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अध्याय - III नैतिकगुण की साधना
 

फालुन गोंग के सभी साधकों के लिए यह आवश्यक है कि वे नैतिकगुण की साधना को अपनी उच्चतम प्राथमिकता दें और नैतिकगुण को गोंग विकसित करने की कुंजी मानें यह ऊंचे स्तरों पर साधना करने का सिध्दांत है। सीधे शब्दों में, गोंग सामर्थ्य जो व्यक्ति का स्तर निर्धारित करता है क्रियायें करने से विकसित नहीं होता बल्कि नैतिकगुण की साधना द्वारा विकसित होता है। नैतिकगुण में सुधार लाना - यह कहना सरल है पर करना कठिन। साधकों के लिए यह आवश्यक है कि उनमें अत्यधिक प्रयास करने की क्षमता हो, अपने ज्ञान प्राप्ति के गुण में सुधार करें, कठिनाइयों पर कठिनाइयां सहें, लगभग असहनीय स्थितियों का सामना करें, इत्यादि। ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोगों के वर्षों अभ्यास करने के बाद भी उनका गोंग नहीं बढ़ता? मूल कारण हैं : प्रथम, वे नैतिकगुण का आदर नहीं करते; दूसरे, वे किसी ऊंचे स्तर के साधना मार्ग को नहीं जानते। इस विषय को प्रकाश में लाना आवश्यक है। कई गुरु जो किसी अभ्यास प्रणाली को सिखाते हुए नैतिकगुण की बात करते हैं - वे सच्ची शिक्षा दे रहे हैं। वे जो केवल गति-क्रियायें और तकनीक सिखाते हैं और कभी नैतिकगुण की चर्चा नहीं करते, वास्तव में अनिष्ट साधना सिखा रहे हैं। इसलिए अभ्यासियों के लिए आवश्यक है कि ऊंचे स्तरों की साधना आरम्भ करने से पहले वे अत्यधिक प्रयास करके अपने नैतिकगुण में सुधार लाएं।

1. नैतिकगुण का आन्तरिक अर्थ

फालुन गोंग के संदर्भ में ''नैतिकगुण'' का अर्थ केवल नैतिकता नहीं है। इसकी परिधि नैतिकता से कहीं अधिक हैं। इसकी परिधि में कई विभिन्न वस्तुएं आती हैं जिनमें नैतिकता का भी समावेश है। नैतिकता व्यक्ति के नैतिकगुण की केवल एक अभिव्यक्ति है, नैतिकगुण का अर्थ समझने के लिए केवल नैतिकता का प्रयोग अपूर्ण है। नैतिकगुण की परिधि में, दो विषयों प्राप्ति तथा त्याग का कैसे सामना किया जाए आता है। ''प्राप्ति'' का अर्थ ब्रह्माण्ड की प्रकृति के अनुरूप लाभ की प्राप्ति है। प्रकृति जिससे ब्रह्माण्ड बना है ज़न-शान-रेन है। एक साधक की ब्रह्माण्ड की प्रकृति के साथ अनुरूपता का स्तर उसकी नैतिकता के परिमाण को दर्शाता है। ''त्याग'' का अर्थ बुरे विचारों तथा स्वभाव, जैसे लालच, निजी लाभ, वासना, इच्छाएं, हत्या करना, मारपीट करना, चोरी करना, डकैती डालना, धोखा देना इत्यादि का त्याग है। यदि किसी को ऊंचे स्तरों की ओर साधना करनी है, तो उसे इच्छाओं की ललक से बाहर निकलना आवश्यक है, जो मनुष्य में निहित होती हैं। दूसरे शब्दों में उसे सभी आसक्तियां छोड़ देनी चाहिए, तथा निजी लाभ और यश के सभी पहलुओं की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए।

एक पूर्ण व्यक्ति भौतिक शरीर और प्रकृति के सम्मिश्रण से बना होता है। ऐसा ही ब्रह्माण्ड के साथ है : पदार्थों के अस्तित्व के अलावा इसकी प्रकृति ज़न-शान-रेन का भी साथ ही अस्तित्व है। यह प्रकृति वायु के प्रत्येक कण में भी है। यह प्रकृति मानव समाज में इस तथ्य में अभिव्यक्त होती है कि अच्छे कार्यों का अन्त अच्छा होता है और बुरे कार्यों का बुरा। ऊंचे स्तर पर यह प्रकृति अलौकिक सिध्दियों के रूप में भी अभिव्यक्त होती है। जो लोग इस प्रकृति के साथ स्वयं को अनुरूप कर लेते हैं वे अच्छे लोग हैं और जो इससे दूर जाते हैं वे बुरे। जो लोग इसके अनुसार चलते हैं और इससे एकसार हो जाते हैं वे वो लोग हैं जो ताओ की प्राप्ति करते हैं। इस प्रकृति के अनुरूप होने के लिए अभ्यासियों के पास अत्यंत ऊंचा नैतिकगुण होना चाहिए। केवल इस प्रकार व्यक्ति ऊंचे स्तरों की साधना कर सकता है।

अच्छा व्यक्ति होना सरल है किन्तु नैतिकगुण की साधना होना सरल नहीं है। साधकों के लिए मानसिक तैयारी आवश्यक है। यदि आप अपने हृदय को परिष्कृत करना चाहते हैं तो निष्कपट होना पहली आवश्यकता है। लोग इस संसार में रहते हैं जहां समाज बहुत जटिल बन चुका है। हालांकि आप अच्छे कार्य करना चाहते हैं, किन्तु ऐसे लोग हैं जो आपको ऐसा नहीं करने देना चाहते; आप दूसरों को हानि नहीं पहुंचाना चाहते हों किन्तु हो सकता है दूसरे लोग कुछ कारणवश आपको हानि पहुंचाएं। ऐसी कुछ परिस्थितियां अप्राकृतिक कारणों से होती हैं। क्या आप कारण समझ पाते हैं? आपको क्या करना चाहिए?

इस संसार के संघर्ष प्रत्येक पल आपके नैतिकगुण की परीक्षा लेते हैं। जब आप किसी अवर्णनीय अपमान का सामना करते हैं, जब आपके मान्य हितों का उल्लंघन किया जाता है, जब आप धन और वासना का सामना करते हैं, जब आप प्रतिस्पर्धा की होड़ में होते हैं, जब संघर्ष में क्रोध तथा ईर्ष्या अपना सर उठाते हैं, जब समाज तथा परिवार में विभिन्न प्रकार के मतभेद पैदा हो जाते हैं, और जब सभी प्रकार के दु:ख होते हैं, क्या आप हमेशा स्वयं को कड़े नैतिकगुण मानदण्ड के अनुरूप रख सकते हैं? यकीनन, यदि आप सभी परिस्थितियों को संभाल सकें तो आप ज्ञान-प्राप्त व्यक्ति पहले से ही हैं। अधिकतर अभ्यासी आरंभ में साधारण व्यक्ति ही होते हैं, और नैतिकगुण की साधना क्रमबध्द ही होती है; यह धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ती है। संकल्पित साधक अंतत: सच्ची उपलब्धि प्राप्त कर ही लेंगे यदि वे अत्यधिक कठिनाइयां सहने और मुसीबतों का दृढ़ता के साथ सामना करने को तैयार हों। मुझे आशा है कि आप में से प्रत्येक साधक उचित प्रकार से अपने नैतिकगुण को संभालेगा और अपने गोंग सामर्थ्य को तेजी से बढ़ाएगा।

2. प्राप्ति तथा त्याग

चीगोंग और धार्मिक संस्थाएं दोनों ही प्राप्ति तथा त्याग की बात करती हैं। कुछ लोग 'त्याग' का अर्थ दान-पुण्य करने, कुछ अच्छे कार्य करने या ज़रूरतमंद लोगों की सहायता करने को मानते हैं और 'प्राप्ति' का अर्थ गोंग की प्राप्ति मानते हैं। यहां तक कि धर्म-स्थलों के सन्यासी भी कहते हैं कि व्यक्ति को दान-पुण्य करना चाहिए। यह त्याग की संकीर्ण समझ है। जिस त्याग की हम बात करते हैं वह अधिक विस्तृत है - यह विशाल स्तर पर है। जिन वस्तुओं का हम चाहते हैं आप त्याग करें वे साधारण लोगों की आसक्तियां हैं और वह मनोवृत्ति जो इन आसक्तियों को नहीं छोड़ना चाहती। यदि आप उन वस्तुओं के बंधन से छूट सकें जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं और आप उन वस्तुओं को छोड़ सकें जिन्हें आप समझते हैं कि आप नहीं छोड़ सकते, वह वास्तविक अर्थ में त्याग है। मदद करना और दान-पुण्य करना त्याग का केवल अंशमात्र है।

एक साधारण व्यक्ति प्रसिध्दि, निजी लाभ, अच्छा रहन-सहन, आरामदायक जीवन तथा धन का आनन्द उठाना चाहता है। यह साधारण व्यक्ति के लक्ष्य हैं। अभ्यासी के तौर पर, हम भिन्न हैं क्योंकि जो हम प्राप्त करते हैं वह गोंग है न कि ये वस्तुएं। हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम निजी लाभ की ओर कम ध्यान दें और इसे हल्केपन से लें, किन्तु हमें वास्तव में किसी भौतिक वस्तु का त्याग करने के लिए नहीं कहा गया है; हम मानव समाज में साधना करते हैं और हमें साधारण लोगों की भांति ही रहना चाहिए। मुख्य बात यह है कि आप अपनी आसक्तियों के बन्धन से मुक्त हो सकें - आपको वास्तव में किसी वस्तु के त्याग की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ आपका है वह आपसे कोई नहीं छीन सकता, जबकि जो वस्तुऐं आपकी नहीं हैं वे आप अर्जित नहीं कर सकते। यदि वे अर्जित की जाती हैं तो उन्हें दूसरों को वापस करना आवश्यक होगा। प्राप्ति के लिए, आपको त्याग करना आवश्यक है। यकीनन, यह असंभव है कि आप अभी से ही सब कुछ बहुत अच्छी तरह संभाल सकें, जैसे रातोंरात ज्ञान प्राप्त कर लेना असंभव है। किन्तु धीरे-धीरे साधना द्वारा और कदम दर कदम सुधार करते हुए, इसे प्राप्त किया जा सकता है। जितना आप त्याग करेंगे उतनी ही आपको प्राप्ति होगी। आपको निजी लाभ से संबंधित परिस्थितियां सदैव हल्केपन से लेनी चाहिए और मन की शांति के लिए कम में ही संतोष कर लेना चाहिए। जहां तक भौतिक वस्तुओं का प्रश्न है हो सकता है आपको कुछ हानि उठानी पड़े, किन्तु आप सद्गुण और गोंग प्राप्त करेंगे। सत्य यह है। आपको अपनी प्रसिध्दि, धन और निजी लाभ का विनिमय करके जानबूझ कर सद्गुण तथा गोंग की प्राप्ति नहीं करनी है। इसे अपने ज्ञान प्राप्ति के गुण द्वारा और भी समझना आवश्यक है।

