्य या अतीत बहुत सटीक देखा जा सकता है। ज्योतिषविद्या भले ही कितना सही काम करे, यह छोटी-छोटी घटनाओं और उनके विवरण को नहीं बता सकती। यह व्यक्ति, हालांकि, वर्ष के समय सहित वस्तुओं को बहुत स्पष्टता से देख सकता है। परिवर्तनों के सभी विवरणों को देखा जा सकता है क्योंकि जो व्यक्ति देखता है वह विभिन्न आयामों से लोगों और वस्तुओं का वास्तविक प्रतिबिम्ब होता है।
जब तक आप सब फालुन दाफा का अभ्यास करते हैं, सभी का दिव्य नेत्र खोला जाएगा। किन्तु दिव्य सिध्दियां जिनका हमने बाद में वर्णन किया है, प्रदान नहीं की जाएंगी। आपके स्तर में निरंतर विकास होने पर, भविष्य ज्ञान और अतीत ज्ञान की सिध्दियां स्वाभाविक रूप से प्रकट होंगी। आपके भविष्य के साधना अभ्यास में इस प्रकार होगा, और जब यह सिध्दि प्रकट होगी आप जान पाऐंगे कि क्या हो रहा है। इसलिए, हमने फा के ये नियम सिखा दिये हैं।
पंच तत्वों और त्रिलोक को पार करना
"पंच तत्वों और त्रिलोक को पार करने" का क्या अर्थ है? इस विषय को उठाना बहुत नाजुक है। इससे पहले कई चीगोंग गुरु इस विषय पर बोल चुके हैं, और उन्हें उन लोगों के प्रश्नों से जो चीगोंग में विश्वास नहीं करते, चुप हो जाना पड़ा। "जो चीगोंग का अभ्यास करते हैं आप में से कितने पंच तत्वों के पार जा चुके हैं किन्तु त्रिलोक में नहीं है?" कुछ लोग चीगोंग गुरु नहीं हैं, और वे स्वयं को चीगोंग गुरु होने का स्वांग करते हैं। यदि वे इसके बारे में स्पष्ट नहीं हैं, उन्हें चुप हो जाना चाहिए। किन्तु, वे फिर भी इसके बारे में बात करने की हिम्मत करते हैं, और तब और लोग उन्हें निरूत्तर कर देते हैं। इससे साधक समुदाय को क्षति पहुंची है, जिससे बहुत हड़कंप मचा है। कुछ लोग चीगोंग पर प्रहार करने के लिए इसे अवसर की तरह प्रयोग करते हैं। पंच तत्वों और त्रिलोक के पार जाना साधक समुदाय में एक कहावत है। इसका मूल स्थान धर्म से है और यह धर्म से आई है। इसलिए, हम उस समय की परिस्थितियों और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार किये बिना इस विषय पर चर्चा नहीं कर सकते।
पंच तत्वों के पार जाना क्या है? प्राचीन चीनी भौतिक शास्त्र और आधुनिक भौतिकी दोनों ही पांच तत्वों के चीनी सिध्दांत को सही मानते हैं। यह सही है कि धातु, लकड़ी, जल, अग्नि और पृथ्वी के पांच तत्वों से हमारा समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित है। इस प्रकार, हम पांच तत्वों के सिध्दांत के बारे में बात करते हैं। यदि किसी व्यक्ति को कहा जाए कि वह पंच तत्वों को पार कर चुका है, तो आधुनिक भाषा में इसका अर्थ है कि वह हमारे भौतिक विश्व के बाहर जा चुका है। यह बहुत अविश्वसनीय जान पड़ता है। इस विषय के बारे में आप सब सोचें : एक चीगोंग गुरु के पास गोंग होता है। मैं एक प्रयोग में भाग ले चुका हूँ, तथा कई और चीगोंग गुरु भी अपनी शक्ति मापने के लिए इस प्रयोग में भाग ले चुके हैं। गोंग में विद्यमान भौतिक तत्वों का आज के कई उपकरणों द्वारा पता लगाया जा सकता है। कहने का अर्थ है, जब तक ऐसा कोई उपकरण है, चीगोंग गुरु द्वारा निष्कासित तत्वों और उसके गोंग के अस्तित्व का पता लगाया जा सकता है। आधुनिक उपकरण इन्फ्रारेड किरणों, अल्ट्रावायोलेट किरणों, अल्ट्रासोनिक तरंगों, इन्फ्रासोनिक तरंगों, विद्युत, चुम्बकीय शक्ति, गामा किरणों, अणुओं और न्यूट्रोन का पता लगा सकते हैं। एक चीगोंग गुरु के पास ये सभी पदार्थ होते हैं, और चीगोंग गुरुओं द्वारा निष्कासित कुछ और पदार्थ होते हैं जिनका पता नहीं लगाया जा सकता क्योंकि ऐसा कोई उपकरण अभी है ही नहीं। जब तक ऐसा कोई उपकरण है, सभी कुछ पता लगाया जा सकता है। चीगोंग गुरुओं द्वारा निष्कासित पदार्थ बहुत घने होते हैं।
चुम्बकीय क्षेत्र के विशिष्ट प्रभाव में, एक चीगोंग गुरु एक शक्तिशाली और सुन्दर औरा उत्पन्न कर सकता है। गोंग क्षमता जितनी अधिक होती है, उत्पन्न शक्ति का क्षेत्र उतना ही बड़ा होता है। एक साधारण व्यक्ति का भी एक औरा होता है, किन्तु यह बहुत कम और निर्बल होता है। भौतिकि की उच्च ऊर्जा शोध में, लोग मानते हैं कि ऊर्जा न्यूट्रोन और परमाणु जैसे कणों से बनी है। कई चीगोंग गुरु, जिनमें कई सुप्रसिध्द गुरु सम्मिलित हैं, परीक्षण में भाग ले चुके हैं। मैं भी परीक्षण में भाग ले चुका हूँ, और उत्पन्न हुई गामा किरणों और थर्मल न्यूट्रोन का विकिरण स्तर साधारण पदार्थ से अस्सी से एक सौ सत्तर गुणा अधिक पाया गया। इस बिंदु पर, परीक्षण उपकरण की सूचक सूई अपनी सीमा तक पहुंच गई, और इसकी सूई अधिकतम बिंदु पर रूक गई। अन्त में, उपकरण यह पता नहीं लगा सका कि मेरे पास और कितनी अधिक ऊर्जा है। यह बिल्कुल अविश्वसनीय है कि किसी व्यक्ति के पास इतने शक्तिशाली न्यूट्रोन हैं! कोई व्यक्ति कैसे इतने शक्तिशाली न्यूट्रोन उत्पन्न कर सकता है? इससे यह भी सिध्द होता है कि चीगोंग गुरुओं के पास वास्तव में गोंग और शक्ति होती है। इसे वैज्ञानिक तथा तकनीकि समुदाय द्वारा सत्यापित किया गया है।
