हमारे देश (चीन) में, चीगोंग[1] का प्राचीन इतिहास रहा है, क्योंकि यह पुरातन काल से चला आ रहा है। इस प्रकार हमारे लोगों के लिए चीगोंग अभ्यास करना प्राकृतिक रूप से सहन है। चीगोंग साधना की दो विचारधाराओं, बुध्द विचारधारा और ताओ विचारधाराओं ने, एकांत में सिखाये जा रही अनेक महान साधना प्रणालियों को सार्वजनिक कर दिया है। ताओ विचारधारा की साधना की विधियां बहुत अनोखी हैं, जबकि बुध्द विचारधारा की अपनी साधना प्रणालियां हैं। फालुन गोंग[2] बुध्द विचारधारा की एक उत्कृष्ट साधना प्रणाली है। इन व्याख्यान कक्षाओं में, मैं पहले आपके शरीर को उच्च साधना के लिए उपयुक्त अवस्था तक लाने के लिए व्यवस्थित करूंगा और उसके उपरान्त आपके शरीर में एक फालुन[3] और शक्ति यन्त्रों की स्थापना करूंगा। मैं आपको हमारी क्रियाऐं भी सिखाऊंगा। इन सबके अतिरिक्त, मेरे पास धर्म शरीर (फाशन) हैं जो आपकी रक्षा करेंगे। किन्तु आपके पास केवल इन्हीं वस्तुओं का होना अपर्याप्त हैं, क्योंकि इनसे गोंग[4] के विकास का लक्ष्य पूर्ण नहीं होगा - यह आवश्यक है कि आप उच्च स्तरों पर साधना के सिध्दान्तों को भी समझ लें। यही इस पुस्तक में बताया जायेगा।
मैं उच्च स्तरों की अभ्यास प्रणाली सिखा रहा हूं, इसलिए मैं किसी विशेष नाड़ी[5], एक्यूपंक्चर बिन्दु या शक्ति मार्ग की साधना की बात नहीं करूंगा। मैं एक महान साधना मार्ग सिखा रहा हूं, उच्च स्तरों की ओर सच्ची साधना के लिए महान मार्ग। आरंभ में यह अविश्वसनीय लग सकता है। किन्तु जो चीगोंग का अभ्यास करने, खोज और अनुभव करने के लिए संकल्पित हैं, वे इसमें सभी आश्चर्य और गहनताओं का दर्शन करेंगे।
1. चीगोंग की उत्पत्ति
जिसे हम आज चीगोंग कहते हैं, वास्तव में पहले चीगोंग नहीं कहलाता था। इसकी उत्पत्ति प्राचीन चीनी लोगों द्वारा एकान्त में की जाने वाली साधना विधियों और धर्मों में निहित
साधना से हुई। दो अक्षर वाले शब्द ची गोंग था तानज़िंग, ताओ ज़ांग[6] या त्रिपिटक[7] में कहीं उल्लेख नहीं है। हमारी वर्तमान मानव सभ्यता के विकास क्रम में,
चीगोंग उस काल से चला आ रहा है जब धर्म अपरिपक्व अवस्था में थे। इसका आस्तित्व उस समय भी था जब धर्मों की स्थापना हुई थी। धर्मों की स्थापना के बाद, इस पर भी धार्मिक प्रभाव पड़ा।
चीगोंग के मूल नाम थे बुध्द का महान साधना मार्ग और ताओ का महान साधना मार्ग।
इसके कुछ और भी नाम थे, जैसे नौ स्तरीय आंतरिक क्रिया, अरहत का मार्ग[8], वज्र का ध्यान, आदि। वर्तमान में हम इसे चीगोंग कहते हैं जिससे यह हमारी आधुनिक विचारधारा से मेल खा सके और समाज में सरलता से प्रचलित हो सके । चीगोंग सही अर्थ में चीन में उपलब्ध पध्दति है जिसका एकमात्र उद्देश्य मानव शरीर का संवर्धन है।
चीगोंग का आविष्कार इस सभ्यता द्वारा नहीं हुआ था। इसका बहुत प्राचीन इतिहास है जो सुदूर काल तक जाता है। तो, चीगोंग कब अस्तित्व में आया? कुछ लोगों का मानना है कि चीगोंग का इतिहास तीन हजार वर्ष पुराना है और यह तांग राजवंश[9] में बहुत लोकप्रिय था। कुछ कहते हैं कि इसका इतिहास पांच हजार वर्ष पुराना है और यह चीनी सभ्यता के बराबर प्राचीन है। कुछ लोग पुरातत्व अवशेषों के अध्ययन के बाद कहते हैं, इसका इतिहास सात हजार वर्ष तो अवश्य है। मेरा मत है कि चीगोंग का आविष्कार आधुनिक मानव समाज ने नहीं किया - यह पूर्व इतिहास की संस्कृति है। आलौकिक शक्तियों के स्वामी व्यक्तियों की खोज के अनुसार, जिस विश्व में हम रहते हैं वह नौ बार विस्फोट होकर पुन:स्थापित हुआ है। जिस ग्रह पर हम रहते हैं कई बार नष्ट हुआ है। जब जब यह ग्रह पुन:स्थापित हुआ, मनुष्य जाति की संख्या में हर बार वृध्दि हुई। वर्तमान में, हम यह खोज कर चुके हैं कि पृथ्वी पर कई वस्तुएं हैं जो हमारी वर्तमान सभ्यता से पहले की हैं। डार्विन के क्रम विकास के नियम के अनुसार, मनुष्यों की उत्पत्ति बंदरों से हुई, और हमारी सभ्यता दस हजार वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं है। जबकि पुरातत्व खोजों से यह प्रकट हुआ है कि यूरोप के ऐल्पस की गुफाओं में 250 हजार वर्ष पुराने भित्ती चित्र बने हैं जो बहुत उत्कृष्ट स्तर की कला दर्शाते हैं - जो आधुनिक मानव योग्यता से भी परे हैं। पेरू के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के संग्रहालय में एक बड़ी चट्टान है जिसमें एक उकेरी हुई मानव आकृति है जो हाथ से दूरबीन लेकर नक्षत्रों का निरीक्षण कर रही है। यह आकृति तीस हजार वर्ष से अधिक प्राचीन है। जैसा कि हम जानते हैं, गैलिलियो ने 1609 में 30x की एक दूरबीन का आविष्कार किया था, केवल तीन सौ वर्ष पहले। तीस हजार वर्ष पूर्व दूरबीन कैसे हो सकती थी? भारत में एक लौह स्तम्भ है जिसमें लोहे की मात्रा 99 प्रतिशत से भी अधिक है। आधुनिक तकनीक से भी इतने शुध्द स्तर का लोहा नहीं बन सकता; इसका स्तर आधुनिक तकनीक से अधिक उत्कृष्ट है। इन सभ्यताओं की रचना किसने की? कैसे वे मानव - जो उस काल में सूक्ष्म जीवधारी रहे होंगे - इनको उत्पन्न कर सके? इन खोजों ने विश्वभर के वैज्ञानिकों का ध्यान खींचा है। इन्हें पूर्व इतिहास की संस्कृति माना जाता है क्योंकि इन्हें समझा नहीं जा सका है।
प्रत्येक काल में विज्ञान का स्तर भिन्न-भिन्न रहा है। कुछ काल में यह बहुत ऊंचा था, हमारी आधुनिक मानवता से भी अधिक। किन्तु वे सभ्यताऐं नष्ट हो गईं। इसलिए, मैं कहता हूं कि चीगोंग का आविष्कार या रचना आधुनिक मानव ने नहीं की, बल्कि उन्होंने इसका पता लगाया और इसे पूर्ण किया। यह पूर्व इतिहास की संस्कृति से आया है।
चीगोंग केवल हमारे देश की देन नहीं है। यह विदेशों में भी प्रचलित है, किन्तु वे इसे चीगोंग नहीं कहते। पश्चिमी देश, जैसे अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन आदि, इसे जादू कहते हैं। डेविड कोपरफील्ड जो अमरीका का एक जादूगर है, आलौकिक सिध्दियों का स्वामी है, उसने एक बार चीन की महान दीवार में से भेद कर निकलने का प्रदर्शन किया। जब वह दीवार में से गुजरने वाला था तब एक सफेद कपड़े से अपने को ढ़क लिया, वह दीवार के साथ सटा और दूसरी ओर से निकल गया। उसने ऐसा क्यों किया? इस प्रकार दर्शकों ने सोचा कि यह एक जादू के खेल का प्रदर्शन था। इसे इस प्रकार किया जाना आवश्यक था क्योंकि वह जानता था कि चीन में बहुत से लोग आलौकिक सिध्दियों के स्वामी हैं। उसे उनके हस्तक्षेप का भय था, इसलिए उसने बाहर आने से पूर्व अपने आप को ढ़क लिया था। बाहर आने से पहले, उसने एक हाथ से कपड़ा उठाया और निकल आया। जैसे कि लोकोक्ति है, "विशेषज्ञ छल के लिए देखते हैं जबकि साधारण लोग रोमांच के लिए"। इस प्रकार, दर्शकों ने सोचा कि यह एक जादू का खेल था। इन आलौकिक शक्तियों को जादू कहा जाता है क्योंकि उनका प्रयोग शरीर की साधना के लिए नहीं किया जाता, बल्कि मनोरंजन के लिए मंच प्रदर्शन करने और चमत्कार दिखाने के लिए किया जाता है। निचले स्तर पर, चीगोंग मनुष्य के शरीर की अवस्था में बदलाव ला सकता है तथा स्वास्थ्य और आरोग्य के ध्येय को प्राप्त कर सकता है। उच्च स्तर की दृष्टि से, चीगोंग का ध्येय "बनती"[10] की साधना से है।
2. ची और गोंग