एक व्यक्ति जिसने ऊंचे स्तर की ताओ पध्दति में साधना की, एक बार कहा था : ''मैं वह वस्तुएं नहीं चाहता जो दूसरे चाहते हैं, और मेरा उन वस्तुओं पर अधिकार नहीं है जो दूसरों के अधिकार में हैं; किन्तु मेरे पास वे वस्तुएं हैं जो औरों के पास नहीं हैं और मैं वे वस्तुएं चाहता हूं जो दूसरे नहीं चाहते।'' एक साधारण व्यक्ति के पास कदाचित ही ऐसा क्षण होता है जब वह संतुष्ट अनुभव करता हो। इस प्रकार का व्यक्ति सभी वस्तुएं चाहता है केवल भूमि पर पड़े हुए पत्थर को छोड़कर जिसे कोई नहीं लेना चाहता। किन्तु इस ताओ साधक ने कहा, ''मैं उन पत्थरों को ले लूंगा।'' एक कहावत इस प्रकार है, ''किसी वस्तु का दुर्लभ होना उसे मूल्यवान बना देता है तथा उसकी अत्यधिक कमी होना उसे अनुपम बना देता है।'' पत्थर यहां पर मूल्यहीन है किन्तु हो सकता है दूसरे आयामों में वे सर्वाधिक अमूल्य हो। यह एक ऐसा सिध्दांत है जो एक साधारण व्यक्ति नहीं समझ सकता। कई ज्ञान प्राप्त ऊंचे स्तर के गुरु जो महान विशेषताओं के स्वामी हैं, उनके पास कोई भौतिक सुख-सुविधाएं नहीं हैं। उनके अनुसार, ऐसा कुछ नहीं है जिसे त्यागा नहीं जा सकता।

साधना का मार्ग सर्वाधिक उचित है, और अभ्यासी वास्तव में सबसे अधिक बुध्दिमान व्यक्ति हैं। वस्तुएं जिनके लिए साधारण व्यक्ति संघर्ष करते हैं तथा तुच्छ लाभ जो वे प्राप्त करते हैं केवल पल भर के लिए होते हैं। यदि आप संघर्ष द्वारा कुछ प्राप्त भी कर लें, या कुछ मुफ्त पा जाएं, या कुछ लाभान्वित हो जाएं तो इससे क्या होता है? साधारण लोगों में कहावत प्रचलित है : ''जब आपका जन्म हुआ था आप खाली हाथ आए थे और जब आपकी मृत्यु होगी तो आपको खाली हाथ ही जाना होगा।'' आप इस संसार में खाली हाथ आते हैं, और जब इसे छोड़ते हैं तो खाली हाथ ही जाते हैं - यहां तक कि आप की अस्थियां भी जल कर राख हो जाती हैं। कोई अन्तर नहीं पड़ता कि आपके पास कितना धन है या कि आप कितने ऊंचे पद पर हैं - जब आप शरीर छोड़ते हैं तो आप अपने साथ कुछ नहीं ले जा सकते। परन्तु चूंकि गोंग आपकी मुख्य चेतना के शरीर पर विकसित होता है, इसे अपने साथ ले जाया जा सकता है। मैं आपको बता रहा हूं कि गोंग की प्राप्ति कठिन है। यह इतना अमूल्य है तथा प्राप्त करने में इतना कठिन है कि इसका विनिमय कितनी भी धनराशि से नहीं हो सकता। एक बार आपके गोंग के उन्नत स्तर पर पहुंचने के बाद, एक दिन यादि आप निश्चय भी करें कि आप और साधना नहीं करेंगे, जब तक आप कोई बुरा कार्य नहीं करते आपका गोंग किसी भी उस भौतिक वस्तु में परिवर्तित कर दिया जाएगा जो आप चाहते हैं - आप उन सब वस्तुओं को प्राप्त कर सकेंगे। किन्तु आपके पास वे वस्तुएं नहीं रहेंगी जो साधकों के पास होती हैं। इसके विपरीत आपके पास केवल वह वस्तुएं होंगी जो संसार में प्राप्त की जा सकती हैं।

निजी लाभ कुछ लोगों को अनुचित तरीकों द्वारा उन वस्तुओं को लेने के लिए उत्साहित करता है जो दूसरों से संबंधित है। ये लोग सोचते हैं कि वे फायदे में रहे। सत्य यह है कि उन्हें उस लाभ की प्राप्ति दूसरों के साथ अपने सद्गुण के विनिमय द्वारा हुई - किन्तु वे यह नहीं जानते। अभ्यासी के लिए, उतना भाग उसके गोंग में से घटा लिया जायेगा। जो अभ्यासी नहीं है, उसका जीवनकाल उतना ही कम कर दिया जाएगा या किसी और प्रकार से उसे हानि होगी। संक्षेप में लेखा-जोखा बराबर कर दिया जाएगा। यह ब्रह्माण्ड का नियम है। ऐसे भी लोग हैं जो सदैव दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, अपशब्दों का प्रयोग कर दूसरों को हानि पहुंचाते हैं, इत्यादि। इन कार्यकलापों द्वारा वे अपने सद्गुण का उतना ही भाग दूसरों को दे डालते हैं, दूसरों को अपमानित करने पर उसकी भरपाई उन्हें अपने सद्गुण के विनिमय द्वारा करनी पड़ती है।

कुछ लोग सोचते हैं कि अच्छा व्यक्ति होना नुकसानदेह है। एक साधारण व्यक्ति के दृष्टिकोण से, एक अच्छे व्यक्ति को हमेशा हानी उठानी पड़ती है। किन्तु जो वे प्राप्त करते हैं वह साधारण व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता: सद्गुण, एक श्वेत पदार्थ जो अत्यधिक अमूल्य है। सद्गुण के बिना व्यक्ति गोंग की प्राप्ति नहीं कर सकता - वह एक अटल सत्य है। ऐसा क्यों होता है इतने लोग साधना करते हैं किन्तु उनका गोंग विकसित नहीं होता? यह वास्तव में इसलिए है क्योंकि वे सद्गुण का संवर्धन नहीं करते। कई लोग सद्गुण के महत्व पर बल देते हैं तथा सद्गुण के संवर्धन को आवश्यक बताते हैं, किन्तु वे सद्गुण के गोंग में विकसित होने के सिध्दांत उजागर करने में असफल रहते हैं। इसे व्यक्तिगत तौर पर समझने के लिए छोड़ दिया जाता है। त्रिपिटक के लगभग दस हजार खण्ड तथा शाक्यमुनि द्वारा चालीस से भी अधिक वर्षों तक सिखाए गए सिध्दांत एक ही वस्तु की चर्चा करते हैं : त। ताओ साधना की प्राचीन चीनी पुस्तकें पूर्णतय: सद्गुण की चर्चा करती हैं। लाओ ज़[1] द्वारा लिखित पांच हजार शब्दों की पुस्तक ताओ ते चिंग, भी सद्गुण पर प्रकाश डालती है। कुछ लोग फिर भी इसे समझ पाने में असफल रहते हैं।

हम ''त्याग'' की बात करते हैं। जब आप लाभ की प्राप्ति करते हैं आपको त्याग करना आवश्यक है। जब आप वास्तविक रूप से साधना करना चाहते हैं आपके सामने कुछ विपत्तियां आएंगी। जब वे आपके जीवन में अभिव्यक्त होती हैं, तो हो सकता है आप कुछ शारीरिक पीड़ा अथवा असुविधाजनक स्थिति अनुभव करें - किन्तु यह रोग नहीं है। कठिनाइयां, समाज, परिवार अथवा कार्यस्थल में भी अभिव्यक्त हो सकती हैं - सभी कुछ संभव है। निजी लाभ या भावात्मक आवेगों पर विरोधाभास अचानक ही आएंगे। इनका ध्येय आपको अपने नैतिकगुण को सुधारने में समर्थ करना है। यह परिस्थितियां अक्सर अचानक ही प्रकट होती हैं और बहुत आवेगपूर्ण होती हैं। यदि आपका सामना ऐसी परिस्थिति से हो जो बहुत ही उलझन में डालने वाली हो, जो आपके लिए शर्मिन्दगी पैदा करने वाली हो, आपको अपमानित करने वाली हो, या ऐसी जिससे आप अजीबोगरीब स्थिति में आ जाएं तो उस सयम आप किस प्रकार बर्ताव करेंगे? यदि आप शान्त और सुलझे हुए रहते हैं - यदि आप ऐसा कर सकें - आपके नैतिकगुण में विपत्तियों के बीच सुधार होगा और आपका गोंग भी उसी अनुपात में बढ़ जाएगा। यदि आप थोड़ा सा आगे बढ़ सकें, तो आप थोड़ा ही प्राप्त करेंगे। जितना आप त्याग करेंगे उतनी ही आपको प्राप्ति होगी। अक्सर जब हम किसी कठिनाई के बीच होते हैं तब हम यह नहीं समझ पाते, किन्तु हमें प्रयत्न करना होगा। हमें स्वयं को साधारण व्यक्ति नहीं मानना चाहिए। जब विरोधाभास होता है तो हमें अपने आपको ऊंचे मानदण्ड पर रखना चाहिए। हमारे नैतिकगुण में साधारण लोगों के बीच सुधार किया जाएगा क्योंकि हम उन्हीं के बीच साधना करते हैं। हमारे द्वारा कुछ गलतियां होना अवश्यम्भावी है तथा हमें उनसे कुछ न कुछ सीख लेनी चाहिए। जब आप आरामदेह स्थिती में होते हैं और किसी समस्या का सामना नहीं करते तो आपके गोंग में विकास होना असंभव है।

3. ज़न, शान, रेन का एकसाथ संवर्धन

हमारे साधना मार्ग में ज़न, शान और रेन का एकसाथ संवर्धन किया जाता है। ''ज़न'' का संबंध सत्य बोलने, सही कार्य करने, अपने मूल और सच्चे स्वभाव की ओर लौटना, तथा अन्तत: एक सच्चा व्यक्ति बनना है। ''शान'' का सम्बन्ध करूणा विकसित करना, अच्छे कार्य करना तथा लोगों को बचाना है। हम विशेष रूप से ''रेन'' की योग्यता पर बल देते हैं। केवल रेन की मदद से व्यक्ति साधना द्वारा अत्याधिक सद्गुण का स्वामी हो सकता है। रेन अत्यंत प्रबल है तथा ज़न और शान से भी सर्वोपरि है। सम्पूर्ण साधनाक्रम के दौरान आपको सहनशील होने के लिए, अपने नैतिकगुण पर दृष्टि रखने तथा आत्म संयम रखने के लिए कहा जाता है।