पांच तत्वों से पार जाने के लिए, एक शरीर और मन के साधना अभ्यास की आवश्यकता होती है। यदि यह अभ्यास शरीर और मन का नहीं है और व्यक्ति के स्तर के लिए केवल गोंग का सुधार करता है न कि शरीर का संवर्धन, तो इसका इस विषय से कोई संबंध नहीं है और इसमें पांच तत्वों से पार जाने की आवश्यकता नहीं होती। एक शरीर और मन का साधना अभ्यास ऊर्जा का शरीर की प्रत्येक कोशिका में संचय करता है। एक साधारण अभ्यासी या वे जिन्होंने अभी गोंग विकसित करना आरंभ किया है वे बहुत स्थूल ऊर्जा उत्पन्न करते हैं जो अनियमित और कम घनत्व की होती है। इसलिए यह कम प्रबल होती है। जैसे व्यक्ति का स्तर बढ़ता है, यह पूर्णतया संभव है कि उसकी ऊर्जा का घनत्व एक साधारण पानी के अणु से सौ गुणा, एक हजार गुणा, या दस करोड़ गुणा अधिक हो। किसी का स्तर जितना ऊँचा होगा उसकी ऊर्जा उतनी ही घनी, सूक्ष्म और प्रबल होगी। इस परिस्थिति में, ऊर्जा का संचय शरीर की प्रत्येक कोशिकाओं में होता है। यह ऊर्जा न केवल इस भौतिक आयाम के शरीर की प्रत्येक कोशिका में संचित होतीे है, बल्कि दूसरे आयामों में सभी शरीरों के अणुओं, परमाणुओं, प्रोटोन और इलेक्ट्रोन में भर जाती है, जब तक यह अत्यन्त सूक्ष्म कोशिकाओं तक न पहुंच जाऐ। जैसे-जैसे समय बीतता है, व्यक्ति का संपूर्ण शरीर इस प्रकार के उच्च शक्ति पदार्थ से भर जायेगा।
यह उच्च शक्ति तत्व प्रज्ञावान होता है, और बहुत समर्थ होता है। एक बार बढ़ने पर और सघन होने पर, यह मानव शरीर की सभी कोशिकाओं में भर जाता है और मानव भौतिक कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है- जो सबसे असमर्थ कोशिकाऐं होती हैं। एक बार कोशिकाऐं निष्क्रिय हो जाती हैं, उनमें उपापचयन प्रक्रिया नहीं होती। अन्त में, मानव भौतिक कोशिकाऐं पूर्णतया प्रतिस्थापित कर दी जाती हैं। नि:संदेह, यह कहना मेरे लिए सरल है। साधना में इस बिंदु तक आना एक निरन्तर और धीमी प्रक्रिया होती है। जब आपकी साधना इस बिंदु पर आती है, उच्च शक्ति तत्व आपके शरीर की सभी कोशिकाओं को प्रतिस्थापित कर देगा। इसके बारे में सोचें : क्या आपका शरीर अब भी पंच तत्वों का बना है? क्या यह अभी भी हमारे इस आयाम का पदार्थ है? यह पहले से ही दूसरे आयामों से एकत्रित उच्च शक्ति तत्वों से बना है। सद्गुण तत्व भी ऐसा पदार्थ है जो दूसरे आयाम में होता है। यह हमारे आयाम के इस समय क्षेत्र से बंधित नहीं होता।
आधुनिक विज्ञान का मानना है कि समय का अपना एक प्रभाव क्षेत्र होता है। यदि कोई वस्तु इस समय-क्षेत्र के विस्तार में नहीं आती, तो यह उस समय द्वारा बंधित नहीं होती। दूसरे आयामों में, काल-अवकाश की धारणा हमारे यहां से भिन्न होती हैं। तो यहां का समय दूसरे आयामों के पदार्थ को कैसे नियंत्रित कर सकता है? यह कदापि ऐसा नहीं कर सकता। इसके बारे में सब सोचें : क्या आप तब पंच तत्वों को पार नहीं चुके होंगे? तो क्या तब भी आपका शरीर एक साधारण मानव शरीर होगा? यह ऐसा बिल्कुल नहीं होगा, किन्तु साधारण व्यक्ति यह नहीं बता सकते कि यह भिन्न है। यद्यपि व्यक्ति का शरीर इस सीमा तक परिवर्तित हो चुका है, यह साधना अभ्यास का अन्त नहीं है। व्यक्ति के लिए साधना में ऊँचे स्तरों की ओर स्तर विच्छेदन करते रहना आवश्यक है। इसलिए, व्यक्ति को साधारण लोगों के बीच साधना का अभ्यास करना आवश्यक है; यदि लोग इस व्यक्ति को न देख पायें तो यह नहीं चलेगा।
इसके बाद क्या होगा? यद्यपि साधना के क्रम के दौरान इस व्यक्ति की अणु स्तर की सभी कोशिकाऐं उच्च स्तर पदार्थ से प्रतिस्थापित कर दी जाती हैं, परमाणुओं के संयोजन का अपना क्रम होता है, तथा अणु संयोजन तथा परमाणु संरचनाओं में बदलाव नहीं आएगा। कोशिकाओं के अणु संयोजन इस प्रकार रहते हैं कि जब आप इन्हें छूते हैं वे कोमल अनुभव होते हैं। हड्डियों के अणु संयोजनों का घनत्व अधिक होता है इसलिए हड्डियाँ कठोर अनुभव होती हैं। रक्त के अणु संयोजनों का घनत्व बहुत विरल होता है इसलिए यह तरल होता है। एक साधारण व्यक्ति बाह्य रूप से आपके अंदर हुए बदलावों को नहीं देख सकता, क्योंकि आपकी कोशिकाओं के अणुओं की मूल संरचना और संयोजन पहले जैसा रहता है; उनकी संरचना नहीं बदलती। हालांकि अंदर की शक्ति में परिवर्तन हो गया है। इस प्रकार, अब के बाद यह व्यक्ति स्वाभाविक रूप से बूढ़ा नहीं होगा, और उसकी कोशिकाऐं मृत नहीं होंगी। तदनुसार, वह निरन्तर युवा बना रहेगा। साधना अभ्यास के क्रम के दौरान व्यक्ति युवा दिखेगा, और अन्त में उसी प्रकार रहेगा।
नि:संदेह, उसकी हड्डियाँ अभी भी टूट सकती हैं यदि कोई कार उसके शरीर से टकरा जाऐ। उसका रक्त अब भी बहेगा यदि कहीं चाकू से कट जाऐ, क्योंकि उसके अणुओं के संयोजन नहीं बदले हैं। केवल इतना हुआ है कि कोशिकाऐं प्राकृतिक रूप से मृत नहीं होंगी या प्राकृतिक रूप से बूढ़ी नहीं होंगी। उपापचयन प्रक्रिया बंद हो जायेगी। इसी को हम "पंच तत्वों से पार जाना" कहते हैं। इसमें क्या अंधविश्वास है? इसे वैज्ञानिक सिध्दान्तों द्वारा भी समझाया जा सकता है। कुछ लोग इसे समझाने में असमर्थ रहते हैं, इसलिए लापरवाही से बात करते हैं। इसलिए दूसरे लोग कहते हैं कि वे अंधविश्वास फैला रहे हैं। चूंकि यह कथन धर्म से आया है, यह वाक्य हमारे आधुनिक चीगोंग ने नहीं पैदा किया है।