आज जिसे हम ची[11] कहते हैं प्राचीनकाल में वह ची[12] कहलाता था। दोनों शब्द आवश्यक रूप से एक ही हैं, क्योंकि दोनों का प्रसंग विश्व की ची से है - एक निराकार, अदृश्य पदार्थ जो पूरे विश्व में फैला है। ची का प्रसंग वायु से नहीं है। इस पदार्थ की शक्ति मानव शरीर में साधना अभ्यास से जागृत होती है। इसकी सक्रियता शरीर की भौतिक अवस्था में बदलाव लाती है और इसका प्रभाव स्वास्थ्य और आरोग्य के लिए हो सकता है। फिर भी ची केवल ची है आपके पास ची है, उसके पास ची है, और एक व्यक्ति की ची का दूसरे की ची पर कल्याणकारी प्रभाव नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं कि ची से रोग दूर हो सकते हैं, या आपके द्वारा दूसरे व्यक्ति की ओर निष्कासित ची से उसके रोग का निदान हो सकता है। ये व्यक्तव्य बिल्कुल अवैज्ञानिक है, क्योंकि ची रोगों को दूर नहीं कर सकती। जब तक एक अभ्यासी के शरीर में ची है, इसका अर्थ है कि उसका शरीर अभी दुग्ध श्वेत शरीर नहीं हुआ है। अर्थात, अभ्यासी अभी भी रोग धारण किए हुए है।
एक व्यक्ति जब साधना से उच्च सिध्दियां अर्जित कर लेता है वह ची निष्कासित नहीं करता। बल्कि, वह उच्च शक्ति का पुंज निष्कासित करता है। यह उच्च शक्ति तत्व है जो प्रकाश के रूप में प्रकट होता है, और इसके कण महीन होते हैं और इसका घनत्व अधिक होता है। यह गोंग है। केवल इसी का साधारण लोगों पर कल्याणकारी प्रभाव हो सकता है, और केवल इसी से दूसरों के रोग दूर किए जा सकते हैं। एक कहावत है, ''बुध्द का प्रकाश सर्वव्यापी है और सभी विकारों को दूर करता है।'' इसका अर्थ है कि जो सच्ची साधना करते हैं उनके शरीर में अत्यधिक शक्ति समाहित होती है। जहां कहीं ऐसे व्यक्ति जाते हैं, उनकी शक्ति से प्रभावित क्षेत्र में कोई भी अप्राकृतिक दशा ठीक हो सकती है और अपनी प्राकृतिक दशा में वापस आ जाता है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के शरीर में रोग का होना वास्तव में एक अप्राकृतिक शारीरिक दशा है तथा इस दशा के ठीक होते ही रोग स्वयं लुप्त हो जाएगा। सरल शब्दों में कहा जाए तो, गोंग शक्ति है। गोंग के भौतिक लक्षण होते हैं, और अभ्यासी साधना द्वारा इसके वस्तुनिष्ठ अस्तित्व का अनुभव और भास कर सकते हैं।
3. गोंग सामर्थ्य और आलौकिक सिध्दियां
(1) गोंग सामर्थ्य नैतिकगुण की साधना से विकसित होता है
गोंग जो वास्तव में किसी व्यक्ति के गोंग सामर्थ्य (गोंगली) का स्तर निर्धारित करता है, चीगोंग क्रियाओं के अभ्यास से विकसित नहीं होता। इसका विकास "सद्गुण" नामक पदार्थ के परावर्तन से होता है, और नैतिकगुण[13] की साधना से होता है। यह परावर्तन प्रक्रिया "एकत्रित औषधियों को भट्टी में तपा कर 'तान'[14] संवर्धन करने"[15] से पूर्ण नहीं होती, जैसा कि साधारण लोग सोचते हैं। गोंग जिसकी हम बात कर रहे हैं शरीर के बाहर उत्पन्न होता है, और यह शरीर निचले आधे भाग से आरंभ होता है। व्यक्ति के नैतिकगुण में सुधार होने के पश्चात, यह चक्राकार रूप में ऊपर की ओर बढ़ता है और पूरी तरह शरीर के बाहर बनता है। सहस्रार (सर की चोटी) तक पहुंचने के बाद यह एक गोंग स्तंभ का आकार ले लेता है। इस गोंग स्तंभ की ऊंचाई उस व्यक्ति के गोंग का स्तर दर्शाती है। गोंग स्तंभ एक गहरे आयाम में छिपा होता है, साधारण व्यक्ति इसे नहीं देख सकता।
अलौकिक सिध्दियां गोंग सामर्थ्य से सुदृढ़ होती हैं। जितना ऊंचा एक व्यक्ति का गोंग सामर्थ्य और स्तर होते हैं, उतनी ही महान उसकी अलौकिक सिध्दियां होती हैं और प्रयोग में उतनी ही सरल होती हैं। कम गोंग सामर्थ्य वाले लोगों की अलौकिक सिध्दियां क्षीण होती हैं, उनके लिए उन्हें प्रयोग कर पाना कठिन होता है, और कुछ पूर्णत: अनुपयोगी होती हैं। अलौकिक सिध्दियां स्वयं में न तो व्यक्ति के गोंग सामर्थ्य का स्तर दर्शाती हैं औन न ही उसकी साधना का स्तर। वास्तविक स्तर गोंग सामर्थ्य निर्धारित करता है, न कि अलौकिक सिध्दियां। कुछ लोग ''बधिंत'' अवस्था में साधना करते हैं, जहां उनका गोंग सामर्थ्य तो ऊंचा होता है किन्तु यह आवश्यक नहीं कि उन्हें अनेक अलौकिक सिध्दियां भी प्राप्त हों। गोंग सामर्थ्य निर्णायक पहलू है, यह नैतिकगुण साधना से विकसित होता है, और सबसे आवश्यक है।
(2) साधक अलौकिक सिध्दियों का अनुसरण नहीं करते
सभी अभ्यासी अलौकिक सिध्दियों का ध्यान रखते हैं। अलौकिक सिध्दियां जनमानस को आकर्षित करती हैं और कई लोग उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। किन्तु अच्छे नैतिकगुण के अभाव में अलौकिक सिध्दियां प्राप्त नहीं हो सकतीं।
कुछ अलौकिक सिध्दियां जो साधरण लोगों को प्राप्त हो सकती हैं जैसे त्येनमू (तीसरा नेत्र), दूर श्रव्यता, दूर दृष्टि, पूर्व आभास, आदि हैं। किन्तु क्रमबध्द ज्ञान प्राप्ति के स्तरों के दौरान इनमें से सभी अलौकिक सिध्दियां प्रकट नहीं होंगी, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव भिन्न होता है। साधारण व्यक्तियों के लिए कुछ विशिष्ट अलौकिक सिध्दियां प्राप्त करना असंभव है, जैसे इस आयाम में एक प्रकार के पदार्थ को दूसरे पदार्थ में परावर्तित करना - यह सिध्दि साधारण व्यक्तियों के पास नहीं हो सकती। महान अलौकिक सिध्दियां जन्म के बाद केवल साधना द्वारा ही विकसित की जाती हैं। फालुन गोंग ब्रह्माण्ड के सिध्दान्तों के आधार पर विकसित किया गया था, इसलिए सभी अलौकिक सिध्दियां जो ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं फालुन गोंग में भी हैं। यह सब अभ्यासी पर निर्भर करता है वह कैसे साधना करता है। कुछ अलौकिक सिध्दियों को प्राप्त करने का विचार अनुचित नहीं माना जाता। किन्तु, अत्याधिक तीव्र अनुसरण साधारण विचार से अधिक है और इससे अनुचित परिणाम प्राप्त होंगे। किसी व्यक्ति के लिए निम्न स्तर पर अलौकिक सिध्दियां प्राप्त करना जरा भी लाभदायक नहीं है, केवल वह इन्हें साधारण लोगों में प्रदर्शन करने और स्वयं को अधिक शक्तिशाली दिखाने के लिए प्रयोग करेगा। यदि ऐसा है, तो यह यही दर्शाता है कि उस व्यक्ति का नैतिकगुण ऊंचा नहीं है और उसे अलौकिक सिध्दियां प्रदान करना उचित नहीं है। कुछ अलौकिक सिध्दियां यदि कम नैतिकगुण वाले लोगों के हाथ लग जाएं तो उनका प्रयोग अनुचित कार्यों के लिए हो सकता है। क्योंकि उन लोगों का नैतिकगुण स्थिर नहीं है, इसलिए निश्चित नहीं कहा जा सकता कि वे कोई अनुचित कार्य नहीं करेंगें।
दूसरी ओर, कोई अलौकिक सिध्दि जिसका प्रदर्षन अथवा दिखावा किया जा सकता है वह न तो मानव समाज में कोई बदलाव ला सकती है और न ही साधारण जीवन में परिवर्तन ला सकती है। वास्तविक ऊंचे स्तर की अलौकिक सिध्दियों के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं है, क्योंकि इसका परिणाम और खतरा बहुत अधिक होगा; उदाहरण के लिए, किसी विशाल भवन को गिराने का प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। महान अलौकिक सिध्दियों के प्रयोग की अनुमति विशेष ध्येय वाले व्यक्तियों के अतिरिक्त औरों को नहीं है, और न ही इनको दिखाया जा सकता है; यह इसलिए क्योंकि उच्च स्तर के गुरु ऐसा नहीं करने देंगे।
किन्तु फिर भी, कुछ साधारण लोग चीगोंग गुरुओं से प्रदर्शन के लिए हठ करते हैं, और उन्हें अलौकिक सिध्दियां दिखाने के लिए मज़बूर कर देते हैं। अलौकिक सिध्दि प्राप्त लोग उनका प्रयोग प्रदर्शन के लिए नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्हें इसकी मनाही है; इनके प्रदर्शन से पूरे समाज की स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। महान सिध्दि वाले लोगों को इनके सार्वजनिक प्रदर्शन की मनाही है। कुछ चीगोंग गुरु प्रदर्शन के बाद बहुत विचलित और उदास अनुभव करते हैं। उन्हें प्रदर्शन के लिए मज़बूर मत कीजिए! उनके लिए इन सिध्दियों का प्रदर्शन दुखदायी होता है। एक शिष्य मेरे पास एक पत्रिका लाया। जब मैंने इसे पढ़ा तो मैं कुछ क्षण के लिए विचलित हो गया। इसमें एक अंतर्राष्ट्रीय चीगोंग सम्मेलन का उल्लेख था। अलौकिक सिध्दियों वाले लोगों के लिए एक प्रतियोगिता थी, और सम्मेलन में सभी अलौकिक सिध्दि वाले लोगों के लिए आमन्त्रण था। इसे पढ़ने के बाद मुझे कई दिनों तक खराब लगा। अलौकिक सिध्दियों का प्रयोजन किसी प्रतियोगिता में सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं है - उनका सार्वजनिक प्रदर्शन खेदजनक है। साधारण लोगों की दृष्टि इस साधारण संसार में केवल भोग-विलास की वस्तुओं में रहती है, किन्तु चीगोंग गुरुओं को सम्मानपूर्वक रहना चाहिए।