जब आप कठिनाइयों से घिरे हों तब सहनशील रहना सरल नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, ''यदि कोई आपके साथ मारपीट करे और आप पलट कर प्रहार न करें, यदि आपके विरुध्द अपशब्द कहे जाएं और आप पलट कर न बोलें अथवा यदि आप परिवार, संबंधियों और घनिष्ठ मित्रों के बीच अपमानित होकर भी सहनशील रह सकें तो क्या आप आह क्यू[2] नहीं बन गए हैं?'' मैं कहता हूं कि आप और सब तरह से सामान्य बर्ताव करते हैं यदि आपकी बुध्दिमत्ता औरों से कम नहीं है, और केवल यही बात है कि आप निजी लाभ संबंधी परिस्थितियों को हल्केपन से लेते हैं, तो कोई भी नहीं कहेगा कि आप मूर्ख हैं। सहनशील होना दुर्बलता नहीं है और न ही यह आह क्यू होना है। यह प्रबल इच्छा शक्ति तथा आत्म संयम को दर्शाता है। चीनी इतिहास में हान शिन[3] नामक एक व्यक्ति था जिसे एक बार एक व्यक्ति की टांगों के बीच से रेंगने का अपमान सहना पड़ा। वह महान सहनशीलता का उदाहरण था। एक पुरानी कहावत है : ''जब एक साधारण व्यक्ति अपमानित होता है तो वह तलवार निकालकर लड़ने लगता है।'' इसका अर्थ है कि जब एक साधारण व्यक्ति अपमानित होता है, वह बदला लेने के लिए अपनी तलवार निकालेगा, दूसरों को अपशब्द कहेगा, या उन पर प्रहार करेगा। व्यक्ति के लिए यह सरल नहीं है कि वह आए और पूरा जीवन जी ले। कुछ लोग केवल अपने अंह के लिए जीते हैं इसका कोई मूल्य नहीं है, और यह बहुत थका देने वाला भी है। चीन में एक कहावत है : ''यदि आप एक कदम पीछे होकर देखें तो आप एक अथाह सागर तथा और आकाश के सम्मुख होंगे।'' यदि आप कठिनाइयों से घिरे हों तो एक कदम पीछे हटकर देखें, तो आप एक दूसरा ही दृष्टिकोण पाएंगे।

एक अभ्यासी को न केवल उन लोगों की ओर सहनशीलता दिखानी चाहिए, जिनके साथ उसका विरोधाभास है और उसे सीधे अपमानित करते हैं, बल्कि उसे उनकी ओर उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा उनका कृतज्ञ भी होना चाहिए। यदि उन लोगों ने आपके लिए कठिनाइयां नहीं उत्पन्न की होतीं आप अपने नैतिकगुण में कैसे सुधार ला पाते? कैसे कठिनाइयों के दौरान काला तत्व श्वेत तत्व में परिवर्तित हो पाता? कैसे आप अपना गोंग विकसित कर पाते? जब आप विपत्तियों से घिरे होते हैं तो यह बहुत कठिन स्थिति होती है, किन्तु आपका उस समय आत्मसंयम रखना आवश्यक है। जैसे-जैसे आपका गोंग सामर्थ्य बढ़ता है कठिनाइयां और प्रबल होती जाएंगी। सभी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या आप अपने नैतिकगुण में सुधार ला पाते हैं। आरम्भ में विपत्तियां आपको विचलित कर सकती हैं और आपको बहुत अधिक क्रोधित कर सकती हैं - इतना क्रोधित कि आपकी नसें भी फूलने लगें। किन्तु आपको गुस्से से फट नहीं पड़ना है और उस पर काबू रखना है - यह अच्छी बात होगी। आपने सहनशील होना आरम्भ कर दिया है, संकल्प द्वारा सहनशील होना। आप अब धीरे-धीरे और लगातार अपने नैतिकगुण में सुधार लाएंगे, आप इन परिस्थितियों को वास्तव में हल्के पन से लेंगे; जिससे और अधिक सुधार होगा। साधारण लोग मामूली झगड़ों और छोटी समस्याओं को बहुत गंभीरता से लेते हैं। वे अपने अहम के लिए जीते हैं और कुछ भी सहन नहीं करते। जब उन्हें सीमा से अधिक क्रोध दिला दिया जाए तो वे कुछ भी करने पर उतारू हो जाएंगे। किन्तु आप अभ्यासी के दृष्टिकोण से पाएंगे कि जिन वस्तुओं को लोग गंभीरता से लेते हैं वे बहुत मामूली होती हैं - बहुत अधिक मामूली - क्योंकि आपका ध्येय अत्यधिक दूर दृष्टि वाला और विशाल है। आपका जीवनकाल उतना होगा जितना यह ब्रह्माण्ड। तो उन वस्तुओं के बारे में फिर सोचें : यदि ये वस्तुएं आपके पास हैं अथवा नहीं, कोई अन्तर नहीं पड़ता। यदि आप एक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें आप उन सभी को पीछे छोड़ सकते हैं।

4. ईर्ष्या को हटाना

ईर्ष्या साधना में एक बड़ी बाधा है और एक ऐसी बाधा जिसका अभ्यासियों पर बहुत अधिक असर होता है। यह सीधे अभ्यासी के गोंग सामर्थ्य पर असर डालती है, मित्र साधकों को हानि पहुंचाती है, और हमारी साधना की उन्नति में गंभीर हस्तक्षेप करती है। क्योंकि आप अभ्यासी हैं, आपको इसे सौ प्रतिशत हटाना होगा। कुछ लोगों का अभी ईर्ष्या से मुक्त होना बाकी है हालांकि कुछ स्तर तक साधना कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त, इसे हटाना जितना अधिक कठिन होता है, ईर्ष्या का प्रबल हो जाना उतना ही सरल हो जाता है। इस आसक्ति के ऋणात्मक प्रभाव व्यक्ति के नैतिकगुण के सुधारे हुए भागों को आघात पहुंचाते हैं। ईर्ष्या के बारे में अलग से चर्चा क्यों की जा रही है। वह इसलिए क्योंकि ईर्ष्या चीनी लोगों के बीच अभिव्यक्त एक सबसे प्रबल, सबसे मुख्य वस्तु है : लोगों की विचारधारा में इसका सबसे अधिक प्रभाव है। कई लोग हालांकि इससे अनभिज्ञ हैं। इसे पूर्वी ईर्ष्या अथवा एशिया की ईर्ष्या कहा जाता है, यह पूर्व के लोगों की प्रकृति है। चीन के लोग बहुत अन्तर्मुखी, संकोची होते हैं और अपने आपको खुल कर व्यक्त नहीं करते। इन सबसे ईर्ष्या को बढ़ावा मिलता है। एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। इसी प्रकार, एक अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के अपने लाभ तथा हानि हैं। पश्चिम के लोग अपेक्षाकृत बाह्यमुखी होते हैं। उदाहरण के लिए एक बालक विद्यालय में सौ अंक प्राप्त करता है और खुशी-खुशी अपने घर आकर कहता है, ''मुझे सौ अंक प्राप्त हुए।'' पड़ोसी उसे बधाई देने के लिए अपने खिड़की तथा दरवाजे खोलेंगे और कहेंगे, ''बधाई हो टॉम!'' वे सभी उसके लिए प्रसन्न होंगे। यदि ऐसा चीन में हो तो - सोचें - लोग यह सुनकर निराश हो जाएंगे, ''उसने सौ अंक प्राप्त किए हैं। तो क्या? इसमें इतना प्रसन्न होने की क्या बात है?'' जब ईर्ष्या की मानसिकता होती है तो प्रतिक्रिया बिल्कुल भिन्न होती है।

ईर्ष्याग्रस्त लोग दूसरों को हेय दृष्टि से देखते हैं और दूसरों को आगे नहीं बढ़ने देते। जब वे किसी और व्यक्ति को उनसे अधिक योग्य देखते हैं तो उनका मन सबकुछ भूल जाता है, उनके लिए यह असहनीय होता है, और वे तथ्यों को भी नकार देते हैं। जब दूसरों को वेतन में बढ़ोत्तारी मिलती है तो वे भी बराबर भत्ता चाहते हैं, और यदि कुछ गलत हो जाए तो उतने ही भाग के लिए उत्तरदायी होना चाहते हैं। जब वे दूसरों को अपने से अधिक धन कमाते हुए देखते हैं तो उनकी आंखें ईर्ष्या से भर जाती हैं। यदि दूसरे उनसे अच्छा करता है तो यह उनके लिए अस्वीकार्य है। कुछ लोग वह भत्ता जो उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान की किसी विशेष खोज के लिए प्राप्त किया है, प्राप्त करने में घबराते हैं; क्योंकि उन्हें डर है कि दूसरे लोगों को ईर्ष्या होगी। कुछ लोग जो कुछ विशेष उपाधियों से सम्मानित हुए हैं, उनका खुलासा करने से घबराते हैं, क्योंकि उन्हें ईर्ष्या और आक्षेप का डर होता है। कुछ चीगोंग गुरु दूसरे चीगोंग गुरुओं को शिक्षा देते हुए देखकर सहन नहीं कर पाते, इसलिए वे उनके लिए बाधा उत्पन्न करते हैं। यह एक नैतिकगुण की समस्या है। मान लीजिए कि एक समूह जो एक साथ चीगोंग व्यायाम करता है, कुछ लोग जो बाद में आरम्भ करते हैं, अलौकिक सिध्दियां प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति हो जाते हैं। ऐसे लोग हैं जो कहेंगे : ''उसके पास दिखाने के लिए है ही क्या? मैंने इतने वर्षों तक अभ्यास किया है, मेरे पास प्रमाणपत्रों का ढ़ेर है। वह कैसे मुझसे पहले अलौकिक सिध्दियां प्राप्त कर सकता है?'' उसकीर् ईर्ष्या तब उभर आएगी। साधना अन्दर की ओर केन्द्रित होती है, तथा एक साधक को किसी समस्या का मूल खोजने के लिए अपना संवर्धन करना चाहिए तथा अपने अन्दर देखना चाहिए। आपको अपने ऊपर कठोर प्रयास करना चाहिए और उन भागों में सुधार लाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए जिसमें आपने अभी अधिक ध्यान नहीं दिया है। यदि आप विरोधाभास का मूल कारण जानने के लिए दूसरों को देखेंगे तो दूसरे लोग साधना में सफल हो जाएंगे और आगे बढ़ जाएंगे, जबकि आप अकेले यहां छूट जाएंगे। क्या आपने अपना सम्पूर्ण समय व्यर्थ नहीं कर दिया होगा? साधना स्वयं के संवर्धन के लिए है।