"त्रिलोक को पार करने" का क्या अर्थ है? पिछले दिन मैंने बताया था कि गोंग को बढ़ाने की कुंजी हमारे नैतिकगुण का संवर्धन करने में और ब्रह्माण्ड की प्रकृति से आत्मसात होने में है। ब्रह्माण्ड की प्रकृति तब आपको बाधा नहीं डालेगी। जब आप नैतिकगुण में सुधार करते हैं, सद्गुण तत्व गोंग में परिवर्तित हो जाता है जो निरन्तर ऊपर की ओर ऊँचे स्तर की ओर बढ़ता रहता है, जिससे एक गोंग स्तम्भ बन जाता है। यह गोंग स्तम्भ जितना ऊँचा होता है, आपके शक्ति स्तर की ऊँचाई भी उतनी ही होगी। एक कहावत है : "महान फा असीमित है।" इसका संवर्धन करना पूर्णतया आपके हृदय पर निर्भर करता है। आपका साधना स्तर कितनी ऊँचाई तक पहुंच सकता है, यह पूरी तरह आपकी सहनशीलता और आपके कठिनाई सहने के सामर्थ्य पर निर्भर करता है। यदि आप अपना श्वेत पदार्थ उपयोग कर चुके हैं, कठिनाइयां सहन करने के द्वारा आपका काला पदार्थ श्वेत पदार्थ में परिवर्तित हो सकता है। यदि यह अब भी समुचित नहीं है, आप अपने मित्रों या संबंधियों के पाप वहन कर सकते हैं जो साधना अभ्यास नहीं करते, और आप तब भी गोंग बढ़ा सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति साधना अभ्यास में बहुत ऊँचे स्तर तक पहुँचा हुआ हो। एक साधारण अभ्यासी को संबंधियों के पाप वहन करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। उतने अधिक कर्म के साथ, एक साधारण व्यक्ति साधना में सफल नहीं हो सकता। मैं यहां विभिन्न स्तरों के नियमों की बात कर रहा हूँ।
तीन लोक जिनका धर्मों में उल्लेख है, उनका संबंध स्वर्ग के नौ स्तरों या स्वर्ग के तैंतीस स्तरों- स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल, से है जिसमें त्रिलोक के समस्त प्राणी सम्मिलित हैं। उनका मत है कि स्वर्ग के तैंतीस स्तरों में समस्त प्राणियों को संसार के जन्म-मरण के क्रम से गुजरना पड़ता है। "संसार" का अर्थ है कि प्राणी इस जन्म में मनुष्य है, और वह दूसरे जन्म में एक पशु बन सकता है। बुध्दमत में कहा गया है कि : "व्यक्ति को इस जन्म के सीमित समय का सदुपयोग करना चाहिये। यदि आप अभी साधना अभ्यास नहीं करते हैं, तो कब करेंगे?" यह इसलिए क्योंकि पशुओं को साधना के अभ्यास की मनाही है, और न ही वे फा को सुनेंगे। यदि वे साधना का अभ्यास करते भी हैं, उन्हें साधना में उचित फल3 की प्राप्ति नहीं होगी। यदि उनका गोंग स्तर बढ़ता है तो देवलोक उन्हें मार देगा। हो सकता है आपको मनुष्य शरीर कई सौ वर्षों तक न मिल पाये; या आपको यह एक हजार वर्ष में मिले। एक बार मनुष्य शरीर मिलने के बाद, आप यह भी नहीं जानते कि इसकी देख-रेख कैसे की जाये। यदि आपका पुनर्जन्म एक चट्टान में होता है, हो सकता है आप दस हजार वर्ष में भी बाहर न आ सकें। यदि वह चट्टान टूट या ध्वस्त नहीं हो जाती, आप कभी नहीं निकल सकेंगे। एक मनुष्य शरीर प्राप्त करना कितना कठिन हैं! यदि कोई व्यक्ति वास्तव में दाफा प्राप्त कर सके, तो यह व्यक्ति बहुत भाग्यवान है। मनुष्य शरीर को प्राप्त करना कठिन है- इसका यह अर्थ है।
साधना अभ्यास में हमारा संबंध स्तरों के विषय से होता है, और यह पूर्णतया व्यक्ति के अपने साधना अभ्यास पर निर्भर करता है। यदि आप त्रिलोक को पार करना चाहते हैं और यदि आपका गोंग स्तम्भ एक बहुत ऊँचे स्तर तक संवर्धित किया हुआ है, तो क्या आप त्रिलोक को पार नहीं कर गये? जब व्यक्ति की मूल आत्मा ध्यान मुद्रा में बैठते समय शरीर को छोड़ देती है, यह तुरन्त किसी बहुत ऊँचे स्तर पर पहुंच सकती है। एक अभ्यासी ने अपनी अनुभव डायरी में लिखा है, "गुरुजी, मैं स्वर्ग के कई स्तरों तक पहुंच चुका हूँ और मैंने कई दृश्य देखे हैं।" मैंने उसे कहा कि वह और ऊपर बढ़े। उसने कहा, "मैं यह नहीं कर सकता। मेरा ऊपर जाने का साहस नहीं होता, मैं और ऊपर बढ़ने में असमर्थ हूँ।" क्यों? यह इसलिए क्योंकि उसका गोंग स्तम्भ केवल उतना ही ऊँचा था, और वह वहां तक अपने गोंग स्तम्भ के ऊपर बैठ कर पहुंचा था। इसी को साधना की फल पदवी कहा जाता है जिसका बुध्दमत में उल्लेख है, और उसकी साधना उस पदवी तक पहुंची थी। एक अभ्यासी के लिए, हालांकि, यह उसकी फल पदवी का चरमोत्कर्ष नहीं है। वह अभी भी निरन्तर ऊपर की ओर बढ़ रहा है और निरन्तर अपने में सुधार कर रहा है। यदि आपका गोंग स्तम्भ त्रिलोक की सीमा के पार चला जाये, तो क्या आप त्रिलोक के पार नहीं हो जाते? हमने यह खोज से पता लगाया है कि धर्मों मे वर्णित त्रिलोक हमारे नौ मुख्य गृहों की सीमा क्षेत्र में ही आते हैं। कुछ लोग दस मुख्य गृहों की बात करते हैं। मैं कहूँगा कि यह शायद सत्य नहीं है। मैंने पाया है कि अतीत के कुछ चीगोंग गुरुओं के बहुत ऊँचे गोंग स्तम्भ थे जो आकाशगंगा से भी आगे निकल गये थे; वे त्रिलोक से कहीं आगे निकल गये थे। अभी मैंने त्रिलोक के पार जाने के बारे में बताया। यह वास्तव में स्तरों का विषय है।
इच्छा प्रयास का विषय