अलौकिक सिध्दियों को प्राप्त करने की चाहत के पीछे क्या उद्देश्य है? उनकी चाह एक साधक की मनोवृत्ति और पीछे पड़ने की प्रवृत्ति को दर्शाती है। अपवित्र प्रवृत्तियों और अस्थिर मन के साथ कोई व्यक्ति महान अलौकिक सिध्दियों को प्राप्त नहीं कर सकता। यह इस कारण है क्योंकि पूर्ण ज्ञान प्राप्ति से पहले, जो आपको भले और बुरे का आभास होता है वह इस संसार के मानदण्डों पर आधारित है। न तो आप वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति को देख सकते हैं और न ही उनके बीच के कर्म संबंधों को। लोगों के बीच लड़ाई झगड़ा, दोषारोपण और दुर्व्यवहार, कर्म संबंधों के कारण ही होता है। यदि आपको इसका आभास नहीं है तो मदद के स्थान पर आप केवल विवाद ही बढ़ाएंगे। साधारण लोगों का संतोष तथा असंतोष, उचित अथवा अनुचित, इस संसार के नियमों द्वारा संचालित है; अभ्यासियों को इनसे चिन्ता नहीं होनी चाहिए। जब तक आपको पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता, जो आप अपनी आंखों से देखते हैं, आवश्यक नहीं कि सत्य हो। जब एक व्यक्ति दूसरे पर प्रहार करता है, तो यह हो सकता है कि वे अपना कर्म ऋण निबटा रहे हों। हो सकता है आपका हस्तक्षेप उनके ऋण निबटान में बाधा डाले। कर्म एक प्रकार का काला तत्व है जो मनुष्य के शरीर को घेरे रहता है। इसका भौतिक अस्तित्व दूसरे आयाम में होता है और यह रोग अथवा दुर्भाग्य में परावर्तित हो सकता है।
अलौकिक सिध्दियां सभी में विद्यमान होती हैं, मुख्य बात यह है कि उन्हें सतत साधना द्वारा विकसित और सुदृढ़ करने की आवश्यकता होती है। यदि, एक अभ्यासी होते हुए, एक व्यक्ति केवल अलौकिक सिध्दियों को प्राप्त करने की प्रवृत्ति रखता है, तो वह अबूझ और मन से अपवित्र है। वह अलौकिक सिध्दियों को किसी भी उद्देश्य के लिए प्राप्त करना चाहता हो, उसके पीछे पड़ने की प्रवृत्ति में स्वार्थ के अंश हैं जो अवश्य ही उसकी साधना में बाधा डालेंगे। फलस्वरूप, वह कभी भी अलौकिक सिध्दियां प्राप्त नहीं कर पायेगा।
(3) गोंग सामर्थ्य की संभाल
कुछ अभ्यासियों को अभ्यास करते हुए अधिक समय नहीं हुआ है, फिर भी वे दूसरे लोगों का रोग उपचार यह देखने के लिए करना चाहते हैं कि वे कितने प्रभावी हैं। आप में से वे लोग जिनका गोंग सामर्थ्य बहुत ऊंचा नहीं है जब अपना हाथ बढ़ा कर प्रयत्न करते हैं, तो आप रोगी के शरीर में विद्यमान काली, रोगग्रस्त, गंदी ची को बहुत सी मात्रा में अपने शरीर में सोख लेते हैं। क्योंकि आपके पास रोगग्रस्त ची को रोकने की योग्यता नहीं है और आपके शरीर के पास अभी सुरक्षा कवच भी नहीं है, आप रोगी के साथ सांझा ऊर्जा क्षेत्र बना लेते हैं। आप ऊंचे गोंग सामर्थ्य के अभाव में रोगग्रस्त ची से रक्षा नहीं कर सकते। फलस्वरूप, आप बहुत तकलीफ अनुभव करेंगे। यदि कोई आपकी संभाल नहीं करता है, समय के साथ आप अपने पूरे शरीर में रोग एकत्रित कर लेंगे। इसलिए यदि किसी के पास ऊंचा गोंग सामर्थ्य नहीं है, उसे दूसरों के रोगों का उपचार नहीं करना चाहिए। केवल वही व्यक्ति जो अलौकिक सिध्दियां विकसित कर चुका है और उसका गोंग सामर्थ्य किसी विशेष स्तर तक पहुंच चुका है, चीगोंग का प्रयोग रोग उपचार में कर सकता है। यद्यपि कुछ लोग अलौकिक सिध्दियां विकसित कर चुके हैं और रोग उपचार करने में सक्षम हैं, जब तक वे कुछ निम्न स्तर पर हैं, वे वास्तव में अपना एकत्रित गोंग सामर्थ्य - उनकी अपनी शक्ति को रोग उपचार में उपयोग करते हैं। क्योंकि गोंग शक्ति और सत्ता दोनों है जो सरलता से एकत्रित नहीं होती, आप वास्तव में अपने शरीर से गोंग को समाप्त कर रहे होते हैं जब आप इसे निष्कासित करते हैं। आपके गोंग के निष्कासन के साथ साथ ही, आपके सर के ऊपर गोंग स्तंभ छोटा होता जाता है और समाप्त हो जाता है। यह इसका यथोचित प्रयोग नहीं है। इसलिए मैं दूसरों के रोग उपचार की अनुमति नहीं देता जब तक आपका गोंग सामर्थ्य ऊंचा न हो। चाहे आप कैसी भी महान पध्दतियां अपनायें, आप केवल अपनी ही शक्ति खर्च करेंगे।
जब व्यक्ति का गोंग सामर्थ्य एक विशेष स्तर पर पहुंचता है, सभी प्रकार की अलौकिक सिध्दियां प्रकट होती हैं। इन अलौकिक सिध्दियों का प्रयोग करते हुए आपको बहुत सावधान रहना होगा। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को उसका त्येनमू खुलने के बाद प्रयोग करना आवश्यक है, यदि वह इसका कभी प्रयोग नहीं करता तो यह बंद हो जायेगा। किन्तु उसे इसमें बहुत बार-बार नहीं देखना चाहिए। यदि वह इसमें बार-बार देखता है, तो बहुत अधिक शक्ति का ह्नास होगा। तो इसका अर्थ यह है कि उसे इसका कभी प्रयोग नहीं करना चाहिए? ऐसा कदापि नहीं है। यदि हमें इसका कभी प्रयोग नहीं करना होता, तो हमारे साधना करने का क्या अर्थ रहता? प्रश्न यह है कि इसका प्रयोग कब करें। आप इसका प्रयोग तभी कर सकते हैं जब आपने किसी विशेष स्तर तक साधना कर ली है और अपनी पूर्ति करने की योग्यता प्राप्त कर ली हो। जब कोई फालुन गोंग का साधक एक विशेष स्तर पर पहुंचता है, फालुन स्वयं ही उतने गोंग का रुपान्तरन और पूर्ति कर सकता है जितना साधक ने निष्कासित किया है। फालुन स्वयं ही अभ्यासी का गोंग सामर्थ्य स्तर निश्चित रखता है, और उसका गोंग एक क्षण के लिए भी कम नहीं होता। यह फालुन गोंग की विलक्षणता है। उस समय से पहले अलौकिक सिध्दियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
4. त्येनमू
(1) त्येनमू का खुलना
त्येनमू का मुख्य मार्ग माथे के मध्य और शानगन बिंदु[16] के बीच स्थित है। जिस प्रकार साधारण लोग खुली आंखों से वस्तुऐं देखते हैं वह उसी प्रकार है जैसे एक कैमरा कार्य करता है। लेंस का आकार और पुतली, वस्तु की दूरी और प्रकाश की तीव्रता के अनुरूप व्यवस्थित हो जाते हैं। तब प्रकाश नाड़ी द्वारा, मस्तिष्क के पीछे स्थित पिनियल ग्रंथि पर प्रतिबिम्ब बन जाते हैं। भेदन दृष्टि नामक अलौकिक सिध्दि का केवल यह अर्थ है कि पिनियल ग्रंथि से त्येनमू द्वारा सीधे देख पाने की क्षमता। एक साधारण व्यक्ति का त्येनमू बंद रहता है, क्योंकि उसका मुख्य मार्ग संकरा और अंधकारमय होता है। वहां ची सत्व नहीं है और न ही प्रकाश है। कुछ लोगों का मार्ग बंद होता है, इसलिए वे नहीं देख सकते।
त्येनमू खोलने के लिए, हम पहले या तो बाहरी शक्ति का प्रयोग करते हैं या स्वयं साधना का, जिससे मार्ग साफ हो सके। प्रत्येक व्यक्ति के मार्ग की बनावट भिन्न होती है, जो गोलाकार से अण्डाकार, चोकोर से तिकोनी हो सकती है। जितनी अच्छी प्रकार आप साधना करते हैं, उतना गोलाकार मार्ग बन जायेगा। दूसरे, गुरु आपको नेत्र प्रदान करते हैं। यदि आप स्वयं साधना करते हैं तो यह आपको स्वयं विकसित करनी होगी। तीसरे, आपके पास त्येनमू के स्थान पर ची[17] सत्व का होना आवश्यक है।