र्ईर्ष्या साथी साधकों को भी हानि पहुंचाती है, जैसे एक व्यक्ति के अपशब्द बोलने से दूसरे के लिए शांति अवस्था में प्रवेश कर पाना कठिन हो जाता है। जब इस प्रकार के व्यक्ति के पास अलौकिक सिध्दियां होती हैं, तो वह ईर्ष्याग्रस्त होकर उनका प्रयोग साथी साधकों को हानि पहुंचाने के लिए कर सकता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति ध्यान मुद्रा में बैठा है, और वह बहुत गहन साधना करता रहा है। वह वहां पर्वत के समान बैठा है क्योंकि उसके पास गोंग है। तभी वहां दो चेतनाएं उड़ती हुई आती हैं जिनमें से एक सन्यासी हुआ करता था किन्तु, ईर्ष्याग्रस्त होने के कारण वह ज्ञान प्राप्ति नहीं कर पाया; यद्यपि वह कुछ गोंग सामर्थ्य का स्वामी है, किन्तु वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाया। जब वे वहां पहुंचते हैं जहां वह व्यक्ति ध्यान मुद्रा में बैठा है, उनमें से एक कहता है, ''यहां अमुक व्यक्ति ध्यान में बैठा है। चलो उसके दूसरी ओर चलें।'' किन्तु दूसरा कहता है, ''विगत में, मैंने ताई पर्वत के एक भाग को काट फेंका था।'' तब वह अभ्यासी पर वार करने का प्रयत्न करता है। किन्तु जब वह हाथ उठाता है वह उसे नीचे नहीं ला पाता। वह चेतना उस अभ्यासी पर प्रहार नहीं कर पाती क्योंकि वह एक सच्चे अभ्यास में साधना कर रहा है और उसके चारों ओर रक्षा कवच है। वह उस व्यक्ति को हानि पहुंचाना चाहता है जो सच्चे मार्ग से साधना कर रहा है, इसलिए यह गम्भीर विषय हो जाता है तथा उसे इसके लिए दण्डित किया जाएगा। जो लोग ईर्ष्यालु होते हैं वे स्वयं को हानि पहुंचाते हैं तथा दूसरों को भी हानि पहुंचाते हैं।

5. आसक्तियों का परित्याग

''आसक्तियां होने'' का अर्थ है किसी वस्तु-विशेष अथवा ध्येय के पीछे अति उत्साहपूर्ण, अति प्रबल पीछे पड़ने की प्रवृति उन अभ्यासियों द्वारा जो स्वयं को मुक्त कराने में असमर्थ रहते हैं या इतने ढ़ीठ होते हैं कि किसी की सलाह नहीं सुनते हैं। कुछ लोग इस संसार में अलौकिक सिध्दियों के पीछे पड़े होते हैं और इसका उनके ऊंचे स्तर की साधना पर अवश्य ही प्रभाव पड़ेगा। भावनाएं जितनी प्रबल होंगी, उनका परित्याग करना उतना ही कठिन होगा। उनके मन उतने ही असन्तुलित व अस्थिर हो जाएंगे। बाद में ये लोग सोचेंगे कि उन्हें कुछ लाभ प्राप्त नहीं हुआ, और यहां तक कि वे उन शिक्षाओं पर भी शंका करने लगेंगे जो उन्होंने सीखी हैं। आसक्तियों की मूल जड़ मानव इच्छाएं हैं। आसक्तियों की विशेषताएं यह हैं कि उनके ध्येय अथवा उद्देश्य अवश्य ही सीमित, बहुत कुछ स्पष्ट और विशेष होते हैं, और अक्सर हो सकता है कि वह व्यक्ति आसक्तियों से अनभिज्ञ हो। एक साधारण व्यक्ति बहुत सी आसक्तियों से घिरा रहता है। वह किसी वस्तु के अनुसरण व प्राप्ति के लिए कोई भी साधन अपनाने को तैयार हो जाता है। एक साधक की आसक्तियां विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त होती हैं, जैसे उसके किसी विशेष अलौकिक सिध्दि के अनुसरण में, उसके किसी कल्पनाशीलता में लिप्त हो जाने में, उसके किसी चमत्कारिक घटना विशेष के प्रति आसक्त हो जाने में, इत्यादि। कोई अन्तर नहीं पड़ता कि आप, एक अभ्यासी, किस वस्तु के पीछे पड़े हैं, यह अनुचित है - पीछे पड़ने की प्रवृति को छोड़ना आवश्यक है। ताओ विचारधारा रिक्तवाद की शिक्षा देती है। बुध्द विचारधारा शून्यवाद सिखाती है तथा किस प्रकार शून्यवाद के द्वार में प्रवेश करें। हम अन्तत: रिक्तता और शून्यता की अवस्था प्राप्त करना चाहते हैं, सभी आसक्तियों का परित्याग करना चाहते हैं। जो कुछ भी आप नहीं छोड़ना चाहते उनका परित्याग आवश्यक है। अलौकिक सिध्दियों का अनुसरण एक उदाहरण है : यदि आप उनका पीछा करते हैं तो इसका अर्थ है कि आप उनका प्रयोग करना चाहते हैं। वास्तव में यह हमारे ब्रह्माण्ड की प्रकृति के विपरीत जाना है। यह वास्तव में, एक नैतिकगुण के विषय का ही मामला हुआ। आप उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं : आप केवल दूसरों के समक्ष उनका दिखावा और प्रदर्शन करना चाहते हैं। वे सिध्दियां दूसरों के समक्ष प्रदर्शन की वस्तुएं नहीं हैं। हो सकता है आपका उन्हें प्रयोग करने का उद्देश्य उचित हो और आप उनका प्रयोग कुछ अच्छे कार्यों के लिए करना चाहते हों, किन्तु जो अच्छे कार्य आपने किए हो सकता है वह उतने अच्छे न बन पड़ें। यह आवश्यक नहीं है कि साधारण व्यक्तियों की समस्याओं को अलौकिक साधनों से सुलझाने पर अच्छे परिणाम आएं। कुछ लोग मेरा यह कथन कि कक्षा में सत्तार प्रतिशत लोगों के त्येनमू खुल गए, सुनने के बाद सोचने लगते हैं, ''मुझे कोई अनुभव क्यों नहीं होता?'' जब वह घर लौटकर व्यायाम करते हैं तो उनका ध्यान त्येनमू पर केन्द्रित रहता है - इस सीमा तक कि उन्हें सर दर्द भी होने लगता है। फिर भी अंत में कुछ नहीं देख पाते। यह एक आसक्ति है। प्रत्येक व्यक्ति शरीर के भौतिक अवस्था और जन्मजात गुण में भिन्न होता है। यह सम्भव नहीं है कि वे सब त्येनमू द्वारा एक ही समय देख सकें, न ही प्रत्येक व्यक्ति का त्येनमू एक स्तर पर हो सकता है। हो सकता है कुछ लोग देखने में समर्थ हो सकें और कुछ नहीं। यह सब सामान्य है।

आसक्तियां साधक के गोंग सामर्थ्य के विकास को एकाएक रोक सकती हैं। और भी गम्भीर मामलों में इस कारण अभ्यासी दुष्ट मार्ग की ओर अग्रसर हो सकता है। विशेष रूप से, कुछ अलौकिक सिध्दियों का प्रयोग निम्न नैतिकगुण के लोग बुरे कार्यों में कर सकते हैं। ऐसी घटनाएं हुई हैं जब एक अस्थिर नैतिकगुण वाले व्यक्ति ने अलौकिक सिध्दियों का प्रयोग अनुचित कार्यों के लिए किया। कहीं एक स्थान पर एक कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी ने मानसिक नियंत्रण की अलौकिक सिध्दि विकसित की। इसके द्वारा वह अपने विचारों द्वारा दूसरों के विचारों और स्वभाव पर नियंत्रण कर सकता था, और उसने उस सिध्दि का प्रयोग बुरे कार्यों के लिए किया। कुछ लोग जब क्रियाएं करते हैं तो उन्हें कुछ दृश्य दिखाई पड़ सकते हैं। वे हमेशा स्पष्टता से देखना चाहते हैं तथा पूरी तरह समझना चाहते हैं। यह भी एक प्रकार की आसक्ति है। कोई विशेष शौक भी कई बार किसी व्यक्ति के लिए व्यसन बन सकता है; और वह उसे छोड़ पाने में असमर्थ रहता है। यह भी, एक प्रकार की आसक्ति है। जन्मजात गुण तथा संकल्पों में भिन्नता होने के कारण, कुछ लोग उच्चतम स्तर की प्राप्ति के लिए साधना करते हैं जबकि कुछ केवल कुछ विशेष वस्तुओं की प्राप्ति के लिए। यह दूसरे प्रकार की मानसिकता अवश्य ही व्यक्ति के साधना के ध्येय को सीमित कर देती है। यदि व्यक्ति इस प्रकार की आसक्ति का परित्याग नहीं करता, तो उसका गोंग अभ्यास द्वारा भी नहीं बढ़ेगा। इसलिए अभ्यासियों को सभी सांसारिक लाभ हल्केपन से लेने चाहिएं, किसी वस्तु का अनुसरण नहीं करना चाहिए, और सभी कुछ प्राकृतिक रूप से होने देना चाहिए, जिससे नई आसक्तियों के पेदा होने से बचा जा सके। ऐसा किया जाना अभ्यासी के नैतिकगुण पर निर्भर करता है। व्यक्ति तब तक साधना में सफल नहीं हो सकता यदि उसके नैतिकगुण में आधारभूत तरीके से बदलाव न आ जाए या कोई आसक्तियां न रहें।

6. कर्म

(1) कर्म का उद्गम

कर्म एक प्रकार का काला तत्व है जो नैतिकता के विपरीत है। बौध्दमत में इसे दुष्कर्म कहा जाता है, जबकि यहां इसे हम कर्म कहते हैं। इसलिए बुरे कार्यों को करना कर्म उत्पन्न करना है। कर्म व्यक्ति द्वारा इस जन्म में और पिछले जन्मों में किए गए बुरे कार्यों द्वारा उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए, किसी का खून करना, दूसरों से लाभ उठाना, दूसरों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करना, दूसरों की पीठ पीछे बुराई करना, दूसरों के साथ अभद्र व्यवहार करना, आदि सभी कर्म उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ कर्म पुरखों से, परिवारजनों व संबंधियों से अथवा घनिष्ठ मित्रों से हस्तान्तरित होता है। जब कोई व्यक्ति दूसरे को पीटता है, तो वह उस व्यक्ति को श्वेत तत्व भी हस्तांतरित कर देता है, और उसके शरीर का रिक्त स्थान काले तत्व से भर जाता है। किसी का खून करना सबसे दुष्ट कार्य है - यह एक अनुचित कार्य है और इससे भारी मात्रा में कर्म उत्पन्न होगा। कर्म लोगों में रोग का प्राथमिक कारण है। यकीनन, यह हमेशा स्वयं को रोग के रूप में अभिव्यक्त नहीं करता - यह सामने आने वाली कठिनाइयों और इसी प्रकार और वस्तुओं में भी अभिव्यक्त हो सकता है। इन सभी स्थितियों में कर्म कार्यशील है। इसीलिए अभ्यासियों को कुछ भी बुरा नहीं करना चाहिए। कोई भी बुरा आचरण बुरे प्रभावों को उत्पन्न करेगा जो आपकी साधना को गम्भीर रूप से बाधा पहुंचाएगा।

कुछ लोग पौधों की ची एकत्रित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। जब वह अपनी क्रियाएं सिखाते हैं तो वे यह भी सिखाते हैं कि पौधों से ची कैसे एकत्रित की जाती है। वे अत्यंत सुरूचिपूर्ण तरीके से चर्चा करते हैं कि किस वृक्ष की ची बेहतर है तथा विभिन्न वृक्षों की ची के क्या रंग होते हैं। हमारे उत्तरपूर्वी प्रान्त में एक पार्क में कुछ लोग थे जो एक प्रकार के तथाकथित चीगोंग का अभ्यास करते थे जिसमें वे भूमि पर सब और पलटियां खाते थे। उठने के बाद वे, चीड़ के पेड़ों की ची एकत्रित करने के लिए उनके चारों ओर घेरा बना लेते थे। आधे ही साल में पेड़ों का समूह सूख गया और पीला पड़ गया। यह कर्म उत्पन्न करने वाला कार्य था! यह एक अपराध था! पौधों से ची एकत्रित करना उचित नहीं है, भले ही इसे हमारे देश को हरा-भरा करने की दृष्टि से देखा जाए, वातावरण सन्तुलन को बनाए रखने की दृष्टि से देखा जाए, अथवा ऊंचे स्तर के दृष्टिकोण से देखा जाए। ब्रह्माण्ड विशाल और अथाह है, तथा आपके एकत्रित करने के लिए ची चारों ओर बिखरी पड़ी है। आप जाइए और इसे एकत्रित कर लीजिए - इन पौधों को क्यों हानि पहुंचाते हैं? यदि आप एक अभ्यासी हैं, तो आपका दया और करूणा का हृदय कहां गया?