हमारे साधना स्थल पर कई लोग इच्छा की प्रवृत्ति से आते हैं। कुछ लोग दिव्य सिध्दियां प्राप्त करना चाहते हैं; कुछ लोग कुछ सिध्दांत सुनना चाहते हैं; कुछ लोग रोगों का निवारण चाहते हैं; कुछ लोग फालुन भी प्राप्त करना चाहते हैं। सभी प्रकार की मनोस्थिति के लोग आते हैं। साथ ही, कुछ और कहते हैं : "मेरे परिवार से अमुक व्यक्ति व्याख्यान सुनने नहीं आ सका, मैं कुछ मेहनताना दे दूंगा, और आप कृपया उसे फालुन दे दें।" हमें इस फालुन को बनाने में कई पीढ़ियां, एक बहुत लम्बा समय और अत्यधिक वर्ष लगे हैं। आप इस फालुन को कुछ दर्जन युआन 4 से कैसे खरीद सकते हैं? यह आप सभी को बिना शर्त कैसे दिया जा सकता है? यह इसलिए क्योंकि आप अभ्यासी बनना चाहते हैं। कितना भी धन हो वह इस हृदय को नहीं खरीद सकता। केवल जब आपके बुध्द-स्वभाव का उद्भव होता है तभी हम ऐसा कर सकते हैं।
आपको इच्छा प्रयास की प्रवृत्ति है। क्या आप यहां केवल इसी के लिए आए हैं? दूसरे आयाम में मेरा फा-शरीर 5 आपके मन में सभी कुछ जानता है। क्योंकि दो काल-अवकाशों की धारणायें भिन्न हैं, दूसरे आयाम में आपके विचारों का बनना एक अत्यन्त धीमी प्रक्रिया के रूप में दिखता है। आपके सोचने के पहले ही यह सब कुछ जान जायेगा। इसलिए, आपको अपने सभी अनुचित विचार त्याग देने चाहिए। बुध्द विचारधारा पूर्व निर्धारित संबंध में विश्वास करती है। यहां सभी पूर्व निर्धारित संबंध के कारण ही आए हैं। यदि आप इसे प्राप्त करते हैं, शायद आपको यह प्राप्त होना था। आपको इसलिए इसे बिना किसी इच्छाभाव के अमूल्य धरोहर मानना चाहिये।
अतीत की धार्मिक साधना पध्दति में, बुध्द विचारधारा में शून्यवाद की आवश्यकता होती थी। व्यक्ति को किसी भी वस्तु के बारे में नहीं सोचना चाहिये और शून्यता के द्वार में प्रवेश करना चाहिये। ताओ विचारधारा रिक्तवाद की शिक्षा देती थी, जैसे व्यक्ति को कुछ नहीं चाहना चाहिये, और न ही किसी वस्तु की इच्छा रखनी चाहिये। एक अभ्यासी विश्वास करता है कि उसे गोंग प्राप्ति पर ध्यान दिये बिना, केवल अभ्यास पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। साधना और अभ्यास में व्यक्ति को मनोभाव से मुक्त अवस्था में होना चाहिए। जब तक आप नैतिकगुण के संवर्धन में केन्द्रित रहते हैं, आप अपने स्तर में प्रगति पाते रहेंगे और निश्चित ही वे वस्तुऐं प्राप्त करेंगे जिनके आप योग्य हैं। यदि आप किसी वस्तु को नहीं छोड़ सकते, तो क्या यह मोहभाव नहीं है? हमने यहां इतना उच्च स्तर का फा एक साथ ही सिखाया है, और आपके नैतिकगुण की आवश्यकता भी, नि:संदेह, उच्च स्तर की है। इसलिए, व्यक्ति को फा सीखने के लिए इच्छा भाव के साथ नहीं आना चाहिये।
सभी की ओर उत्तरदायी होने के लिए, हम आपका उचित मार्ग की ओर मार्गदर्शन कर रहे हैं, और यह आवश्यक है कि हम आपको यह फा पूर्णरूप से समझाऐं। जब कोई व्यक्ति दिव्य नेत्र की इच्छा रखता है, यह स्वयं ही अवरूध्द हो जायेगा और बंद हो जायेगा। इसके अलावा, मैं सभी को बता रहा हूँ कि त्रिलोक-फा साधना अभ्यास में व्यक्ति जो सभी दिव्य सिध्दियां विकसित करता है, वे इस भौतिक शरीर की मूल, जन्मजात योग्यताऐं हैं। वे केवल हमारे इस आयाम में कार्य कर सकती हैं और साधारण लोगों को प्रभावित कर सकती हैं। आप इन छोटी युक्तियों के पीछे क्यों जाना चाहते हैं? आप इसकी या उसकी इच्छा रखते हैं, किन्तु एक बार त्रिलोक फा से आगे जाने पर वे दूसरे आयामों में कार्य नहीं करतीं। पर-त्रिलोक-फा साधना के समय तक, इन सभी दिव्य सिध्दियों को छोड़ना आवश्यक होता है और इन्हें एक बहुत गहरे आयाम में परिरक्षित करने के लिए दबा दिया जाता है। भविष्य में, वे आपके साधना अभ्यास के रिकार्ड का काम करेंगी, उनका केवल यही मामूली उपयोग है।
पर-त्रिलोक-फा में पहुँचने के पश्चात, व्यक्ति को साधना पुन: आरंभ करनी आवश्यक होती है। जैसा मैंने अभी बताया, उसका शरीर पंच तत्वों को पार कर चुका होता है। यह एक बुध्द-शरीर है। क्या इस प्रकार के शरीर को बुध्द शरीर कहना उचित नहीं होगा? इस बुध्द शरीर के लिए आवश्यक है कि यह साधना शुरूआत से पुन: आरंभ करे तथा दिव्य सिध्दियाँ भी पुन: विकसित करे। "दिव्य सिध्दियों" के स्थान पर अब उन्हें "बुध्द फा की दिव्य शक्तियाँ" कहा जाता है। वे असीमित रूप से शक्तिशाली होती हैं तथा विभिन्न आयामों में कार्य कर सकती हैं, वे वास्तव में प्रभावी होती हैं। आपकी दिव्य सिध्दियों की इच्छा का क्या उपयोग है? आप में से जो भी दिव्य सिध्दियाँ प्राप्त करने के पीछे पड़े हैं, क्या आप उन्हें प्रयोग करने तथा साधारण लोगों के बीच दिखाने के बारे में नहीं सोचते? अन्यथा, आप उन्हें क्यों चाहेंगे? वे अदृश्य तथा अस्पर्श हैं। यहां तक कि सजाने के लिए भी, व्यक्ति कोई ऐसी वस्तु चाहता है जो अच्छी दिखे। यह निश्चित है कि जाने अनजाने आपको उन्हें प्रयोग करने की इच्छा है। उनकी किसी साधारण मानवीय कौशल की तरह इच्छा नहीं रखी जा सकती। वे पूर्णतया दिव्य हैं, तथा आपको उनके सार्वजनिक प्रदर्शन की मनाही है। प्रदर्शन करना स्वयं में एक बहुत प्रबल मोहभाव है तथा एक बुरा मोहभाव जिसे एक अभ्यासी को त्यागना आवश्यक है। यदि आप उनसे धन-संपत्ति अर्जित करना चाहते हैं, या उनसे साधारण लोगों के बीच अपने लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, तो इसकी मनाही है। यह उच्च स्तर की वस्तुओं के प्रयोग द्वारा साधारण मानव समाज में विघ्न डालने और अवमानना करने जैसा है। वैसा विचार और भी बुरा है। इसलिए, उनका अकारण प्रयोग निषेध है।