साधारणतया, हम वस्तुओं को अपनी दोनों आंखों से देखते हैं, और यही दो आंखें दूसरे आयाम के हमारे मार्ग में बाधा डालती है। क्योंकि वे एक कवच की तरह कार्य करती हैं। हम केवल उन्हीं वस्तुओं को देख पाते हैं जो हमारे भौतिक आयाम में विद्यमान हैं। त्येनमू के खुलने से इन दो आंखों के बिना देखने की क्षमता आ जाती है। बहुत ऊंचे स्तर तक साधना करने पर आप दिव्य नेत्र भी प्राप्त कर सकते हैं। तब आप त्येनमू के दिव्य नेत्र से या शानगन बिन्दु के दिव्य नेत्र से देख सकते हैं। बुध्द विचारधारा के अनुसार, शरीर का प्रत्येक रोम छिद्र एक नेत्र है - सारे शरीर पर नेत्र हैं। ताओ विचारधारा के अनुसार, प्रत्येक एक्यूपंक्चर बिन्दु एक नेत्र है। मुख्य मार्ग त्येनमू पर ही स्थित है, और इसे पहले खोला जाता है। कक्षा में, मैंने आप सभी में वे वस्तुऐं स्थापित कर दी हैं जो त्येनमू खोल सकती हैं। लोगों के शारीरिक गुणों में अन्तर के कारण परिणाम भिन्न हो सकते हैं। कुछ लोग गहरे कुंऐ जैसा अन्धकारमय छिद्र देख सकते हैं। इसका अर्थ है कि त्येनमू का मार्ग अन्धकारमय है। दूसरे लोग सफेद सुरंग देखते हैं। यदि सामने आकृतियां दिखायी पड़ती हैं, तो त्येनमू खुलने वाला है। कुछ लोग घूमती हुई वस्तुओं को देख सकते हैं, जिन्हें गुरु ने त्येनमू खोलने के लिए स्थापित किया है। त्येनमू में छिद्र हो जाने के बाद आप देख सकेंगे। कुछ लोग त्येनमू के द्वारा एक बड़ी आंख देख पाते हैं, और वे सोचते हैं कि यह बुध्द की आंख है। यह वास्तव में उनकी अपनी आंख है। साधारणतया ये वे लोग हैं जिनके जन्मजात गुण अच्छे हैं।
हमारी गणना के अनुसार, प्रत्येक बार जब हम उपदेश श्रृंखला देते हैं, आधे से ज्यादा लोगों की त्येनमू खुल जाता है। त्येनमू खुलने के बाद एक समस्या उत्पन्न हो सकती है, कि एक व्यक्ति जिसका नैतिकगुण ऊंचा नहीं है त्येनमू का प्रयोग सुगमता से बुरे कार्यों के लिए कर सकता है। इस समस्या के निदान के लिए, मैं आपकी त्येनमू सीधे विवेक दृष्टि स्तर पर खोलूंगा - दूसरे शब्दों में, एक ऊंचे स्तर पर जहां आप दूसरे आयामों के दृश्य सीधे देख सकते हैं और साधना के दौरान सामने प्रकट होते दृश्य देख सकते हैं, जिससे आप उन पर विश्वास कर सकें। इससे आपका साधना में विश्वास दृढ़ होगा। जिन लोगों ने साधना आरंभ ही की है, उनका नैतिकगुण महान व्यक्तियों के स्तर तक अभी नहीं पहुंचा है। इसलिए यदि उन्हें अलौकिक वस्तुएं प्राप्त हो जाऐं तो उनके गलत प्रयोग का अंदेशा है। एक विनोदपूर्ण उदाहरण दूं तो : यदि आप सड़क पर जा रहे हैं और एक लॉटरी की दुकान पर पहुंचते हैं, आप सरलता से प्रथम पुरस्कार ले जा सकते हैं। ऐसा होने नहीं दिया जाएगा - यह केवल इस बात को स्पष्ट करने के लिए था। दूसरा कारण यह है कि हम त्येनमू बहुत से लोगों के लिए खोल रहे हैं। यदि सभी लोगों की त्येनमू निम्न स्तर पर खुल जाए : कल्पना कीजिए यदि हर कोई मानव शरीर के आर-पार देख सके या दीवार के दूसरी ओर की वस्तुओं को देख सके - क्या हम इसे तब भी मानव समाज कहेंगे? मानव समाज में हलचल मच जायेगी, इसलिए न तो इसकी अनुमति है और न ही यह हो सकता है। इसके अतिरिक्त, इससे अभ्यासियों को कोई लाभ नहीं होगा और इससे केवल उनकी आशक्ति ही बढ़ेगी। इसलिए हम आपका त्येनमू निम्न स्तर पर नहीं खोलेंगे। बल्कि हम इसे सीधे उच्च स्तर पर खोलेंगे।
(2)
त्येनमू के स्तर
त्येनमू के कई विभिन्न स्तर हैं; विभिन्न स्तरों पर यह विभिन्न आयामों को देखती है। बुध्द मत के अनुसार पांच स्तर होते हैं : भौतिक दृष्टि, दिव्य दृष्टि, विवेक दृष्टि, धर्म दृष्टि और बुध्द दृष्टि। प्रत्येक स्तर उच्च, मध्य और निम्न स्तरों में विभाजित है। दिव्य दृष्टि या उससे कम स्तर पर केवल हमारा भौतिक संसार ही देखा जा सकता है। केवल विवेक दृष्टि या उससे ऊंचे स्तर पर ही दूसरे आयामों को देखा जा सकता है। जिनके पास भेदन दृष्टि नामक आलौकिक दृष्टि है वे वस्तुओं को स्पष्ट देख सकते हैं, सी.टी. स्कैन से भी अधिक स्पष्ट। किन्तु जो कुछ वे देख सकते हैं इस भौतिक संसार तक ही सीमित है और इस आयाम से बाहर नहीं जा सकते जहां हमारा वास है; इसे हम त्येनमू का उच्च स्तर नहीं कह सकते।
एक व्यक्ति के त्येनमू का स्तर उसके ची सत्व की मात्रा पर आधारित है, और इसके साथ मुख्य मार्ग की चौड़ाई, उज्जवलता और उसमें रूकावट पर निर्भर करता है। आन्तरिक ची सत्व यह निर्धारित करने में निर्णायक है कि त्येनमू कितनी पूर्णता से खुल सकती है। छ: साल से कम उम्र के बच्चों की त्येनमू खोलना विशेष रूप से सरल होता है। मुझे अपने हाथों का प्रयोग करने की आवश्यकता भी नहीं होती, क्योंकि जैसे ही मैं बोलना आरंभ करता हूं यह खुल जाती है। यह इसलिए क्योंकि बच्चे हमारे भौतिक जगत के बुरे प्रभावों से अछूते हैं और उन्होंने कोई बुरे कार्य नहीं किए हैं। उनका ची सत्व संरक्षित है। छ: वर्ष की आयु के बाद एक बच्चे की त्येनमू खोलना कठिन हो जाता है, क्योंकि जैसे वे बड़े होते हैं बाहरी प्रभाव बढ़ते जाते हैं। विशेषकर अनुचित शिक्षा, बिगड़ैल पन और अनैतिक चाल-चलन से ची सत्व का क्षय होता है। एक स्थिति के बाद यह पूरी तरह समाप्त हो जाता है। जिन लोगों का ची सत्व पूरी तरह समाप्त हो चुका है वे साधना द्वारा धीरे-धीरे उसे पुन: प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु इसमें बहुत अधिक समय और कड़ी मेहनत लगेगी। अत: ची सत्व अत्यंत मूल्यवान है।
मैं किसी व्यक्ति की त्येनमू दिव्य दृष्टि से नीचे के स्तर पर खोलने की सलाह नहीं देता, क्योंकि अभ्यासी जिसका गोंग सामर्थ्य कम है, वस्तुओं को देखने में अपनी शक्ति अधिक खो देगा जितना कि वह साधना द्वारा अर्जित कर पायेगा। बहुत अधिक सत्व शक्ति के क्षय से त्येनमू पुन: बंद हो सकता है। एक बार बंद होने पर इसे दोबारा खोलना सुगम नहीं होगा। इसलिए मैं साधारणतया लोगों का त्येनमू विवेक दृष्टि स्तर पर खोलता हूं। साधक की दृष्टि भले ही स्पष्ट हो या न हो, वे दूसरे आयामों के दृश्य देख पायेंगे। क्योंकि लोगों पर उनके आंतरिक गुणों का प्रभाव पड़ता है, कुछ लोग स्पष्ट देख पाते हैं, कुछ लोग रूकावट के साथ देखते हैं, और कुछ अस्पष्ट। किन्तु कम से कम आप प्रकाश तो देख ही पायेंगे। इससे साधक को उच्च स्तर की ओर बढ़ने में सहायता मिलेगी। जो स्पष्ट नहीं देख पाते वे साधना बढ़ने पर देख पायेंगे।
वे लोग जिनका ची सत्व कम है, त्येनमू द्वारा केवल श्वेत-श्याम दृश्य ही देख पायेंगे। जिन लोगों के त्येनमू में ची सत्व कुछ अधिक है वे दृश्य रंगीन और स्पष्ट देख पायेंगे। जितना अधिक ची सत्व होगा, स्पष्टतया उतनी ही अधिक होगी। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति भिन्न होता है। कुछ लोग खुले त्येनमू के साथ पैदा होते हैं जबकि कुछ औरों का बिल्कुल बंद होता है। जब त्येनमू खुल रहा होता है तो पुष्प के खिलने की भांति आकृति दिखाई देती हैं, जो परत दर परत खुलती जाती है। आरंभ में ध्यान में बैठे समय आपको त्येनमू के स्थान पर उज्जवलता दिखाई देगी। आरंभ में उज्जवलता इतनी प्रकाशमय नहीं होती, जबकि बाद में यह लाग रंग में बदल जाती है। कुछ लोगों की त्येनमू कस कर बंद होता है, इसलिए उनकी आरंभिक भौतिक प्रक्रिया बहुत तीव्र होती है। वे लोग मुख्य मार्ग और शानगन बिंदु के पास की पेशियों में कसाव अनुभव करेंगे, जैसे उन्हें अन्दर की ओर दबाया व छेद किया जा रहा हो। उन्हें कनपटी और मस्तक में ऐसा अनुभव होगा जैसे सूजे हुए हों तथा दर्द हो रहा हो। ये सभी त्येनमू के खुलने के लक्षण हैं। व्यक्ति जिसकी त्येनमू सरलता से खुल जाता है वह अक्सर कुछ दृश्य देख पाता है। मेरी कक्षाओं में, कुछ लोग अनजाने में मेरे धर्म शरीरों को देख पाते हैं। जब वे जानबूझ कर देखने का प्रयत्न करते हैं तो वे लुप्त हो जाते हैं, क्योंकि तब ये लोग वास्तव में अपनी भौतिक आंखें प्रयोग कर रहे होते हैं। जब आप आंखें बंद करके कुछ वस्तुएं देखते हैं, देखने की उसी स्थिति में रहें और आप धीरे-धीरे वस्तुओं को और स्पष्ट देख पायेंगे। यदि आप और समीप से स्पष्ट देखना चाहते हैं, तब आपका धयान वास्तव में अपनी आंखों की और चला जाता है और आप प्रकाश नाड़ियों का प्रयोग करने लगते हैं। तब आप कुछ नहीं देख पाते।