प्रत्येक वस्तु प्रज्ञावान है। आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि पौधों में न केवल जीवन होता है बल्कि बुध्दिमत्ता, विचार, भावनाऐं तथा मर्मग्राही तंत्रिका तंत्र भी होते हैं। जब आपका त्येनमू धर्म दृष्टि के स्तर तक पहुंचता है, तब आप पाएंगे कि यह विश्व पूर्णतया भिन्न स्थान है। जब आप बाहर जाएंगे, चट्टानें, दीवारें और यहां तक कि वृक्ष भी आप से बात करेंगे। सभी वस्तुएं चेतन हैं। जैसे ही किसी वस्तु की रचना होती है एक चेतना उसमें प्रवेश कर जाती है। यह पृथ्वी वासी ही हैं जो वस्तुओं को सजीव तथा निर्जीव श्रेणी में विभाजित करते हैं। यदि साधना स्थलों में रहने वाले लोगों से एक बर्तन भी टूट जाए तो वे इसे अच्छा नहीं मानते, क्योंकि जैसे ही यह टूटता है, इसमें वास करने वाली चेतना को इसे छोड़ना पड़ता है। उसने अभी अपना जीवनकाल पूर्ण नहीं किया है इसलिए उसके जाने के लिए कहीं स्थान नहीं है। इसलिए जिस व्यक्ति ने उसके जीवन का अन्त किया है उसके प्रति इस चेतना में अत्यंत घृणा उत्पन्न होगी। जितनी अधिक यह क्रूध्द होगी, उतना ही अधिक कर्म उस व्यक्ति के पास आ जाएगा। कुछ 'चीगोंग गुरु' शिकार भी खेलते हैं। उनकी दया और करूणा कहां गई। बुध्द तथा ताओ विचारधारा में ऐसे कार्य नहीं किए जाते जिससे स्वर्गीय सिध्दांत भंग हों। जब कोई इस प्रकार के कार्य करता है, तो यह किसी के प्राण लेने जैसा कृत्य है।

कुछ लोग कहेंगे कि विगत में उन्होंने बहुत से कर्म उत्पन्न किये हैं, उदाहरण के लिए मछलियों या मुर्गों को मारकर अथवा मछलियां पकड़ने के शौक द्वारा आदि। क्या इसका अर्थ यह है कि वे अब साधना नहीं कर पाएंगे? नहीं ऐसा नहीं है। पहले, जब आपने यह किया था तब आप इसका परिणाम नहीं जानते थे, इसलिए इससे अतिरिक्त कर्म उत्पन्न नहीं हुआ होगा। आप केवल भविष्य में ऐसा और न करें, और यह उपयुक्त होगा। यदि आप ऐसा दोबारा करते हैं तो यह जानबूझकर सिध्दान्तों को भंग करना होगा, और उसकी अनुमति नहीं है। हमारे कुछ अभ्यासियों के पास इस प्रकार के कर्म हैं। हमारी सभा में आपकी उपस्थिति का अर्थ यह है कि आपका एक पूर्वनियोजित संबंध है तथा यह कि आप आगे साधना कर सकते हैं। क्या हमें मक्खियों या मच्छरों को मारना चाहिए जब वे अन्दर आ जाएं? जहां तक आपके वर्तमान स्तर पर आपके दृष्टिकोण की बात है, यदि आप उन्हें मार भी देते हैं तो यह अनुचित नहीं माना जाएगा। यदि आप उन्हें बाहर नहीं भगा सकते तो उन्हें मारना कोई अनुचित नहीं है। जब किसी वस्तु के जीवन का अन्तकाल आ गया है, स्वभाविक ही उसकी मृत्यु होगी। एक बार जब शाक्यमुनि जीवित थे, वे स्नान करना चाहते थे और उन्होंने अपने शिष्य को स्नानागार साफ करने के लिए कहा। शिष्य ने स्नानागार में बहुत से कीड़े देखे, इसलिए वह वापस आया और पूछा कि उसे क्या करना चाहिए। शाक्यमुनि ने फिर यह कहा, ''यह स्नानागार है जो मैं चाहता हूं कि तुम साफ करो।'' शिष्य समझ गया, और उसने वापस जाकर स्नानागार को साफ किया। आपको कुछ स्थितियों को बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। हम नहीं चाहते कि आप अत्यधिक सावधान व्यक्ति बने रहें। एक जटिल वातावरण में, मेरे विचार से, यह उचित नहीं है, यदि आप हर पल सहमे हुए रहते हैं और आपको यह भय रहता है कि कुछ गलत न हो जाए। यह एक प्रकार की आसक्ति होगी - भय स्वयं एक आसक्ति है।

हमारा हृदय दया और करूणा से भरा होना चाहिए जब हम परिस्थितियों को दया तथा करूणा की दृष्टि से लेते हैं तो हमारे द्वारा समस्या उत्पन्न होने की संभावना कम हो जाती है। निजी लाभ को हल्केपन से लें और सहृदय रहें, तथा आपका करूणाशील हृदय आपको बुरे कार्यों से दूर रखेगा। आप विश्वास करें या नहीं यदि आप हमेशा घृणापूर्ण स्वभाव रखते हैं और हमेशा लड़ाई-झगड़ा करना चाहते हैं तो आप पाएंगे, कि आपने अच्छी वस्तुओं को भी बुरी में बदल दिया है। मैं कई बार देखता हूं कि कुछ लोग जब सही होते हैं, तो दूसरों को कुछ कहने का अवसर नहीं देते; जब इस प्रकार का व्यक्ति सही होता है तो उसे अंतत: दूसरों के साथ दुर्व्यव्हार करने का मौका मिल जाता है। इसी प्रकार, यदि हम कुछ विषयों पर सहमत न हों तो हमें विरोधाभास खड़ा नहीं कर देना चाहिए। जिन वस्तुओं को आप नापसंद कर रहे हैं कई बार आवश्यक नहीं कि वे गलत हों। जब आप एक अभ्यासी की भांति लगातार अपना स्तर उठाते हैं, आपके कहे हर वाक्य में शक्ति होती है। आपको ऐसा कुछ नहीं बोल देना चाहिए जैसा आपका मन चाहे, क्योंकि आपके द्वारा कहे गये शब्द साधारण लोगों को प्रभावित करते हैं। आपके द्वारा बुरे कार्य करना तथा कर्म उत्पन्न करना तब विशेष रूप से सरल हो जाता है जब आप समस्याओं की वास्तविकता तथा उनके कर्म का कारण नहीं जान पाते।

(2) कर्म का परित्याग

इस संसार के सिध्दांत मूल रूप से वही हैं जो स्वर्ग में हैं : अंतत: जो आप पर दूसरों का उधार बकाया है वह आपको चुकाना होगा। यहां तक कि साधारण लोगों के ऊपर भी जो बकाया होता है वह उन्हें चुकाना होता है। सभी कठिनाइयां और समस्याएं जिनका आप जीवनभर सामना करते हैं कर्म से परिभूत होतीं हैं। आपको चुकाना ही पड़ेगा। जीवन का मार्ग हम सच्चे साधकों के लिए बदल दिया जाएगा। आपके गुरु आपके कुछ कर्म कम कर देंगे, और जो बचेंगे वह आपके नैतिकगुण के सुधार के लिए प्रयोग किए जाएंगे। क्रियाएं करने तथा नैतिकगुण का संवर्धन करने के द्वारा आप अपने कर्म का विनिमय करते हैं और उसे चुकाते हैं। अब से, जो समस्याएं आपके सामने आएंगी वे संयोग से नहीं होंगी। इसलिए कृपया आप मानसिक रूप से तैयार रहें। कुछ कठिनाइयां सहन करने के बाद, आप उन सब वस्तुओं का त्याग करने के लिए तैयार होंगे जो एक साधारण व्यक्ति नहीं छोड़ सकता। आप अनेक कठिनाइयों का सामना करेंगे। समस्याएं परिवार से, समाज और दूसरे स्रोतों से उत्पन्न होंगी या हो सकता है आपके साथ अचानक कोई दुर्घटना घटित हो; यह भी हो सकता है कि जो वास्तव में किसी और की गलती है उसके लिए आपको दोषी ठहराया जाए, इत्यादि। अभ्यासी रोगग्रस्त नहीं होते, किन्तु हो सकता है आप अचानक ही गम्भीर रूप से बीमार हो जाएं। हो सकता है रोग अत्यधिक तेजी से आए, जिस कारण आपको उस सीमा तक पीड़ा हो जिसके आगे आप सहन न कर सकें। यहां तक कि अस्पताल की जांच से भी कोई कारण नहीं जान पड़ेगा। किन्तु किसी अपरिचित कारण से रोग बाद में बिना किसी उपचार के लुप्त हो जाएगा। वास्तव में, इस प्रकार आपके कर्जे चुकाए जाते हैं। हो सकता है आपकी पत्नी अथवा पति बहुत क्रोधित हो जाए और अकारण ही आपसे झगड़ा करना आरम्भ कर दे; यहां तक कि मामुली घटनाएं भी बड़े वाद-विवाद को जन्म दे सकती हैं। बाद में, आपके जीवन साथी को यह समझने में उलझन होगी कि उसे इतना क्रोध क्यों आया। एक अभ्यासी की भांति, आपको यह स्पष्ट होना चाहिए कि इस प्रकार की घटना क्यों घटित हुई : यह इसलिए क्योंकि वह 'वस्तु' आई, और यह आपसे आपका कर्म चुकाने के लिए कह रही थी। इस प्रकार की घटनाओं को सुलझाने के लिए आपको इन क्षेत्रों में अपने ऊपर नियन्त्रण रखना होगा और अपने नैतिकगुण को जांचना होगा। आपको सराहनापूर्ण और कृतज्ञ होना चाहिए कि आपके जीवन साथी ने आपके कर्म को चुकाने में मदद की।