साधारणत:, दिव्य सिध्दियाँ दो वर्ग के लोगों में विकसित होने की अधिक संभावना होती है : बच्चे तथा बुजुर्ग। विशेषकर, वृध्द महिलाऐं अक्सर साधारण लोगों के बीच बिना अधिक मोहभावों के अच्छा नैतिकगुण रख पाती हैं। उनकी दिव्य सिध्दियाँ विकसित हो जाने के पश्चात, वे बिना प्रदर्शन की चाह रखते हुए सरलता से अपने पर नियंत्रण रख पाती हैं। युवाओं के लिए दिव्य सिध्दियाँ विकसित करना कठिन क्यों होता है? विशेष रूप से, एक नवयुवक साधारण मानव समाज में कुछ लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है! एक बार दिव्य सिध्दियाँ प्राप्त हो जाने पर, वह उन्हें अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग करेगा। उन्हें अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के साधन के रूप में प्रयोग करने की सख्त मनाही है, इसलिए वह दिव्य सिध्दियाँ विकसित नहीं कर पाता।
साधना अभ्यास का विषय बच्चों का खेल नहीं है, और न ही यह कोई साधारण लोगों की तकनीक है- यह एक बहुत गंभीर विषय है। आप साधना अभ्यास करना चाहते हैं या आप साधना अभ्यास कर पाते हैं, पूरी तरह इस पर निर्भर करता है कि आपके नैतिकगुण में किस प्रकार सुधार हुआ है। यह बहुत बुरा होगा यदि कोई वास्तव में दिव्य सिध्दियां इच्छा भाव द्वारा प्राप्त कर सके। आप पायेंगे कि वह साधना के बारे में परवाह नहीं करता अथवा इस विषय पर सोचता भी नहीं। क्योंकि उसका नैतिकगुण साधारण लोगों के स्तर पर है तथा उसकी दिव्य सिध्दियां इच्छा भाव द्वारा आई हैं, वह हर प्रकार के दुष्कर्म कर सकता है। बैंक में बहुत सा धन है और वह उसमें से कुछ निकाल सकता है। सड़कों पर कई प्रकार की लॉटरी टिकटों की बिक्री होती है, और वह पहला पुरस्कार प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार की घटनाऐं क्यों नहीं होतीं? कुछ चींगोंग गुरु कहते हैं : "नैतिक गुणों के अभाव में, व्यक्ति दिव्य सिध्दियाँ विकसित होने पर सरलता से बुरे कार्य कर सकता है।" मैं कहता हूँ कि यह एक गलत कथन है- यह इस प्रकार है ही नहीं। यदि आप नैतिक गुणों का आदर नहीं करते या अपने नैतिकगुण का संवर्धन नहीं करते, तो आप कोई दिव्य सिध्दि विकसित ही नहीं कर पायेंगे। अच्छे नैतिकगुण के साथ कुछ लोग अपने स्तर पर दिव्य सिध्दियाँ विकसित करते हैं, बाद में, वे स्वयं पर ठीक से नियंत्रण नहीं रख पाते और वे कार्य भी करते हैं जो उन्हें नहीं करने चाहिए। यह स्थिति भी होती है। हालांकि एक बार व्यक्ति कुछ बुरा कार्य करता है, उसकी दिव्य सिध्दियाँ क्षीण अथवा समाप्त हो जायेंगी। एक बार लुप्त हो जाने पर, वे सदा के लिए समाप्त हो जाती हैं। इसके अलावा, बुरी बात यह है कि वे व्यक्ति में मोहभाव उत्पन्न करती हैं।
एक चीगोंग गुरु दावा करता है कि यदि कोई व्यक्ति उसकी पध्दति तीन या पाँच दिन के लिए सीखे, तो वह रोगों को ठीक कर सकेगा। यह एक विज्ञापन की तरह है, और उसे एक चीगोंग व्यापारी कहना चाहिए। आप इसके बारे में सोचें : एक साधारण व्यक्ति होते हुए, आप कैसे दूसरे व्यक्ति का रोग केवल अपनी कुछ ची निष्कासित करके दूर कर सकते हैं? एक साधारण व्यक्ति के शरीर के अंदर भी ची होती है, जैसे आपके पास है। आपने अभी अभ्यास आरंभ किया है, और केवल यह है कि आपका लाओगोंग 'बिंदु खुला है, जिससे आप ची ग्रहण और निष्कासित कर सकते हैं। जब आप दूसरे लोगों के रोगों का उपचार करते हैं, उनके शरीर में भी ची विद्यमान है। शायद उनकी ची आपका रोग ठीक कर दे! किस प्रकार एक व्यक्ति की ची दूसरे व्यक्ति की ची पर काबू कर सकती है? ची किसी भी प्रकार रोग ठीक नहीं कर सकती। इसके अतिरिक्त, जब आप किसी रोगी का उपचार करते हैं, आप और आपका रोगी एक प्रभाव क्षेत्र बना लेते हैं जिसके द्वारा रोगी की रोगग्रस्त ची सारी आपके शरीर में आ जाऐगी। अब यह आपके पास भी उतनी ही है जितनी आपके रोगी के शरीर में, यद्यपि यह रोगी के शरीर में आधारित है। अधिक मात्रा में रोगग्रस्त ची आपको भी रोगग्रस्त बना सकती है। एक बार आपके सोचने पर कि आप रोग उपचार कर सकते हैं, आप रोगियों को देखने का अभ्यास आरंभ कर देंगे। आप लोगों के अनुरोध को मना नहीं कर पायेंगे और एक मोह उत्पन्न कर लेंगे। कितना आनंददायी लगता है औरों के रोगों का उपचार कर पाना! वे ठीक कैसे हो पाते हैं? आपने कभी इसके बारे में नहीं सोचा? पाखण्डी चीगोंग गुरुओं के शरीर प्रेतों या पशुओं से ग्रसित होते हैं। आपको उन पर विश्वास दिलाने के लिए, वे आपको अपने संदेशों में से कुछ दे देते हैं, जो आपके द्वारा तीन, पांच, आठ या दस रोगियों के उपचार के बाद खर्च हो जाते हैं। इसमें शक्ति खर्च होती है, और उसके पश्चात यह थोड़ी सी शक्ति समाप्त हो जायेगी। आपके पास अपना गोंग नहीं है, तो आप इसे संभवत: कहाँ से प्राप्त कर सकते हैं? चीगोंग गुरुओं की भांति, हमने कई दर्जन वर्षों तक चीगोंग का अभ्यास किया है। विगत में साधना अभ्यास करना बहुत कठिन था। साधना का अभ्यास बहुत कठिन होता है यदि कोई एक उचित मार्ग का अनुसरण करने के स्थान पर कोई भटका हुआ मार्ग या लघु मार्ग अपना ले।