त्येनमू द्वारा आयामों की समझ व्यक्ति के त्येनमू के स्तर के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। कुछ वैज्ञानिक शोद्य संस्द्यान इस सिध्दांत को नहीं समझ पाते, जिससे कुछ चीगोंग परीक्षण अनुमानित परिणाम नहीं दे पाते। कभी-कभी कुछ परीक्षण तो बिल्कुल विपरीत परिणाम देते हैं। उदाहरण के लिए, एक संस्थान ने अलौकिक सिध्दियों के परीक्षण के लिए एक पध्दति निकाली। उन्होंने चीगोंग गुरुओं को एक बंद डिब्बे की वस्तुओं को देखने के लिए कहा। क्योंकि उन गुरुओं के त्येनमू स्तर भिन्न थे, उनके उत्तर भी भिन्न थे। तब अनुसंधानकर्ताओं ने त्येनमू के विषय को झूठा और गुमराह करने वाला मान लिया। साधारणतया इस प्रकार के परीक्षण कोई निम्न स्तर के त्येनमू वाला व्यक्ति बेहतर परिणाम प्राप्त कर सकता था, क्योंकि उसकी त्येनमू दिव्य दृष्टि के स्तर पर खुला होता - एक ऐसा स्तर जो इस भौतिक आयाम में वस्तुओं को देखने के लिए उपयुक्त है। इसलिए जो लोग त्येनमू को नहीं समझते हैं सोचते हैं कि इन लोगों की अलौकिक सिध्दियां महान हैं। दूसरे आयामों में सभी वस्तुऐं, सजीव अथवा निर्जीव, भिन्न-भिन्न रूप और आकार में दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ही किसी ग्लास का निर्माण किया जाता है, एक दूसरे आयाम में एक चेतना अस्तित्व में आ जाती है। साथ ही, यहां अस्तित्व में आने से पूर्व हो सकता है यह कुछ और रही हो। जब त्येनमू निम्नतम स्तर पर होती है, तब ग्लास दिखाई देगा। इससे ऊंचे स्तर पर वह चेतना दिखाई देगी जिसका अस्तित्व दूसरे आयाम में है। इससे भी ऊंचे स्तर पर, उस चेतना के अस्तित्व से पहले की भौतिक स्थिति दिखाई देगी।
(3) दूर दृष्टि
त्येनमू खुलने के बाद, कुछ लोगों में दूर दृष्टि की अलौकिक सिध्दि आ जाती है, और वे हजारों मील दूर की वस्तुऐं देखने में सक्षम हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का उसके अपने आयामों में अधिकार होता है। उन आयामों में वह एक विश्व के समान बड़ा होता है। एक विशेष आयाम में, उसके मस्तक के आगे एक दर्पण होता है, यद्यपि हमारे आयाम में यह अदृश्य है। यह दर्पण सभी के पास होता है, किन्तु जो अभ्यासी नहीं होते उनका दर्पण अन्दर की ओर मुड़ा होता है। अभ्यासियों के लिए, यह दर्पण धीरे-धीरे उल्टा मुड़ जाता है। एक बार उलट जाने पर, दर्पण वह सब परावर्तित कर सकता है जो अभ्यासी देखना चाहता है। उसके विशेष आयाम में वह अत्यंत विशाल होता है। क्योंकि उसका शरीर बहुत विशाल होता है, इसलिए दर्पण भी बहुत विशाल होता है। जो कुछ साधक देखना चाहता है वह दर्पण में परावर्तित किया जा सकता है। एक बार चित्र प्राप्त हो जाने के बाद भी वह देख नहीं सकता, क्योंकि चित्र का दर्पण पर एक पल के लिए ठहराव आवश्यक है। दर्पण वापस मुड़ता है और वस्तु की परावर्तित झलक दिखा देता है। यह फिर पलटता है, तेजी से वापस मुड़ता है, और इस प्रकार बिना रूके आगे-पीछे पलटता रहता है। सिनेमा में धारा प्रवाह गति के लिए फिल्म को चौबीस चित्र प्रति सेकेंड से घूमना होता है। जिस गति से दर्पण पलटता है वह इससे कहीं अधिक है, इसलिए दृश्य धारा प्रवाह और स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसे दूर दृष्टि कहते हैं - और दूर दृष्टि का सिध्दांत इतना ही सरल है। यह बहुत गोपनीय हुआ करता था, किन्तु मैंने कुछ ही पंक्तियों में इसका खुलासा कर दिया है।
(4) आयाम
हमारे दृष्टिकोण के अनुसार, आयाम बहुत जटिल होते हैं। मनुष्यजाति को केवल उसी आयाम का पता है जिसमें मनुष्यों का अभी अस्तित्व है, जबकि दूसरे आयामों का न तो अभी तक पता चला है और न ही खोज की गई है। जहां तक दूसरे आयामों की बात है, हम चीगोंग गुरु पहले ही आयामों के बहुत से स्तर देख चुके हैं। इन्हें सैध्दान्तिक रूप से समझाया भी जा सकता है, हालांकि विज्ञान में ये अभी अप्रमाणित ही है। यद्यपि कुछ लोग कुछ वस्तुओं के अस्तित्व को नही स्वीकारते हैं, किन्तु वे वास्तव में हमारे आयाम में परावर्तित होती हैं। उदाहरण के लिए, एक स्थान है जिसका नाम बरमूडा त्रिकोण (दुष्ट त्रिकोण) है । कुछ हवाई जहाज और पानी के जहाज उस क्षेत्र में लुप्त हो चुके हैं, और कुछ वर्ष पश्चात फिर से प्रकट हो गये। कोई नहीं समझा सकता ऐसा क्यों हुआ, क्योंकि कोई भी मानवीय विचारों और सिध्दान्तों की सीमा से आगे नहीं गया है। वास्तव में, यह त्रिकोण दूसरे आयाम के लिए प्रवेश द्वार है। यह हमारे साधारण द्वारों की तरह नहीं है जिनकी स्थायी स्थिति होती है, बल्कि यह एक असंभावित स्थिति में रहता है। यदि पानी का जहाज द्वार के पार चला जाये जब यह खुला हो तो जहाज सरलता से दूसरे आयाम में जा सकता है। मनुष्य आयामों के बीच का अन्तर नहीं समझ सकते और वे पलक झपकते ही दूसरे आयाम में पहुंच जाते हैं। उस आयाम और हमारे आयाम के काल-अवकाश के अन्तर को मीलों में नहीं मापा जा सकता - हजारों मील की दूरी हो सकता है यहां एक बिन्दु में समाई हो, अर्थात हो सकता है उनका अस्तित्व उसी स्थान और उसी काल में हो। जहाज एक पल के लिए अन्दर को घूमा और संयोग से फिर बाहर आ गया। जबकि इस संसार में दशाब्दियां बीत चुकी हैं, क्योंकि दोनों आयामों में काल भिन्न-भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक आयाम में अविभाजित संसारों का भी अस्तित्व होता है। यह हमारे परमाणु संरचनाओं के मॉडल के समान है जिसमें एक गेंद दूसरी गेंद से एक डोरी द्वारा जुड़ी है, और एसी बहुत सी गेंद धागों द्वारा जुड़ी हैं, कुल मिला कर यह अत्यंत जटिल है।
द्वितीय विश्व युध्द के चार वर्ष पूर्व, एक ब्रिटिश वायुयान चालक एक मिशन पर उड़ रहा था। उड़ान के बीच में ही वह एक तेज तूफान में घिर गया। पूर्व अनुभव के आधार पर, वह एक त्यागे हुए हवाई अड्डे का पता लगा सका। जैसे ही हवाई अव उसकी आंखों के सामने आया, उसे एक पूर्णतया दूसरा दृष्य दिखाई दिया : पलक झपकते ही उसने पाया कि मौसम साफ है और धूप निकली हुई है, जैसे वह किसी दूसरे विश्व में आ गया हो। हवाई अड्डे में खड़े वायुयान पीले रंग के थे और लोग अपने अपने कार्यों में व्यस्त थे। उसे यह सब बहुत अजीब लगा! उसके नीचे उतरने के बाद किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया; यहां तक कि नियंत्रक कक्ष ने भी उससे संपर्क नहीं किया। चालक ने तब उड़ने का निश्चय किया क्योंकि मौसम साफ हो गया था। जैसे ही उसने उड़ान भरी, और जब वह उसी दूरी पर पहुंचा जहां से उसने कुछ पल पहले हवाई अव देखा था, वह दोबारा तूफान में फंस गया। अन्तत: वह वापस पहुंचने में सफल हो गया। उसने स्थिति के बारे में रिपोर्ट किया और अपने उड़ान रिकार्ड में इसे दर्ज किया। किन्तु उसके अधिकारियों ने उस पर विश्वास नहीं किया। चार वर्ष बाद द्वितीय विश्व युध्द छिड़ गया, और उसका तबादला उसी वीरान हवाई अड्डे पर हो गया। उसे तुरन्त याद आ गया कि यह बिल्कुल वही दृश्य था जो उसने चार वर्ष पूर्व देखा था। हम चीगोंग गुरु जानते हैं कि इसे कैसे समझाया जाये। जो उसने चार वर्ष बाद करना वह उसने पहले ही कर दिया था। क्रिया कलाप आरंभ होने से पहले ही, वह वहां पहले ही पहुंच कर अपनी भूमिका पूर्ण कर चुका था। उसके बाद स्थितियां अपने पूर्व नियोजित क्रम में आईं।
5. चीगोंग उपचार और अस्पताल द्वारा उपचार
सैध्दान्तिक रूप से, चीगोंग उपचार अस्पताल में दिए जाने वाले उपचारों से बिल्कुल भिन्न होते हैं। पाश्चात्य उपचार साधारण मानव समाज की पध्दतियों का प्रयोग करते हैं। प्रयोगशाला परीक्षण और एक्स-रे परीक्षण होते हुए भी, वे रोग के कारणों