आरम्भ में जब आप कुछ समय तक ध्यान में बैठते हैं आपके पैरों में दर्द शुरू हो जाएगा, और कभी तो वह दर्द अत्यंत कष्टदायक होगा। ऊंचे स्तर के अभ्यासी अपने त्येनमू से देख सकते हैं कि जब कोई बहुत कष्ट में है, एक बहुत बड़ा काला तत्व जो उनके शरीर के अन्दर और बाहर दोनों तरफ है - उनके शरीर से उतर रहा है और बाहर निकल रहा है। अभ्यासी ध्यान में बैठकर जो पीड़ा अनुभव करता है समय-समय पर आती है और असहनीय होती है। कुछ यह बात समझते हैं और पक्का इरादा रखते हुए अपने पैर नहीं खोलते। तब काला तत्व शरीर से बाहर निकल जाता है और श्वेत तत्व में रूपांतरित हो जाता है, और इसके पश्चात यह गोंग में परिवर्तित होगा। ऐसा सम्भव नहीं है कि एक अभ्यासी अपने कर्मों का हिसाब केवल ध्यान में बैठने से और क्रियाएं करने भर से ही चुका लेगा। यह अति आवश्यक है कि वे अपने नैतिकगुण में सुधार लाएं और ज्ञानप्राप्ति के गुण को विकसित करें, और कुछ कष्टों का सामना करें। आवश्यक यह है कि हम करूणाशील बनें। हमारे फालुन गोंग में आपका करूणा भाव बहुत जल्दी प्रकट होता है। बहुत से अभ्यासी यह पाते हैं कि उनकी आंखों से बिना कारण ही आंसू निकल पड़ते हैं जब वे ध्यान में बैठे होते हैं। वे किसी के बारे में भी सोचें, दु:ख अनुभव करते हैं। किसी की भी तरफ देखें, उन्हें पीड़ा दिखाई पड़ती है। यह वास्तव में वह महान करूणा से भरा हृदय है जो प्रकट होता है। आपका स्वभाव, आपकी विशुध्द आत्मा, ब्रह्माण्ड की प्रकृति : ज़न-शान-रेन से जुड़ना आरम्भ कर देती है। जब आपका करूणाशील स्वभाव उभर आएगा, तब आप अधिक नम्रता से कार्य कर सकेंगे। आपके अन्तर्हृदय से लेकर आपके बाहरी रूप तक, हर कोई यह देख सकेगा कि आप वस्तुत: संवेदनापूर्ण हो गए हैं। उस क्षण से कोई भी आप से बुरा व्यवहार नहीं करेगा। यदि आपसे कोई बुरा व्यवहार करता भी है तो, आपका करूणाशील हृदय स्थिति को समझ पाएगा और आप वापस वैसा नहीं करेंगे जैसा उसने किया। यह एक प्रकार की शक्ति है, वह शक्ति जो आपको साधारण लोगों से भिन्न बनाती है।

जब आप किसी विपत्ति का सामना करते हैं, वह महान करूणा भाव उससे निकलने में आपकी मदद करेगा। उसी समय मेरे फाशन आपकी देखभाल करेंगे और आपकी रक्षा करेंगे, परन्तु आपको विपत्तियों का सामना करना ही होगा। उदाहरण के लिए, जब मैं ताइयुआन में लेक्चर ले रहा था वहां एक वृध्द जोड़ा मेरे उस लेक्चर में उपस्थित था। वे जल्दबाजी में सड़क पार कर रहे थे, और जैसे ही वे सड़क के बीच में पहुंचे एक कार बहुत तेज गति से आई। उसने उस वृध्द महिला को तेजी से धक्का देकर गिरा दिया और खींचते हुए दस मीटर से भी अधिक दूरी तक ले गई और सड़क के बीच में गिरा दिया। वह कार और आगे बीस मीटर तक नहीं रूकी। उस कार का चालक कार से निकला और कुछ अशिष्ट शब्द बोले, और जो सह यात्री कार में बैठे थे वे भी बड़बड़ाने लगे। उस समय उस वृध्द महिला को याद था कि मैंने क्या कहा था और कुछ नहीं बोली। उसके बाद वह उठी, ओर बोली, ''सब कुछ ठीक है, मुझे कुछ नहीं हुआ।'' वह फिर अपने पति के साथ व्याख्यान सभा में चली गई। वह उस समय यह भी कह सकती थी ''ओह मुझे यहां चोट आई है, और वहां भी चोट आई है। आपको मुझे अस्पताल ले जाना होगा।'' वह बहुत बड़ी समस्या बन सकती थी। पर, उसने वैसा नहीं किया। उस वृध्द महिला ने मुझे बताया, ''मास्टर मुझे पता है वह सब क्या था। वह मुझे मदद कर रहे थे कि मैं अपने कर्मों का हिसाब चुकाऊं।'' एक बहुत घोर संकट टल गया और शरीर से एक बहुत बड़ा काला तत्व हट गया। आप लोग कल्पना कर सकते हैं, उसका नैतिकगुण बहुत ऊंचे स्तर का था और अलौकिक गुण बहुत अच्छे थे। वह इतनी वृध्द थी, कार बहुत तेजी से आई, वह उसे घसीटती हुई इतनी दूर ले गई इससे पहले कि वह ज़मीन पर ज़ोर से गिरती - फिर भी वह उठ कर सही मनोस्थिति में थी।

कई बार जब विपत्तियां आती हैं तो बहुत भयंकर दिखती हैं - इतना व्याकुल कर देती हैं कि उनसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखता। कदाचित वह स्थिति थोड़े दिनों के लिए बनी रहती है। तभी अचानक एक रास्ता दिखाई देता है और स्थिति एक नया मोड़ लेना आरंभ करती है। वास्तव में, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमने अपने नैतिकगुण को सुधारा है और समस्या प्राकृतिक रूप से समाप्त हो गई है।

आपके मानसिक क्षेत्र में सुधार के लिए, आपको इस संसार में विभिन्न प्रकार की विपत्तियों द्वारा परखा जाना आवश्यक है। यदि आपके नैतिकगुण में वास्तव में सुधार आया है और स्थिर हुआ है, इस क्रम में आपके कर्म निष्कासित होंगे, विपत्तियां निकल जायेंगी और आपके गोंग का विकास होगा। आप हतोत्साहित मत होइए यदि नैतिकगुण परीक्षा के दौरान आप अपने नैतिकगुण का ध्यान रखने में असफल रहते हैं और उचित व्यवहार नहीं कर पाते हैं। आपका पहला कदम यह होना चाहिए कि आप देखें आपने इससे क्या सीखा, खोजें कि आप कहां गलत थे, और ज़न-शान-रेन का संवर्धन करने का प्रयास करें। अगली समस्या जो आपके नैतिकगुण की परीक्षा लेगी उसके बाद जल्द ही आ सकती है। जैसे ही आपके गोंग सामर्थ्य का विकास होगा, अगली विपत्तियों की परीक्षा हो सकता है और शक्तिशाली हो और अचानक ही आ जाए। आपका गोंग सामर्थ्य उतना और उन्नत होगा जितनी बार आप प्रत्येक समस्या को सुलझा पाएंगे। यदि आप उन समस्याओं से उबर नहीं पाते तो आपके गोंग का विकास नहीं होगा। हैं। छोटी परीक्षाओं से छोटे सुधार होते हैं; बड़ी परीक्षाओं से बड़े सुधार होते हैं। मुझे आशा है प्रत्येक अभ्यासी विशाल पीड़ाओं को सहने के लिए तैयार है तथा कष्टों को गले लगाने के लिए उसमें संकल्प और इच्छा शक्ति है। आप प्रयास के व्यय के बिना सच्चा गोंग प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसा कोई सिध्दांत अस्तित्व में नहीं है जो आपको गोंग की प्राप्ति बिना किसी पीड़ा या प्रयास के सरलता से करा दे। आप कभी भी साधना द्वारा ज्ञानप्राप्त व्यक्ति नहीं बन पायेंगे यदि आपका नैतिकगुण मूल रूप से अच्छा नहीं हो जाता। आप अभी भी आसक्तियों से घिरे हैं।

7. दुष्टात्मिक व्यवधान

दुष्टात्मिक व्यवधान वे अभिव्यक्तियां अथवा दृश्य हैं जो कि साधना के दौरान प्रकट होते हैं तथा व्यक्ति के अभ्यास में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। उनका उद्देश्य अभ्यासी को उच्च स्तरों तक साधना करने से रोकना है। अन्य शब्दों में, दुष्टात्माएं ऋण वसूलने आती हैं।

जब भी व्यक्ति उच्च स्तरों के लिए साधना करेगा तो दुष्टात्मिक व्यवधान की समस्या अवश्य उत्पन्न होगी। यह असंभव है कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन-काल में कोई अनुचित कार्य न किया हो, उसी तरह उसके पूर्वजों ने भी अवश्य ही किया होगा, इसे कर्म कहते हैं। किसी व्यक्ति के जन्मजात गुण अच्छे हैं अथवा नहीं यह दर्शाता है कि वह कितना कर्म अपने साथ ढो रहा है। हालांकि वह एक अच्छा व्यक्ति है परन्तु फिर भी यह असंभव है कि वह कर्म से मुक्त होगा। आपको इसका कभी बोध नहीं सकता क्योंकि आप साधना नहीं करते। दुष्टात्माएं चिन्ता नहीं करेंगी यदि आप अभ्यास केवल रोग को दूर करने अथवा स्वास्थ्य को उत्ताम बनाने के लिए करते हैं। परन्तु यदि आपने उच्च स्तरों के लिए साधना आरम्भ की तो वे अवश्य आपको परेशान करेंगी। वे अलग-अलग तरीके इस्तेमाल कर आपको परेशान कर सकती हैं, जिनका उद्देश्य आपको उच्च स्तरों के लिए साधना करने से रोकना तथा आपको आपके अभ्यास में असफल करना है। दुष्ट आत्माएं अपने आपको अनेक रूपों में अभिव्यक्त करती हैं। कुछ अपने आपको दैनिक दिनचर्या की घटनाओं के रूप में अभिव्यक्त करती हैं। जबकि अन्य, दूसरे आयामों से होने वाली घटनाओं का रूप लेती हैं। जब भी आप ध्यान के लिए बैठते हैं तो वे वस्तुओं को प्रभावित कर आपको बाधा पहुंचाती हैं, आपके लिए शान्ति अवस्था में प्रवेश करना तथा उच्च स्तरों के लिए साधना करना असंभव कर देती हैं। कभी- कभी जैसे ही आप ध्यान के लिए बैठते हैं आपको नींद आने लगेगी अथवा हर तरह के विचार आपके मन में आने लगेंगे, तथा आप साधना अवस्था में प्रवेश नहीं कर पाएंगे। अन्य समय में, जैसे ही आप क्रियाएं करना आरम्भ करेंगे, आपके आसपास का वातावरण जो अब शान्त था विभिन्न प्रकार के शोर से भर जाएगा जैसे किसी के पैरों की आवाज, दरवाजे भिड़ने की आवाज, कार हॉर्न, टेलीफोन की घन्टी तथा अनेक अन्य प्रकार की बाधाएं होंगी, जो आपका शान्त होना असंभव कर देंगी।