यद्यपि आपको लगता है कि कुछ महान चीगोंग गुरु बहुत विख्यात हैं, उन्होंने उस थोड़े से गोंग को विकसित करने के लिए दशकों तक साधना का अभ्यास किया होता है। आपने कभी साधना का अभ्यास नहीं किया। एक चीगोंग कक्षा में जाने से आपके पास गोंग कैसे आ सकता है? यह कैसे संभव है? उसके बाद आपको मोहभाव उत्पन्न हो जायेगा। एक बार मोहभाव उत्पन्न होने पर, यदि आप किसी रोग को ठीक नहीं कर पाते तो आप चिंतित हो जायेंगे। अपनी ख्याति बचाने के लिए, रोग उपचार करते समय व्यक्ति के मन में क्या होता है? "मुझे कृपया यह रोग ले लेने दो जिससे यह रोगी ठीक हो जाऐ।" यह करूणाभाव से नहीं है, क्योंकि उसके प्रसिध्दि और निजी-लाभ से मोह जरा भी कम नहीं हुए हैं। यह व्यक्ति इस करूणाभाव को जरा भी उत्पन्न नहीं कर सकता। उसे अपनी प्रसिध्दि के खोने का भय है। अपनी प्रसिध्दि को बनाए रखने के लिए वह इस रोग को भी अपनाने के लिए तैयार है। प्रसिध्दि से कितना अधिक मोह है! एक बार ऐसी इच्छा करने पर, वह रोग उसके शरीर पर तुरंत स्थानांतर हो जाएगा- यह वास्तव में होगा। वह रोग के साथ घर जाऐगा जबकि रोगी ठीक हो जायेगा। रोगी का उपचार करने के बाद, वह घर में पीड़ित होगा। वह सोचता है कि उसने रोग का निवारण कर दिया है। जब लोग उसे चीगोंग गुरु कहते हैं, वह बहुत प्रसन्न और आनंदविभोर हो जाता है। क्या यह एक मोहभाव नहीं है? जब वह किसी रोग को ठीक नहीं कर पाता, वह अपना सिर झुका लेता है और निराश महसूस करता है। क्या यह उसके प्रसिध्दि और स्वार्थ के मोहभाव से जनित नहीं है? इसके अतिरिक्त, उसके रोगियों की समस्त रोगग्रस्त ची उसके शरीर पर आ जाती है। यद्यपि उन पाखण्डी चीगोंग गुरुओं ने उसे सिखाया है कि इसे शरीर से कैसे हटाया जाए, मैं बता रहा हूँ वह इसे जरा भी शरीर से नहीं हटा सकता, तनिक भी नहीं, क्योंकि उसके अपने पास अच्छी ची और बुरी ची में भेद करने की योग्यता नहीं है। जैसे समय बीतता जाता है, उसका शरीर अंदर से पूरी तरह काला हो जायेगा, और यह कर्म है।
जब आप वास्तव में साधना अभ्यास करना चाहते हैं, तो यह अत्यन्त दुष्कर कार्य है। आप इसके बारे में क्या करेंगे? आपको कर्म को श्वेत पदार्थ में परिवर्तित करने के लिए कितना पीड़ित होना पड़ेगा? यह अत्यन्त कठिन है। विशेष रूप से, जितना अच्छा व्यक्ति का जन्मजात गुण होता है, उतना ही सरल इस विषय का सामना करना। कुछ लोग सदैव रोग उपचार करने के लिए तत्पर रहते हैं। यदि आपकी कोई इच्छा है, एक पशु इसे देख लेगा और आपको ग्रसित करने आ जायेगा। क्या आप रोगों का उपचार नहीं करना चाहते? यह आपको ऐसा करने में मदद करेगा। किन्तु यह रोग उपचार में आपकी मदद बिना कारण नहीं करेगा। कोई हानि नहीं, तो कोई लाभ नहीं। यह बहुत खतरनाक होता है, और आप इसे निमंत्रित कर बैठेंगे। आप कैसे अपना साधना अभ्यास जारी रखेंगे? यह समाप्त हो जाएगा।
अच्छे जन्मजात गुणों वाले कुछ लोग अपने जन्मजात गुण दूसरों के साथ कर्म के लिए बदल लेते हैं। वह व्यक्ति रोगग्रस्त है और उसके पास बहुत अधिक कर्म है। यदि आप किसी ऐसे रोगी का उपचार करते हैं जिसे एक गंभीर रोग है, उपचार के बाद घर में आप बहुत असुविधाजनक महसूस करेंगे। विगत में, रोगी का उपचार करने के पश्चात बहुत से लोग इस प्रकार अनुभव करते थे : रोगी स्वस्थ हो रहा है, किन्तु आप घर में बीमार पड़े हैं। जैसे समय बीतता है, और अधिक कर्म आप पर स्थानांतरित होता है; आप औरों को कर्म के बदले में सद्गुण देते हैं। कोई हानि नहीं, तो कोई लाभ नहीं। यद्यपि जो आप प्राप्त करते हैं वह रोग है, कर्म का सद्गुण से भुगतान करना आवश्यक है। इस ब्रह्माण्ड का यह नियम है कि जब तक आप ही इसे चाहते हैं तो कोई आपको नहीं रोकेगा, और न ही कोई यह कहेगा कि आप अच्छे हैं। ब्रह्माण्ड का एक विशिष्ट नियम है, जो है कि जिस किसी के पास अधिक कर्म है वह एक बुरा व्यक्ति होता है। आप अपना जन्मजात गुण दूसरे व्यक्ति को कर्म के बदले में दे रहे हैं। अधिक कर्म के साथ, आप कैसे साधना अभ्यास कर सकेंगे? आपका जन्मजात गुण उस व्यक्ति द्वारा पूरी तरह नष्ट हो जायेगा। क्या यह भयावह नहीं है? उस व्यक्ति का रोग समाप्त हो गया; वह अब ठीक अनुभव करता है, किन्तु आप घर में पीड़ित हो रहे हैं। यदि आप एक-दो कैंसर के रोगियों को ठीक कर दें, तो उनका स्थान आपको लेना होगा। क्या यह खतरनाक नहीं है? यह केवल इसी प्रकार है, और बहुत से लोग सत्य नहीं जानते।
इस बात से प्रभावित न हों कि कुछ पाखण्डी चीगोंग गुरु कितने प्रसिध्द हैं। यह आवश्यक नहीं है कि एक सुप्रसिध्द व्यक्ति वस्तुओं को अच्छी तरह जानता हो। साधारण लोग क्या जानते हैं? एक बार वस्तुओं को बढ़ा-चढ़ा कर बताने पर, वे स्वीकार कर लेते हैं। यद्यपि आप उन्हें अभी वे वस्तुऐं करते हुए पाते हैं, वे न केवल औरों को हानि पहुंचा रहे हैं, बल्कि स्वयं को भी। एक या दो वर्षों में आप देखेंगे कि उनके साथ क्या होता है। साधना अभ्यास का इस प्रकार अनादर नहीं किया जा सकता। साधना अभ्यास रोग का निवारण कर सकता है, किन्तु इसका उपयोग रोग के निवारण के लिए नहीं किया जा सकता। यह साधारण लोगों की तकनीक नहीं है बल्कि दिव्य है। आपके द्वारा इसको अकारण बर्बाद करने की बिल्कुल मनाही है। आजकल कुछ पाखण्डी चीगोंग गुरुओं ने स्थिति को उलझा दिया है, और चीगोंग को प्रसिध्दि और धन अर्जित करने का जरिया बना लिया है। वे पंथ हैं जो अपना दुष्ट प्रभाव बढ़ा रहे हैं, और वे उन सच्चे चीगोंग गुरुओं से कई गुणा अधिक हैं। साधारण लोग सभी इस प्रकार की बातें बोलते हैं और करते हैं, और आप उन पर विश्वास कर लेते हैं? आप सोचते हैं कि चीगोंग इसी प्रकार होता है, किन्तु यह नहीं है। जो मैं कह रहा हूँ सच्चा नियम है।