का पता केवल इस आयाम में लगा सकते हैं और वे मूलभूत कारणों को नहीं देख सकते जिनका अस्तित्व दूसरे आयामों में है। इसलिए वे रोग के कारण को समझने में असफल रहते हैं। दवाईयां रोग के मूल कारण (जिसे पाश्चात्य चिकित्सक पैथोजन कहते हैं, और चीगोंग में कर्म कहते हैं) को तभी दूर कर सकती हैं यदि रोगी गंभीर रूप से रोगग्रस्त न हो। यदि रोग गंभीर हो तो दवाई का प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि हो सकता है रोगी दवाई की बढ़ाई गई मात्रा सहन न कर सके। सभी रोगों को इस संसार के नियमों में नहीं बांधा जा सकता। कुछ रोग बहुत गंभीर होते हैं और इस संसार की सीमाओं के परे होते हैं, जिस कारण अस्पताल उनका निदान करने में असमर्थ होते हैं।
चीनी औषधि हमारे देश में पारंपरिक औषध विज्ञान है। यह मानव शरीर की साधना द्वारा विकसित अलौकिक शक्तियों से अलग नहीं है। प्राचीन लोग मानव शरीर की साधना में विशेष ध्यान देते थे। कनफ्यूशियस विचारधारा, ताओ विचारधारा, बुध्द विचारधारा - और यहां तक कि कनफ्यूशियस मत के शिष्य - सभी ध्यान साधना पर विशेष बल देते रहे हैं। ध्यान में बैठना एक दक्षता मानी जाती रही है। यद्यपि वे क्रियायें नहीं किया करते थे, फिर भी समय बीतने पर वे गोंग और अलौकिक सिध्दियां विकसित किया करते थे। कैसे चीनी एक्यूपंक्चर मानव शरीर की नाड़ियों का इतनी स्पष्टता से पता लगा सका? क्यों एक्यूपंक्चर बिंदु समानांतर नहीं जुड़े हैं? क्यों वे एक दूसरे को पार नहीं करते, और क्यों वे लंबवत् जुड़े हैं? क्यों उनका माप इतने त्रुटिहीन तरीके से हो पाया? अलौकिक सिध्दियों द्वारा आधुनिक व्यक्ति स्वयं अपनी आंखों से वह सब देख सकते हैं जो उन चीनी चिकित्सकों की उपलब्धियां थीं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि प्रसिध्द प्राचीन चीनी चिकित्सक अलौकिक सिध्दियों के स्वामी थे। चीनी इतिहास में, ली शीज़ेन, सुन सिमियो, ब्येन चयुऐ, और हवा तोआ[18] नामक सभी चीगोंग गुरु वास्तव में अलौकिक सिध्दियों में समर्थ थे। वर्तमान तक पहुंचते-पहुंचते, चीनी औषधि अपना अलौकिक सिध्दियों वाला भाग गवां चुकी है और केवल चिकित्सा तकनीक ही बची है। प्राचीन काल में चीनी चिकित्सक (अलौकिक सिध्दियों के साथ) अपने नेत्रों का प्रयोग रोग के परीक्षण के लिए करते थे। बाद में, उन्होंने नब्ज़ देखने[19] की पध्दति भी विकसित कर ली। यदि चीनी चिकित्सा पध्दति में अलौकिक सिध्दियां वापस डाल दी जायें, तो यह कहा जा सकता है कि आने वाले कई वर्षों तक भी चीनी चिकित्सा पाश्चात्य चिकित्सा से अग्रणी रहेगी।
चीगोंग चिकित्सा रोग के मूल कारण को हटाती है। मैं रोग को एक प्रकार का कर्म मानता हूं, और रोग की चिकित्सा का अर्थ उससे संबंधित कर्म को क्षीण करने में मदद करना है। कुछ चीगोंग गुरु रोग के उपचार के लिए ची के हटाने और पूर्ति की पध्दति का प्रयोग करते हैं जिससे रोगी को काली ची को समाप्त करने में मदद मिल सके। एक निम्न स्तर पर ये चीगोंग गुरु काली ची को हटाते हैं, जबकि वे काली ची का मूल कारण नहीं जानते। यह काली ची वापस आ जाएगी और रोग लौट आऐगा। सत्य यह है कि काली ची रोग का मूल कारण नहीं है - काली ची की उपस्थिति केवल रोगी को बेचैन बनाती है। रोगी की बीमारी का मूल कारण एक चेतना है इसका अस्तित्व दूसरे आयाम में है। कई चीगोंग गुरु यह नहीं जानते। क्योंकि वह चेतना शक्तिशाली होती है, साधारण लोग उसे नहीं छू पाते, और न ही वे ऐसी हिम्मत कर सकते हैं। फालुन गोंग की चिकित्सा का तरीका इसी चेतना पर केन्द्रित है और इसी से आरंभ होता है, जिससे रोग का मूल कारण समाप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त उस क्षेत्र में एक कवच की स्थापना कर दी जाती है जिससे रोग दोबारा घुसपैठ न कर सके।
चीगोंग रोग का निदान तो कर सकता है किन्तु मानव समाज की परिस्थितियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यदि इसे बड़े स्तर पर प्रयोग में लाया जाये तो यह साधारण लोगों के समाज की परिस्थितियों से हस्तक्षेप करेगा, जिसकी अनुमति नहीं है; और इसके आरोग्य की क्षमता भी बहुत प्रभावी नहीं होगी। जैसा कि आप जानते होंगे, कुछ लोगों ने चीगोंग परीक्षण केन्द्र, चीगोंग अस्पताल, और चीगोंग निवारण केन्द्र आदि खोल लिए हैं। इन व्यापारों को आरंभ करने से पहले हो सकता है उनकी चिकित्सा प्रभावी रही हों। जैसे ही वे रोग की चिकित्सा के लिए व्यापार आरंभ करते हैं, प्रभाव क्षमता समाप्त हो जाती है। इसका अर्थ है कि लोगों के लिए यह वर्जित है कि वे अलौकिक पध्दतियों का प्रयोग साधारण लोक समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करें। ऐसा करने पर उनकी प्रभाव क्षमता अवश्य ही उतने स्तर तक कम हो जायेगी जितनी साधारण लोक समुदाय की दूसरी पध्दतियां हैं।
अलौकिक सिध्दियों के प्रयोग द्वारा व्यक्ति मानव शरीर के अंदरूनी भाग की परत दर परत परीक्षण कर सकता है, वैसे ही जैसे चिकित्सा में कोणीय अनुभाग लिया जाता है। कोमल ऊतक और शरीर के किसी भी और भाग को देखा जा सकता है। यद्यपि आज की सी.टी. स्कैन स्पष्टता से देख पाने में सक्षम है, किन्तु मशीन की आवश्यकता फिर भी है; इसमें वास्तव में बहुत समय लगता है, बहुत सी फिल्म का प्रयोग होता है, और मंद गति से चलती है और महंगी है। यह उतनी सुविधाजनक और त्रुटिहीन भी नहीं है जितनी कि मानवीय अलौकिक सिध्दियां। एक शीघ्र सूक्ष्म परीक्षण करने के लिए, चीगोंग गुरु अपनी आंखें बंद करते हैं और रोगी के शरीर के किसी भी भाग को सीधे और स्पष्टता से देख लेते हैं। क्या यह उच्च तकनीक नहीं है? यह वर्तमान की ऊंची तकनीकों से भी अधिक उन्नत है। जबकि इस प्रकार की दक्षता प्राचीन चीन में पहले से ही थी - यह प्राचीन काल की उच्च तकनीक थी। हवा तोआ ने छाओ छाओ के मस्तिष्क में एक गिल्टी देखी और उसकी शल्य चिकित्सा करना चाहता था। छाओ छाओ ने हवा तोआ को बंदी बनवा दिया, क्योंकि उसने उस पर विश्वास नहीं किया और समझा कि इसे उसे हानि पहुंच सकती है। अन्तत: छाओ छाओ[20] की मस्तिष्क की गिल्टी से मृत्यु हो गई। विगत में कई महान चीनी चिकित्सक वास्तव में अलौकिक सिध्दियों के स्वामी थे। आज स्थिति यह है कि आधुनिक समाज में लोग अंधाधुंध भौतिक वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं और प्राचीन परंपराओं को भूल चुके हैं।
हमारी उच्च स्तरीय चीगोंग साधना द्वारा पारंपरिक पध्दतियों का पुनर्निरीक्षण किया जाना चाहिए, पुन: अपनाया और विकसित किया जाना चाहिए और पुन: उनका प्रयोग मानव समुदाय की भलाई के लिए किया जाना चाहिए।
6. बुध्द विचारधारा का चीगोंग और बुध्द मत
जैसे ही हम बुध्द विचारधारा के चीगोंग की बात करते हैं कई लोगों के मन में एक विचार आता है : क्योंकि बुध्द विचारधारा का ध्येय बुध्दत्व की प्राप्ति है, वे इसका संबंध बुध्दमत की वस्तुओं से करने लगते हैं। मैं यहां गंभीरता से स्पष्ट करता हूं कि फालुन गोंग बुध्द विचारधारा का चीगोंग है। यह एक पवित्र, महान साधना मार्ग है और इसका बुध्दमत से कोई संबंध नहीं है। बुध्द विचारधारा का चीगोंग बुध्द विचारधारा का चीगोंग है, जबकि बुध्दमत बुध्दमत है। उनके मार्ग भिन्न हैं, यद्यपि उनके साधना के उद्देश्य एक ही है। वे अलग-अलग आवश्यकताओं वाली अभ्यास की अलग विचार- धाराऐं हैं। मैनें ''बुध्द'' शब्द की चर्चा की थी, और जब मैं बाद में उच्च स्तरों का अभ्यास सिखाऊंगा तो इसकी फिर चर्चा करूंगा। यह शब्द स्वयं में किसी अंधविश्वास का सूचक नहीं है। कुछ लोग बुध्द शब्द सुनना सहन नहीं करते, और कहते हैं कि हम अंधविश्वास फैलाते हैं। यह ऐसा नहीं है। बुध्द एक संस्कृत शब्द है जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी। और इसका चीनी भाषा में उच्चारण के अनुसार अनुवाद किया गया और इसे फोआ तोआ[21] कहा गया। लोगों ने ''फोआ'' शब्द को छोड़ दिया और ''तोआ'' प्रयोग करने लगे। चीनी भाषा में अनुवाद करने पर इसका अर्थ है - एक ज्ञान प्राप्त व्यक्ति (चहाई[22] शब्दकोश के अनुसार)।