एक अन्य प्रकार की दुष्टआत्मा है वासना की। एक खूबसूरत औरत अथवा आदमी, अभ्यासी के समक्ष उसकी ध्यान अवस्था अथवा स्वप्न में प्रकट हो सकते हैं। वे उत्तोजित करने वाली भाव-भंगिमाएं बनाकर आपको बहकाएगें तथा लुभाएगें जिससे वासना के प्रति आपकी आसक्ति उत्पन्न होगी। यदि आप इसे पहली बार में परास्त नहीं कर पाए, तो यह धीरे-धीरे तीव्र होता रहेगा तथा लगातार आपको बहकाता रहेगा, जब तक आप उच्च स्तर पर साधना का विचार नहीं त्याग देते। इस परीक्षा में सफल होना कठिन है, तथा कुछ अभ्यासी इसी कारणवश असफल हो चुके हैं। मैं आशा करता हूं कि आप मानसिक रूप से इसके लिए तैयार हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने नैतिकगुण की रक्षा सही तरीके से नहीं करता है तथा इस परीक्षा में प्रथम बार असफल रहता है, तो उसे इससे अवश्य ही सबक सीखना चाहिए। यह परीक्षा फिर आएगी तथा आपको कई बार बाधा पहुंचाएगी जब तक की आप वास्तविकता में अपने नैतिकगुण को कायम रखने योग्य नहीं हो जाते तथा इस आसक्ति को पूरी तरह खत्म नहीं कर देते। यह एक बड़ी रूकावट है, जिसे आपने अवश्य पराजित करना है, अन्यथा आप ताओ प्राप्त करने व साधना में सफल होने में असमर्थ रहेंगे।

एक अन्य प्रकार की दुष्टआत्मा और है जो स्वयं को, क्रियाएं करते समय अथवा स्वप्न में प्रकट करती है। कुछ व्यक्ति अचानक कुछ भयानक चेहरे देखता हैं जो बदसूरत तथा वास्तविक हैं, अथवा आकृतियां जिन्होंने चाकू पकड़े हुये हैं तथा जान से मार देने के लिए धमका रही हैं। परन्तु वे केवल लोगों को डरा सकते हैं। यदि वे वास्तविकता में चाकू घोपने की कोशिश करते, तब भी अभ्यासी को छूने में कामयाब नहीं हो पाते क्योंकि गुरु ने अभ्यासी के शरीर के चारों ओर एक सुरक्षा आवरण स्थापित किया हुआ है जिससे वह सकुशल रहे। वे व्यक्ति को डराने की कोशिश करते हैं जिससे वह साधना करना छोड़ दे। यह केवल एक विशेष स्तर पर अथवा विशेष समयावधि के दौरान प्रकट होते हैं तथा शीघ्र ही गुजर जाएंगे - कुछ दिनों में, एक सप्ताह में, अथवा कुछ सप्ताहों में। यह सब निर्भर करता है कि आपका नैतिकगुण कितना उच्च है तथा आप इस मामले को किस तरह लेते हैं।

8. जन्मजात गुण तथा ज्ञान प्राप्ति का गुण

'जन्मजात गुण' उस श्वेत पदार्थ को कहते हैं जो एक व्यक्ति जन्म के समय अपने साथ लेकर आता है। वास्तविकता में यह सदगुण है - एक साकार पदार्थ। जितनी अधिक मात्रा में आप यह पदार्थ अपने साथ लाते हैं उतने ही ज्यादा अच्छे आपके जन्मजात गुण होते हैं। अच्छे जन्मजात गुण युक्त व्यक्ति आसानी से अपने वास्तविक स्वरूप में पहुंच सकते हैं तथा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उनके विचारों में कोई रूकावट नहीं है। एक बार वे चीगोंग अथवा साधना संबंधित बातों के बारे में सुनते हैं तो तत्काल उत्साह दिखाते हैं तथा उसे समझने के लिए संकल्पित हो जाते हैं। वे ब्रह्माण्ड से जुड़ सकते हैं। यह बिल्कुल ऐसा है जैसा कि लाओ जी ने कहा है कि ''जब एक समझदार व्यक्ति ताओ सुनता है तो वह परिश्रम के साथ इसका अभ्यास करेगा। जब एक सामान्य व्यक्ति इसे सुनता है तो वह कभी इसका अभ्यास करेगा कभी नहीं। जब एक मूर्ख व्यक्ति इसे सुनता है तो वह जोर से हंसेगा। अगर वह जोर से नहीं हंसता है तो यह ताओ नहीं है''। वे व्यक्ति जो आसानी से अपने वास्तविक स्वरूप की ओर पहुंच सकते हैं और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, समझदार व्यक्ति हैं। इसके विपरीत, एक व्यक्ति जिसके पास बहुत अधिक काला पदार्थ है और निम्न जन्मजात गुण हैं उसके शरीर के बाहर एक बाढ़ बन जाती है जो उसका अच्छी वस्तुओं को स्वीकार करना नामुमकिन बना देती है। काला पदार्थ उसके सामने आने वाली अच्छी वस्तुओं पर अविश्वास पैदा करवाता है। वास्तविकता में, यह कर्म द्वारा रचाई गई एक भूमिका है।

जन्मजात गुणों पर की गई विवेचना में ज्ञान प्राप्ति गुण के विषय को भी शामिल करना आवयक है। जब हम ज्ञान प्राप्ति की बात करते हैं, तो कुछ व्यक्ति सोचते हैं कि ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ चतुर व्यक्ति होने के समान है। सामान्य व्यक्ति जिसे 'चतुर' अथवा 'चालाक' कहते हैं वास्तविकता में 'साधना अभ्यास' जिसके बारे में हम बातचीत कर रहे हैं से बहुत दूर है। इस प्रकार के 'चतुर' व्यक्ति अक्सर ज्ञान प्राप्ति सुगमता से प्राप्त नहीं कर सकते। वे केवल व्यवहारिक, भौतिक संसार से ही संबंध रखते हैं जिससे वे किसी के द्वारा अपना लाभ उठाए जाने से बच सकें तथा उन्हें किसी प्रकार का लाभ छोड़ना ना पड़े। विशेष तौर पर, कुछ व्यक्ति जो अपने आपको जानकार, पढ़ा लिखा तथा योग्य समझते हैं, सोचते हैं कि साधना अभ्यास परियों की कहानी जैसा है। साधना अभ्यास करना तथा नैतिकगुण का विकास करना उनके लिए अकल्पनीय है। वे अभ्यासियों को मूर्ख व अन्धविश्वासी समझते हैं। ज्ञान प्राप्ति जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं उसका आशय चतुर बनना न हो कर, मनुष्य की प्रकृति को उसकी वास्तविक प्रकृति की ओर वापस लाना है, तथा उसे अच्छा व्यक्ति बनने तथा ब्रह्माण्ड की प्रकृति के अनुरूप होने की ओर इशारा करना है। एक व्यक्ति के जन्मजात गुण उसके ज्ञान प्राप्ति के गुण को तय करते हैं। यदि व्यक्ति के जन्मजात गुण अच्छे हैं, तो उसके ज्ञान प्राप्ति के गुण के भी अच्छे होने की संभावना रहती है। जन्मजात गुण ज्ञान प्राप्ति के गुण को तय करते हैं, परन्तु ज्ञान प्राप्ति के गुण पूरी तरह जन्मजात गुण के अनुसार ही नहीं होते। आपके जन्मजात गुण चाहे कितने भी अच्छे क्यों न हों, परन्तु आपकी जानने व समझने की क्षमता कम नहीं होनी चाहिए। कुछ व्यक्तियों के जन्मजात गुण बहुत अच्छे नहीं हैं परन्तु फिर भी उनके ज्ञान प्राप्ति के गुण बहुत ही अच्छे हैं और इसी कारण से वे बहुत ऊंचे स्तर तक साधना कर सकते हैं। चूंकि हम सभी संवेदनशील प्राणियों को मुक्ति का मार्ग प्रदान करते हैं, इसलिए हम जन्मजात गुणों को छोड़, ज्ञान प्राप्ति के गुण को देखते हैं। हालांकि आपमें कई नकारात्मक पदार्थ हैं, जब तक आप साधना में विकास के प्रति दृढ़ निश्चयी हैं, आपका यह विचार एक पवित्र विचार है। इस विचार के साथ आपको औरों से बस थोड़ा ही अधिक त्यागने की आवश्यकता है और आप अन्त में ज्ञान को प्राप्त कर लेंगे।

अभ्यासियों के शरीर को शुध्द किया जाता है। गोंग के बनने के पश्चात वे बीमारी को नहीं ग्रहण करते, क्योंकि इस उच्च शक्ति पदार्थ की शरीर में उपस्थिति काले पदार्थ को उपस्थित रहने की आज्ञा नहीं देती। फिर भी कुछ व्यक्ति इस पर विश्वास करने से बिल्कुल मना कर देते हैं और हमेशा सोचते हैं कि वे बीमार हैं। वे शिकायत करते हैं ''मैं इतना बैचेन क्यों हूं?'' हम कहते हैं कि जो आपने प्राप्त किया है वह गोंग है। यह कैसे हो सकता है कि आपको कुछ परेशानी न हो जब आपने इतनी अच्छी वस्तु प्राप्त की है। साधना में एक व्यक्ति को कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ त्याग करना पड़ता है। वास्तविकता में, यह सारी बैचेनी जो कि सतह पर हैं और उसका आपके शरीर पर किसी भी प्रकार का कोई असर नहीं होता। यह बीमारी की तरह जान पड़ता है परन्तु वास्तविकता में यह है नहीं - यह सभी इस पर निर्भर करता है कि आप इस विषय पर जागृत हो सके। अभ्यासियों को न सिर्फ बड़े से बड़े कष्ट को सहने योग्य बनने की आवश्यकता है, परन्तु उनमें अच्छे ज्ञान प्राप्ति के गुण भी होने की आवश्यकता है। कुछ व्यक्ति जब वे परेशानियों से जूझ रहे होते हैं तो वे वस्तुओं को समझने की कोशिश भी नहीं करते। वे अभी भी साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हैं जबकि मैंने उन्हें उच्च स्तर पर शिक्षा दी है व दर्शाया है कि कैसे अपने आपको उच्च स्तर के मापदंड से मापे। यहां तक कि वे अपने आपको साधना अभ्यास के लिए एक सच्चे अभ्यासी की तरह भी प्रस्तुत नहीं कर पाते। न ही वे विश्वास कर पाते हैं कि वे एक ऊंचे स्तर पर होंगे।