जब साधारण लोगों के बीच विभिन्न सामाजिक क्रियाकलाप फलित होते हैं, व्यक्ति निजी-लाभ के लिए बुरे कार्य कर बैठता है और दूसरों का ऋणि हो जाता है। ऋण भुगतान के लिए व्यक्ति को दु:ख भोगना आवश्यक है। मान लीजिए कि आप जानबूझ कर किसी रोग का उपचार करते हैं। आपको वास्तव में किसी रोग के निवारण की अनुमति कैसे दी जा सकती है? बुध्द सर्वव्यापी हैं। जब वे इतने अधिक हैं, तो वे ऐसा कुछ क्यों नहीं करते? कितना ही अदभुत हो यदि कोई बुध्द पूरी मनुष्य जाति को आरामदेह बना दे! वे ऐसा क्यों नहीं करते? व्यक्ति को अपने कर्म का भुगतान स्वयं करना आवश्यक है, और कोई भी इस नियम का उल्लंघन करने का साहस नहीं करता। साधना अभ्यास के क्रम के दौरान, एक अभ्यासी कभी-कभी किसी व्यक्ति की मदद करूणावश कर सकता है; हालांकि, इससे केवल रोग विलम्बित होगा। यदि आप अभी पीड़ा नहीं भोगते, आप बाद में पीड़ा भोगेंगे। साथ ही, वह इसे रूपान्तरित कर सकता है जिससे रोग के स्थान पर आपको धन की हानि या कोई कठिनाई होगी। यह इस प्रकार हो सकता है। किसी व्यक्ति के सभी कर्मों को वास्तव में एक साथ हटाना केवल अभ्यासियों के लिए किया जा सकता है, और साधारण लोगों के लिए नहीं। मैं यहां केवल अपनी पध्दति के नियम नहीं सिखा रहा हूँ। मैं संपूर्ण ब्रह्माण्ड के नियम सिखा रहा हूँ, और मैं साधकों के समुदाय में वास्तविक तथ्यों की चर्चा कर रहा हूँ।
यहां, हम आपको रोगों का उपचार करना नहीं सिखाते। हम आपको महान मार्ग की ओर अग्रसर कर रहे हैं, जो उचित मार्ग है, और हम आपका उत्थान कर रहे हैं। इस प्रकार, मेरे व्याख्यानों में मैं सदैव कहूँगा कि फालुन दाफा अभ्यासियों के लिए रोग उपचार करने की अनुमति नहीं है। यदि आप रोग का उपचार करते हैं, तो आप फालुन दाफा के अभ्यासी नहीं है। क्योंकि हम आपको एक उचित मार्ग की ओर अग्रसर कर रहे हैं, त्रिलोक-फा साधना अभ्यास के दौरान आपके शरीर का निरन्तर शुध्दिकरण किया जाएगा जब तक यह उच्च-शक्ति पदार्थ द्वारा पूरी तरह रूपांतरित नहीं हो जाता। यदि आप अब भी अपने शरीर में उन काले पदार्थों को एकत्रित करते हैं तो आप साधना अभ्यास कैसे कर सकते हैं? वे वस्तुऐं कर्म है! आप साधना अभ्यास करने में असमर्थ हो जायेंगे। बहुत अधिक कर्म होने से, आप इसे सहन नहीं कर पायेंगे। यदि आप बहुत अधिक दु:ख भोगते हैं, तो आप साधना अभ्यास नहीं कर पायेंगे। यही कारण है। मैंने आज यह दाफा सार्वजनिक कर दिया है, और हो सकता है आप अभी भी नहीं जानते कि मैंने क्या सिखाया है। क्योंकि इस दाफा को सार्वजनिक किया जा सकता है, इसकी रक्षा करने के भी उपाय हैं। यदि आप दूसरों के रोग का उपचार करते हैं, मेरे फा-शरीर आपके शरीर से साधना के लिए दी गई सभी वस्तुऐं वापस ले लेंगे। हम आपको इतनी मूल्यवान निधि को सहज ही प्रसिध्दि और निजी-लाभ के लिए बर्बाद नहीं करने देंगे। यदि आप फा की आवश्यकताओं का पालन नही करते, तो आप फालुन दाफा के अभ्यासी नहीं हैं। क्योंकि आप एक साधारण व्यक्ति बने रहना चाहते हैं, आपके शरीर को साधारण लोगों के स्तर पर वापस व्यवस्थित कर दिया जायेगा और बुरी वस्तुऐं आपको लौटा दी जायेंगी।
कल के व्याख्यान के बाद, आप में से अनेक ने अनुभव किया कि आपका पूरा शरीर हल्का हो गया है। तब भी, बहुत थोड़े से लोग जिन्हें गंभीर रोग थे, बचे रह गये और उन्हें कल असुविधाजनक लगने लगा। जब मैंने कल आपके शरीर से बुरी वस्तुऐं निकाल दीं, आप में से अधिकांश को यह अनुभव हुआ जैसे आपका पूरा शरीर हल्का और बहुत आरामदेह हो गया हो। तब भी, हमारे ब्रह्माण्ड में "हानि नहीं, तो लाभ नहीं" का नियम है। हम आपके लिए सभी कुछ नहीं हटा सकते। इसकी सर्वथा मनाही है कि आप कुछ भी दु:ख न सहें। इसका अर्थ है, हमने आपके रोगों और आपके बुरे स्वास्थ्य के मूल कारणों को हटा दिया है। किन्तु आप पर अभी भी रोग का प्रभाव क्षेत्र है। एक व्यक्ति जिसका दिव्य नेत्र एक बहुत निम्न स्तर पर खुला हुआ होता है वह आपके शरीर में काली ची और गंदली रोगपूर्ण ची के पुंज देख सकता है, जो काली ची के अधिक घनत्व वाले पुंज हैं। एक बार इसके विलय हो जाने पर, यह आपके पूरे शरीर पर फैल जाता है।
आज से, कुछ लोगों को अपने पूरे शरीर में सर्दी लगेगी जैसे उन्हें तेज जुकाम हो गया हो, और उनकी हड्डियों में भी दर्द हो सकता है। आप में से अधिकांश को कहीं न कहीं असुविधाजनक लगेगा। आपके पैरों में दर्द हो सकता है या आपका सिर भारी लग सकता है। आपके शरीर के रोगग्रस्त भाग में, जो आप सोचते थे कि चीगोंग व्यायाम या किसी चीगोंग गुरु द्वारा पहले ठीक हो चुका था, दोबारा रोग उभर कर आयेगा। यह इसलिए क्योंकि उस चीगोंग गुरु ने आपके लिए रोग को ठीक नहीं किया था- उसने केवल उसे विलम्बित किया था। यह अभी भी वहां था और उस समय नहीं तो बाद में उभर कर आता। हमें इसको जड़ से खोद निकाल कर पूरी तरह समाप्त करना आवश्यक है। इससे, आपको लग सकता है कि आपके रोग वापस आ गये हैं। यह आपके कर्म को मूल रूप से हटाने के