(1) बुध्द विचारधारा का चीगोंग
वर्तमान में, दो प्रकार की बुध्द विचारधारा के चीगोंग सार्वजनिक किए गए हैं। एक बुध्दमत से अलग हुआ था और अपने हजारों वर्ष के विकास क्रम में इसने अनेक विशिष्ट सन्यासियों को उत्पन्न किया। जब उनके अभ्यासी बहुत ऊंचे स्तर तक साधना कर लेते थे, तब उच्च स्तर के गुरु आकर उन्हें इस प्रकार शिक्षा देते थे जिससे वे और भी उच्च स्तरों से शुध्द उपदेश प्राप्त कर सकें। बुध्दमत का पूरा ज्ञान एक बार में एक ही व्यक्ति को हस्तान्तरित किया जाता रहा है। जब किसी विशिष्ट सन्यासी के जीवन का अन्त समीप होता था केवल तभी वह अपने एक शिष्य को ज्ञान हस्तान्तरित करता था, जो बुध्दमत के सिध्दान्तों के अनुसार साधना करता और अपना पूर्ण विकास करता। इस प्रकार के चीगोंग का बुध्दमत के साथ गहरा संबंध था। बाद में, महान सांस्कृतिक क्रान्ति[23] के समय में सन्यासियों को साधना स्थलों से बाहर निकाल दिया गया। तब ये अभ्यास क्रियाऐं जनसाधारण में फैल गईं और इनकी संख्या में विस्तार हुआ।
दूसरे प्रकार का चीगोंग भी बुध्द विचारधारा से है। पूरे इतिहासकाल में, यह कभी बुध्दमत का अंग नहीं रहा। इसका अभ्यास गुप्त रूप से किया जाता रहा है, चाहे लोगों के बीच या पर्वतों में। इस प्रकार की पध्दतियों की अपनी विशेषताएं हैं। इनमें एक अच्छे शिष्य का चुनाव आवश्यक है - जो अत्यधिक पवित्र हो और वास्तव में ऊंचे स्तर की साधना के योग्य हो। इस प्रकार का व्यक्ति इस संसार में कई-कई वर्षों में एक बार ही जन्म लेता है। इन पध्दतियों को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनमें अत्यंत ऊंचे नैतिकगुण की आवश्यकता होती है और गोंग तेजी से विकसित होता है। इस प्रकार की पध्दतियां कम नहीं हैं। ताओ विचारधारा में भी ऐसा ही है। ताओ चीगोंग यद्यपि ताओ विचारधारा से ही संबंधित है, किन्तु यह आगे कुनलुंग, इमेइ, वुतांग आदि में विभाजित हैं। प्रत्येक भाग मे अलग-अलग उपभाग हैं, और उपभाग एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं। इन्हें एक दूसरे के साथ मिलाकर अभ्यास नहीं किया जा सकता।
(2) बुध्द मत
बुध्दमत एक साधना प्रणाली है जो भारत में दो हजार वर्षों से भी पहले शाक्यमुनि[24] के द्वारा स्वयं ज्ञान प्राप्ति के पश्चात उत्पत्ति में आई, और यह उनके मूल साधना अभ्यास पर आधारित है। यह तीन शब्दों में समाहित की जा सकती है : शील, समाधि, प्रज्ञा। शील (उपदेशों) का प्रयोजन समाधि के लिए है। बुध्दमत में क्रियाऐं भी होती हैं यद्यपि इनकी चर्चा नहीं की जाती। बौध्द उपासक जब ध्यान में बैठते हैं और शांति की अवस्था में प्रवेश करते हैं तब वे वास्तव में क्रियाऐं कर रहे होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि जब एक व्यक्ति शांत होकर ध्यान में प्रवेश करता है तब ब्रह्मांड से ऊर्जा उसके शरीर के चारों ओर एकत्रित होने लगती है, और इससे चीगोंग क्रियाओं को करने जैसा प्रभाव उत्पन्न होता है। बुध्दमत में शील सभी मानव आशक्तियों के त्याग और उन सभी वस्तुओं के मोह को छोड़ने के लिए है जिनसे साधारण मनुष्य जकड़ा हुआ है, जिससे सन्यासी शान्ति और स्थिरता की स्थिति में पहुंच सके, और समाधि में प्रवेश कर सके। व्यक्ति को समाधि[25] में लगातार स्वयं को विकसित करना होता है, जब तक उसे अन्तत: ज्ञान प्राप्ति न हो जाये। तब वह ब्रह्मांड को जान पायेगा और इसके सत्य का दर्शन कर सकेगा।
शाक्यमुनि जब शिक्षा प्रदान कर रहे थे वे प्रतिदिन केवल तीन वस्तुएं करते थे : वे अपने शिष्यों को धर्म[26] सिखाते थे (मुख्य रूप से अरहट का धर्म), एक कटोरा लेकर भिक्षा ग्रहण करते थे (भोजन की भिक्षा), और ध्यान में बैठ कर साधना करते थे। शाक्यमुनि के द्वारा इस संसार को त्यागने के बाद, ब्रह्मण्ड मत और बुध्दमत में द्वंद छिड़ गया। बाद में इन दोनों धर्मों का एक में सम्मिश्रण हो गया, जिसे हिन्दू मत कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप भारत में अब बुध्दमत शेष नहीं रह गया है। इसके बाद के घटनाक्रम और बदलावों से आन्तरिक चीन में महायान[27] बुध्दमत का उद्भव हुआ, जहां यह आज का बुध्दमत बन गया है। महायान बुध्दमत में स्थापक के रूप में केवल शाक्यमुनि की ही उपासना नहीं की जाती - इसमें अनेक बुध्द हैं। इसमें अनेक तथागतों[28] में विश्वास किया जाता है, जैसे बुध्द अमिताभ, औषध बुध्द, आदि और शील भी अब बढ़ गए हैं, तथा साधना का उद्देश्य और अधिक ऊंचा हो गया है। अपने समय में शाक्यमुनि ने कुछ शिष्यों को बोधिसत्व[29] का धर्म सिखाया। इन शिक्षाओं को बाद में व्यवस्थित किया गया और इससे आज के महायान बुध्दमत की उत्पत्ति हुई, जो बोधिसत्व के स्तर की साधना के लिए है।
दक्षिणपूर्व एशिया में थेरावाद बुध्दमत की परंपरा आज तक चली आ रही है, और अनुष्ठानों में आलौकिक सिध्दियों का प्रयोग किया जाता है। बुध्दमत के विकास क्रम में, इसकी एक शाखा हमारे देश के तिब्बत क्षेत्र में चली गई जिसे तिब्बती तन्त्र विद्या कहा जाता है। दूसरी साधना विधि शिनजियांग[30] से होती हुई हान क्षेत्र[31] में प्रचलित हो गई और तांग तन्त्र विद्या कहलायी। हवे चांग[32] के समय में जब बुध्दमत को दबाया गया तब यह लुप्त हो गई। एक और शाखा भारत में योग के रूप में विकसित हुई।
बुध्दमत में क्रियाऐं नहीं सिखाई जाती हैं और न ही चीगोंग का अभ्यास किया जाता है। ऐसा बुध्दमत साधना की पारंपरिक प्रणाली को संरक्षित रखने के लिए है। यह एक मुख्य कारण भी है क्यों बुध्दमत दो हजार से अधिक वर्षों से भी बिना क्षीण हुए प्रचलित है। यह अपनी परंपरा को इसीलिए बनाये रख पाया क्योंकि इसने किसी बाहरी शिक्षा का समावेश नहीं किया।
बुध्दमत में साधना के विभिन्न मार्ग हैं। थेरावाद बुध्दमत स्वयं मोक्ष प्राप्ति तथा स्वयं साधना पर केन्द्रित है; महायान बुध्दमत स्वयं तथा औरों को मोक्ष प्रदान करने के लिए विकसित हुआ - सभी चेतन जीवों को मोक्ष प्रदान करने के लिए।
7. पवित्र साधना मार्ग और दुष्ट मार्ग
(1) पार्श्व द्वार बेढंगे मार्ग (पैंगमेन जुओताओ)
पार्श्व द्वार बेढंगी मार्गों को अपारंपरिक (चीमन) साधना मार्ग भी कहा जाता है। धर्मों की स्थापना से पहले अनेक चीगोंग साधना विधियां प्रचलित थीं। धर्मों के क्षेत्र से बाहर कई ऐसी पध्दतियां हैं जो सार्वजनिक हुई हैं। उनमें से अधिकतर में व्यवस्थित सिध्दांतों का अभाव रहा है और इसलिए पूर्ण साधना पध्दतियां नहीं बन पायी हैं। फिर भी चीमन साधना मार्गों की स्वयं अपनी व्यवस्थित, पूर्ण तथा अत्यधिक सघन साधना पध्दति रही है, और यह भी, जन साधारण में प्रचलित हुई है। इन अभ्यास पध्दतियों को अक्सर पार्श्व द्वार बेढंगा मार्ग कहा जाता है। इन्हें ऐसा क्यों कहा जाता है? अक्षरश: पैंगमेन का अर्थ है ''पार्श्व द्वार''; तथा जुओंताओ का अर्थ है ''बेढंगा मार्ग''। लोग बुध्द और ताओ दोनों विचारधाराओं के साधना मार्गों को सीधा मार्ग मानते हैं, और बाकी सभी को पार्श्व द्वार बेढंगा मार्ग अथवा दुष्ट साधना मार्ग। वास्तव में, ऐसा नहीं है। प्राचीन काल से ही पार्श्व द्वार बेढंगे मार्गों का गुप्त रूप से अभ्यास होता रहा है, तथा एक समय में एक ही शिष्य को सिखायी जाती है। इन्हें सार्वजनिक रूप से सिखाने की अनुमति नहीं थी। यदि इन्हें सार्वजनिक किया जाता तो लोग ठीक से समझ नहीं पाते। यहां तक कि इसके अभ्यासियों का भी मानना है कि इसका संबंध न तो बुध्द विचारधारा से है और न ही ताओ विचारधारा से। अपारंपरिक मार्गों के साधना नियमों में कठोर नैतिकगुण की आवश्यकता होती है। इसकी साधना ब्रह्मांड की प्रकृति के अनुरूप है, तथा परोपकारी कार्य करने तथा अपने नैतिकगुण पर ध्यान देने पर जोर है। इस पध्दति के कुछ पहुंचे हुए गुरु अत्यंत विलक्षण सिध्दियों के स्वामी हैं, और उनकी कुछ विलक्षण सिध्दियां बहुत शक्तिशाली हैं। मैं चीमन साधना पध्दति के तीन पहुंचे हुए गुरुओं से मिला हूं जिन्होंने मुझे कुछ ऐसी विधियां सिखाईं जो बुध्द या ताओ विचारधारा में नहीं पाई जातीं। साधना के दौरान इन सभी विधियों का अभ्यास बहुत कठिन था, इसलिए जो गोंग प्राप्त हुआ वह विलक्षण था। इसके विपरीत, तथाकथित बुध्द तथा ताओ विचारधारा की साधना पध्दतियों में कठोर नैतिकगुण मानदण्ड का अभाव है, जिस कारण उनके अभ्यासी उच्च स्तर पर साधना नहीं कर पाते। इसलिए हमें प्रत्येक साधना प्रणाली को निष्पक्ष रूप से देखना चाहिए।