ऊंचे स्तरों पर जिसे ज्ञान प्राप्ति कहा जाता है उसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त होना, और यह आकस्मिक ज्ञान प्राप्ति तथा क्रमबध्द ज्ञान प्राप्ति की श्रेणी में रखा जाता है। आकस्मिक ज्ञान प्राप्ति का अर्थ है साधना की संपूर्ण प्रक्रिया को एक बंधित अवस्था में किया जाना। आखिरी क्षण में जब आप साधना प्रक्रिया पूरी कर चुके हैं और आपका 'नैतिकगुण' एक बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है, आपकी सभी अलौकिक सिध्दियां तत्काल खोल दी जाएंगी, आपका त्येनमू एकदम अपने उच्चतम स्तर पर खुल जाएगा, व आपका मन अन्य आयामों के उच्च स्तर के प्राणियों से संपर्क कर सकेगा। तत्काल आप संपूर्ण ब्रह्माण्ड व इसके विभिन्न आयामों तथा ऐकिक स्वर्गों की सच्चाई देख सकेंगे, व उनसे संपर्क कर सकेंगे। तब आप अपनी महान दिव्य शक्तियों का प्रयोग कर सकेंगे। आकस्मिक ज्ञान प्राप्ति का मार्ग सबसे कठिन मार्ग है। समूचे इतिहास में, केवल वही व्यक्ति जिनके जन्मजात गुण बहुत ही अच्छे हैं को ही शिष्य बनाया गया; व इसे उन्हें एकान्त में व्यक्तिगत रूप से प्रदान किया गया। साधारण लोगों के लिए यह असहनीय होगा! जो मार्ग मैंने अपनाया था वह आकस्मिक ज्ञान प्राप्ति का था।/p>

जो वस्तुऐं मैं आप लोगों को प्रदान कर रहा हूं वे क्रमबध्द ज्ञान प्राप्ति से संबंधित हैं। आपकी साधना प्रक्रिया के दौरान अलौकिक सिध्दियां अपने नियत समय पर विकसित होंगी। परन्तु जो अलौकिक सिध्दियां उत्पन्न होंगी, आवश्यक नहीं है कि आपको प्रयोग के लिए उपलब्ध हों, क्योंकि जब तक आपने अपनी 'नैतिकगुण' को एक नियत स्तर तक ऊंचा नहीं किया है तथा आप स्वयं को ठीक तरीके से व्यवहार करने योग्य नहीं पाते हैं, तो आपके लिए गलत कार्य करना आसान होगा। कुछ समय के लिए आप अलौकिक सिध्दियों को प्रयोग में नहीं ला सकेंगे, हालांकि अन्तत: वे आपको उपलब्ध हो जाएंगी। साधना अभ्यास के द्वारा आप धीरे-धीरे अपने स्तर का विकास कर सकेंगे तथा ब्रह्माण्ड की सच्चाई को समझने लगेंगे। फिर आकस्मिक ज्ञान प्राप्ति की तरह ही आप अन्तत: पूर्णता तक पहुंच जाएंगे। क्रमबध्द ज्ञान प्राप्ति का मार्ग कुछ आसान है व इसमें कोई खतरा भी नहीं है। जो मुश्किल इसमें है वह यह है कि आप पूरी साधना प्रक्रिया को देख सकते हैं। अत: जो अपेक्षाएं आप स्वयं से रखते हैं वे और भी अधिक कठोर होनी चाहियें।

9. एक स्पष्ट तथा स्वच्छ मन

कुछ व्यक्ति जब 'चीगोंग ' क्रिया करते हैं तथा शांति अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाते, तब वे कुछ तरीका ढूंढ़ते हैं। कुछ ने मुझसे पूछा : 'मास्टर, मैं जब 'चीगोंग ' क्रिया करता हूं तो शान्त क्यों नहीं हो पातां? क्या आप मुझे एक तरीका अथवा विधि बता सकते हैं, जिससे जब मैं ध्यान में बैठूं तो शान्त हो सकूं? मैं पूछता हूं, आप कैसे शान्त हो सकते हैं। यदि एक देवता भी आ कर आपको तरीका बताए तब भी आप शान्त नहीं हो सकते, क्यों? इसका कारण है कि आपका मन स्पष्ट व स्वच्छ नहीं है। क्योंकि आप इस समाज में रहते हैं, वस्तुऐं जैसे अनेक प्रकार की भावनाएं तथा इच्छाएं, स्वार्थ, व्यक्तिगत विषय, और यहां तक कि मित्रों व पारिवारिक मसलों ने आपके मन को पूरी तरह भरा हुआ है तथा ऊंची प्राथमिकता ले रखी है। आप कैसे शान्त हो सकते हैं जब आप ध्यान में बैठे हैं? यदि आप उन्हें जानबूझ कर दबाएं भी, तब भी वे उठकर सतह पर अपने आप आ जाएंगे।/p>

बुध्द मत की साधना 'शील, समाधी तथा प्रज्ञा' की शिक्षा देती है। शील का अर्थ उन वस्तुओं को जाने देना है जिनसे आप जुड़े हैं। कुछ बौध्द लोग बुध्द के नाम का जाप करने का तरीका अपनाते हैं, जिसमें ध्यानपूर्वक नाम का जाप करने की आवश्यकता होती है ताकि वह स्थिति जिसमें ''एक विचार हजारों विचारों का स्थान ले सके'' हासिल की जा सके। परन्तु यह सिर्फ एक प्रकार का तरीका ही नहीं, वरन् एक प्रकार की सिध्दि है। यदि आपको इस पर विश्वास न हो तो आप जाप कर के देख सकते हैं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि अन्य वस्तुऐं आपके मन में अवश्य ही उठेंगी जब आप अपने मुंह का प्रयोग बुध्द के नाम के जाप के लिए करेंगे। तिब्बत तंत्र विद्या में पहली बार लोगों को सिखाया गया कि कैसे बुध्द के नाम का जाप किया जाए; एक व्यक्ति को बुध्द के नाम का जाप एक सप्ताह तक प्रतिदिन लाखों बार करना होगा। वे तब तक दोहराएंगे जब तक कि उन्हें चक्कर न आ जाएं और अन्त में उनके मन में कुछ भी न बचे। उस एक विचार ने अन्य सभी का स्थान ले लिया। यह एक तरह की योग्यता है जिसे शायद आप न कर पाएं। कुछ अन्य तरीके भी हैं जो सिखाते हैं कि कैसे अपने तानत्येन पर अपना मन केन्द्रित करें, कैसे गिनती करें, कैसे अपनी आंखें वस्तुओं पर ठहराएं, इत्यादि। सच्चाई में, इनमें से कोई भी तरीका आपको पूर्ण शान्ति में प्रवेश नहीं दिला सकता। अभ्यासी को एक स्पष्ट तथा स्वच्छ मन प्राप्त करना होगा, स्वार्थ के प्रति अपने पूर्वाग्रह को खत्म करना होगा, तथा लोभ को अपने हृदय से जाने देना होगा।

आप स्थिरता तथा शान्ति में प्रवेश कर पाते हैं वास्तव में यह आपकी सिध्दि तथा स्तर को दर्शाता है। बैठते ही शान्ति में प्रवेश करना बताता है कि आपका स्तर बहुत ऊंचा है। तब भी ठीक है यदि अभी कुछ समय आप शान्त न हो पाएं - आप साधना के द्वारा धीरे-धीरे इसे प्राप्त कर सकते हैं। आपके नैतिकगुण में धीरे-धीरे सुधार होता है, इसी प्रकार आपके गोंग में भी। आपका गोंग कभी विकसित नहीं होगा, यदि आप स्वार्थ व अपनी इच्छाओं को महत्व देना कम नहीं करते।

अभ्यासियों को सदैव अपने आपको ऊंचे आदर्शों पर स्थापित रखना होगा। अभ्यासी लगातार हर प्रकार की जटिल सामाजिक घटनाओं, कई अभद्र तथा हानिकर वस्तुओं, कई प्रकार की भावनाओं तथा इच्छाओं के व्यवधा में रहते हैं। वस्तुऐं जो टी.वी., फिल्मों तथा साहित्य में प्रोत्साहित की जाती हैं आपको साधारण आदमी के मध्य मजबूत बनना तथा व्यवहारिक बनना सिखाती हैं। यदि आप इन वस्तुओं से आगे नहीं बढ़ पाए तो आप अभ्यासी के नैतिकगुण तथा मानसिक स्तर से और दूर हो जाएंगे और आप कम गोंग प्राप्त कर पाएंगे। अभ्यासी का इस अभद्र तथा हानिकर वस्तुओं से बहुत कम अथवा कोई भी वास्ता नहीं होना चाहिए। इनके प्रति उन्हें अपनी आंख व कान बन्द कर लेने चाहिए, तथा वस्तुओं और लोगों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। मैं अक्सर कहता हूं कि साधारण लोगों के मन मुझे नहीं प्रभावित कर सकते। मैं खुश नहीं होता जब कोई मेरी प्रशंसा करता है, और न ही दुखी होता हूं यदि कोई मेरा अपमान करता है। मैं अप्रभावित रहता हूं चाहे साधारण लोगों के नैतिकगुण में कितनी भी गंभीर रूकावट आए। अभ्यासियों को हर प्रकार के व्यक्तिगत लाभ को हल्केपन से लेना चाहिए तथा उनकी परवाह भी नहीं करनी चाहिए। केवल तभी आपके ज्ञान प्राप्त करने के प्रति संकल्प को परिपक्व समझा जाएगा। यदि आप प्रसिध्दि तथा व्यक्तिगत लाभ की प्रबल इच्छा के बिना रह सकें और यहां तक की उन्हें महत्वहीन समझें, आप परेशान अथवा दुखी नहीं होंगे और आपका हृदय हमेशा शांत रहेगा। एक बार आप सभी चीज़ों को जाने दें, तब आप सहज ही स्पष्ट व स्वच्छ मन को प्राप्त कर लेंगे।

मैंने आपके दाफा तथा क्रियाओं के पांच संग्रह समझाए हैं। मैंने आपके शरीर को व्यवस्थित किया है तथा उनमें फालुन व शक्ति तन्त्र स्थापित किए हैं। मेरे धर्म शरीर आपकी रक्षा करेंगे। वह सब कुछ जो आपको दिया जाना था आपको दिया जा चुका है। कक्षा के दौरान यह मेरे ऊपर निर्भर था। इससे आगे अब यह आप पर निर्भर है। ''गुरु आपको साधना के द्वार तक ले गया है, परन्तु आगे साधना जारी रखना आप पर निर्भर है''। जब तक आप दाफा को अच्छी तरह सीखेंगे, ध्यानपूर्वक महसूस करेंगे व समझेंगे, हर क्षण अपने नैतिकगुण पर ध्यान रखेंगे, परिश्रम पूर्वक साधना करेंगे, कठिनतम पीड़ा को सह सकेंगे, तथा बड़े से बड़े दुर्भाग्य में सहनशील रहेंगे, मैं विश्वास करता हूं कि आप अपनी साधना में अवश्य कामयाब होंगे।

गोंग की साधना का मार्ग व्यक्ति के हृदय में स्थित है।
असीमित दाफा को पार करने वाली नौका कठिनाइयों पर तैरती है।


[1] लाओ ज़ - ताओ ते चिंग के लेखक, तथा उन्हें ताओ मत का जन्मदाता भी माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि वे चौथी ई. र्पू. रहे।

[2] आह क्यू - चीनी साहित्य में एक मूर्ख पात्र!

[3] हान शिन - एक मुख्य सेनापति जिसने ल्यू बांग (हा साम्राज्य 206 बी.सी. - 23 ए.डी.) के राज्य काल में कार्य किया।