लिए है। इस प्रकार, आप को प्रतिक्रियायें होंगी। कुछ लोगों को कहीं भी शारीरिक प्रतिक्रियायें हो सकती हैं। कुछ लोग किसी न किसी प्रकार से असुविधाजनक महसूस कर सकते हैं क्योंकि विभिन्न प्रकार के दर्द उभर कर आएंगे। यह सब साधारण है। मैं सभी को बता रहा हूँ कि आपको भले ही कितना भी असुविधाजनक लगे, आप इस कक्षा में अवश्य ही आते रहें। एक बार आप इस कक्षा में आ जाएंगे, आपके सभी लक्षण समाप्त हो जाएंगे और कोई खतरा नहीं रहेगा। एक बात सभी को बतानी है : भले ही आपको "रोग" से कितनी ही पीड़ा क्यों न हो, मुझे आशा है कि आप आते रहेंगे, क्योंकि फा को प्राप्त करना कठिन होता है। जब आपको बहुत पीड़ा महसूस होती है, तो यह दर्शाता है कि एक तीव्र बिंदु तक पहुंचने के बाद यह परिस्थिति बदल जायेगी। आपके पूरे शरीर का शुध्दिकरण किया जायेगा और इसे पूरी तरह शुध्द किया जाना आवश्यक है। आपके रोग के कारण को हटा दिया गया है, और जो बचा है वह यह थोड़ी सी काली ची है जो अपने आप बाहर निकलेगी जिससे कुछ पीड़ा और कुछ दर्द होगा। आपके लिए इसकी मनाही है कि आपको जरा भी पीड़ा न हो।
साधारण मानव समाज में, आप दूसरों के साथ प्रसिध्दि और निजी-लाभ के लिए प्रतिस्पध्र्दा करते हैं। आप ठीक से सो नहीं पाते या खा नहीं पाते, और आपका शरीर बहुत बुरे आकार में है। जब आपके शरीर को दूसरे आयाम से देखा जाता है, हड्डियां पूरी तरह काली दिखाई पड़ती हैं। इस शरीर के साथ, जब इसका एक ही बार में शुध्दिकरण किया जाता है तो आपके लिए यह असंभव है कि कोई प्रतिक्रिया न हो। इस प्रकार, आपको प्रतिक्रिया होंगी। कुछ लोगों को उल्टी होगी और शौच होगा। विभिन्न स्थानों के कई अभ्यासियों ने इस विषय को अपने अनुभव वर्णन में पहले बताया है, "आचार्यजी, आपकी कक्षा से निकल कर घर जाने के मार्ग में मैं शौचालय ही ढूंढता रहा।" यह इसलिए क्योंकि आपके सभी आंतरिक अंगों का शुध्दिकरण करना आवश्यक है। कुछ लोग सो जाते हैं और जैसे ही मेरा व्याख्यान समाप्त होता है वे जाग जाते हैं। ऐसा क्यों है? यह इसलिए क्योंकि उनके मस्तिष्क में रोग होते हैं जिनका उपचार किया जाना होता है। यदि व्यक्ति के मस्तिष्क का उपचार किया जाता है तो वह इसे सहन नहीं कर पायेगा। इसलिए, उसे बेहोशी या अचेतन की अवस्था में लाना आवश्यक है। तब भी, कुछ लोगों को मुझे सुनने में कोई समस्या नहीं होती। हालांकि वे गहन निद्रा में होते हैं, वे सभी कुछ सुनते रहते हैं और उनसे एक भी शब्द नहीं छूटता। बाद में उनमें बहुत स्फूर्ति आ जाती है, और यदि वे दो दिन तक भी बिना नींद के रहे उन्हें निद्रा महसूस नहीं होगी। अलग-अलग लक्षण हैं जिन सभी को व्यवस्थित करना आवश्यक होता है। आपके पूरे शरीर का शुध्दिकरण किया जायेगा।
यदि आप फालुन दाफा के सच्चे अभ्यासी हैं, और जब आप अपने मोहभाव छोड़ पाते हैं, आप में से सभी को तब से प्रतिक्रियायें होंगी। जो अपने मोहभाव नहीं छोड़ पाते कह सकते हैं कि उन्होंने वे छोड़ दिये हैं, किन्तु वास्तव में उन्होंने अभी नहीं छोड़े हैं। इसलिए, इसे प्राप्त करना बहुत कठिन है। ऐसे भी लोग हैं जो मेरे व्याख्यानों का भावार्थ बाद में समझते हैं। वे अपने मोहभाव को छोड़ना आरंभ करते हैं और उनके शरीरों का शुध्दिकरण होता है। जब और लोगों के शरीर हल्के महसूस होते हैं, इन लोगों के रोगों का उपचार होना आरंभ होता है और उन्हें असुविधाजनक लगता है। हर कक्षा में ऐसे लोग होते हैं जो निम्न ज्ञानोदय के गुण के साथ पीछे रह जाते हैं। इसलिए, जो भी कुछ आपके साथ होता है सब साधारण है। यह परिस्थिति हमेशा हुई है जब मैंने दूसरे स्थानों में कक्षायें ली थीं। कुछ लोग बहुत पीड़ा में थे और अपने स्थान से हिल भी नहीं पा रहे थे, और मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे कि मैं मंच से उतर कर उनका उपचार करूं। मैंने ऐसा नहीं किया। यदि आप यह परीक्षा भी उत्तीर्ण नहीं कर सकते, तो आप भविष्य में साधना अभ्यास कैसे करेंगे जब आपके सामने और भी बड़ी कठिनाइयां आएंगी? क्या आप इतनी छोटी सी कठिनाई भी पार नहीं कर सकते? सभी इसे पार कर सकते हैं। इसलिए, कोई भी मेरे पास रोग उपचार के लिए न आये, और न ही मैं रोग का उपचार करूंगा। जैसे ही आप "रोग" शब्द बोलेंगे, मैं नहीं सुनना चाहूँगा।
मनुष्यों को बचाना बहुत कठिन होता है। हर कक्षा में हमेशा पांच से दस प्रतिशत लोग होते हैं जो औरों के साथ नहीं चल पाते। यह असंभव है कि हर कोई ताओ प्राप्त कर ले। वे भी जो अपना साधना अभ्यास कायम रख पाते हैं, यह देखा जाना शेष है कि आप सफल हो पाते है और साधना अभ्यास में निश्चयी हैं। सभी के लिए एक बुध्द बनना असंभव है। सच्चे दाफा अभ्यासी इस पुस्तक को पढ़ने से भी वैसे ही अनुभव से गुजरेंगे, और वे भी वह सब प्राप्त कर पायेंगे जिसके वे योग्य हैं।
1 शानगन — दोनों भौंहों के बीच स्थित एक्यूपंक्चर बिंदु।
2 ली — दूरी लिए एक चीनी इकाई (0.5 कि.मी.), चीनी भाषा में "एक लाख आठ हजार ली" एक बहुत बडी दूरी को बताने के लिए रुपक प्रयुक्त होता है।
3 उचित फल — बुध्द विचारधारा में फल पदवी की प्राप्ति।
4 युआन — चीनी मुद्रा (लगभग-0.12 अमरीकी डॉलर के बराबर)।
5 फा-शरीर (फाशन) — "धर्म शरीर"; गोंग और फा से बना शरीर।