(2) युध्द कला चीगोंग
युध्द कला चीगोंग एक प्राचीन परंपरा की देन है। इसके अपने सिध्दान्तों और साधना पध्दतियों की पूर्ण प्रणाली होने के कारण, यह एक स्वतन्त्र प्रणाली बन गई है। स्पष्ट कहा जाये तो, इसमें वही अलौकिक सिध्दियां विकसित होती हैं जो आन्तरिक साधना के निम्नतम स्तर पर होती हैं। वे सभी अलौकिक सिध्दियां जो युध्द कला साधना में विकसित होती हैं वे आन्तरिक साधना में भी विकसित होती हैं। युध्द कला साधना का आरंभ भी ची क्रियाओं के करने से होता है। उदाहरण के लिए, जब एक पत्थर को वार करके तोड़ना होता है, तो आरंभ में युध्द कला अभ्यासी को अपनी बाहें घुमानी होती हैं जिससे उनमें ची सक्रिय हो सके। समय के साथ, उसके ची की प्रकृति बदल जाती है और यह एक शक्ति पुंज बन जाती है जिसकी उपस्थिति प्रकाश रूप में प्रतीत होती है। इस स्थिति पर उसका गोंग भी कार्य करना आरंभ कर देता है। गोंग में चेतनता होती है क्योंकि यह एक विकसित पदार्थ है। इसका अस्तित्व दूसरे आयाम में होता है और यह उसके मस्तिष्क से आने वाले विचारों द्वारा नियन्त्रित होता है। हमला होने पर, युध्द कला अभ्यासी को ची पहुंचाने की आवश्यकता नहीं पड़ती; केवल एक विचार करने से ही गोंग आ जाता है। साधना के विकासक्रम में उसका गोंग लगातार सुदृढ़ होता रहेगा, इसके कण और परिष्कृत और शक्ति और सघन होती जायेगी। लौह रेत पंजा, और सिंदूर पंजे जैसे कौशल प्रकट होंगे। जैसे हम फिल्मों, पत्रिकाओं और टेलीविजन कार्यक्रमों में देखते हैं, कुछ वर्षों में सुनहरे घंटियों वाली ढ़ाल और लौह कवच जैसे कौशल प्रकट हुए हैं। ये आन्तरिक साधना और युध्द कला साधना के परस्पर अभ्यास से उत्पन्न होते हैं। वे आन्तरिक और बाह्य साधना को एक साथ करने पर विकसित होते हैं। आन्तरिक साधना के लिए, व्यक्ति को नैतिकता का पालन और नैतिकगुण की साधना करना आवश्यक है। इसे यदि सैध्दान्तिक दृष्टिकोण से समझाया जाये तो, जब किसी व्यक्ति की योग्यताऐं एक विशेष स्तर तक पहुंच जाती हैं, तब गोंग शरीर के आन्तरिक भाग से बाह्य भाग की ओर निकलता है। इसके ऊंचे घनत्व के कारण यह एक सुरक्षा ढ़ाल बन जाता है। नियमों के अनुसार, हमारी आन्तरिक साधना और युध्द कला साधना में सबसे मुख्य अन्तर यह है कि युध्द कलाओं में बहुत प्रबल गति क्रियाऐं की जाती हैं और अभ्यासी शान्ति अवस्था में प्रवेश नहीं करते। शान्ति अवस्था में न रहने से ची त्वचा के नीचे प्रवाहित होती है और पेषियों के आर-पार निकलती है, इसका प्रवाह व्यक्ति के तानत्येन[33] में नहीं होता। इसलिए वे चेतनता की साधना नहीं करते, और न ही वे इसके सक्षम हैं।
(3) विपरीत साधना और गोंग ऋण
कुछ लोगों ने कभी चीगोंग का अभ्यास नहीं किया। तब एक दिन उन्हें अचानक गोंग की प्राप्ति हो जाती है और उनकी शक्ति बहुत प्रबल होती है, और वे दूसरों के रोग भी ठीक कर पाते हैं। लोग उन्हें चीगोंग गुरु कहने लगते हैं और वे, स्वयं भी, दूसरों को सिखाने लगते हैं। उनमें से कुछ, यद्यपि उन्होंने स्वयं कभी चीगोंग नहीं सीखा या उसकी केवल कुछ क्रियाऐं ही सीखी हैं, दूसरों को कुछ फेरबदल करके सिखाने लगते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति चीगोंग गुरु कहलाने के योग्य नहीं है। उनके पास दूसरों को देने के लिए कुछ नहीं होता। वे जो कुछ सिखाते हैं उसका प्रयोग उच्च स्तर की साधना के लिए नहीं किया जा सकता; अधिक से अधिक उसका प्रयोग रोग हटाने और स्वास्थ्य की प्राप्ति में प्रयोग हो सकता है। इस प्रकार का गोंग कैसे आता है? पहले विपरीत साधना की बात करते हैं। साधारणत: ''विपरीत साधना'' का संबंध उन भद्र लोगों से है जिनका नैतिकगुण बहुत ऊंचा होता है। अधिकतर वे वृध्द होते हैं, लगभग पचास से अधिक उम्र के। उनके पास आरंभ से साधना करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता, क्योंकि ऐसे पहुंचे हुए गुरुओं का मिल पाना सरल नहीं है जो शरीर और मन दोनों के साधना की चीगोंग क्रियाऐं सिखा सकें। जिस पल इस प्रकार के व्यक्ति को साधना करने की इच्छा होती है, उच्च स्तर के गुरु उस व्यक्ति के पास उसके नैतिकगुण के अनुपात में गोंग भेज देते हैं। इससे विपरीत में साधना, ऊपर से नीचे की ओर, संभव हो पाती है, और इस प्रकार यह बहुत शीघ्र हो जाती है। दूसरे आयाम में, ऊंचे स्तर के गुरु परावर्तन करते हैं और उस व्यक्ति को लगातार उसके शरीर के बाहर से गोंग उपलब्ध करते रहते हैं; विशेषकर तब जब वह व्यक्ति उपचार कर रहा होता है और उसके चारों ओर ऊर्जा क्षेत्र बना होता है। गुरु द्वारा दिया गया गोंग वैसे ही प्रवाहित होता है जैसे एक पाइप लाइन में। कुछ लोग यह जानते भी नहीं हैं कि गोंग कहां से आ रहा है। यह विपरीत साधना है।
दूसरे प्रकार की साधना ''गोंग ऋण'' कहलाती है, और इसके लिए उम्र की सीमा नहीं है। एक व्यक्ति के पास एक मुख्य चेतना (ज़ु यिशी) के साथ-साथ सह चेतना (फु यिशी) होती है, और यह मुख्य चेतना की तुलना में साधारणत: ऊंचे स्तर पर होती है। कुछ लोगों की सह चेतनाऐं इतने ऊंचे स्तर पर पहुंच जाती हैं कि वे ज्ञान प्राप्त लोगों से संपर्क कर सकती हैं। जब इस प्रकार के लोग साधना करना चाहते हैं, उनकी सह चेतनाऐं भी अपने स्तरों में उन्नति करना चाहती हैं और तुरन्त उन ज्ञान प्राप्त लोगों से गोंग को ऋण पर प्राप्त करने के लिए संपर्क करती हैं। गोंग को ऋण के रूप में प्रदान किये जाने के बाद यह व्यक्ति रातोंरात उसे प्राप्त कर लेता है। गोंग की प्राप्ति के बाद, उसमें लोगों का उपचार कर उनके दु:ख दर्द हटाने की योग्यता आ जाती है। वह व्यक्ति साधारणत: ऊर्जा क्षेत्र बना कर उपचार करने की प्रणाली का प्रयोग करता है। उसमें लोगों को व्यक्तिगत रूप से शक्ति प्रदान करने और कुछ तरीके सिखाने की योग्यता भी आ जाती है।
इस प्रकार के लोगों की शुरूआत साधारणतया बहुत अच्छी होती है। क्योंकि उनके पास गोंग होता है, वे लोकप्रिय हो जाते हैं और उन्हें प्रसिध्दि और निजी लाभ दोनों प्राप्त होते हैं। प्रसिध्दि और निजी लाभ के प्रति आसक्ति उनकी विचारधारा का एक बड़ा भाग बन जाती है & साधना से भी अधिक। उस स्थिति के बाद उनका गोंग कम होने लगता है, और कम होते होते अंत में समाप्त हो जाता है।
(4) विश्वक भाषा
कुछ लोग अचानक ही एक विशेष प्रकार की भाषा बोलने लगते हैं। जब वे बोलते हैं तो यह बहुत धारा प्रवाह सुनाई देती है, फिर भी यह किसी भी मानव समाज की भाषा नहीं है। इसे क्या कहा जाता है? इसे खगोलीय भाषा कहते हैं। ''विश्वक भाषा'' कहलाई जाने वाली यह वस्तु वास्तव में उन परजीवों की है जिनका स्तर बहुत ऊंचा नहीं है। वर्तमान में यह घटना देश भर के कई चीगोंग अभ्यासियों के साथ हो रही है; उनमें से कुछ तो कई प्रकार की भाषाऐं बोल सकते हैं। वास्तव में, हमारी मनुष्य जाति की भाषाऐं भी उत्कृष्ट हैं और वे एक हजार से भी अधिक प्रकार की हैं। क्या विश्वक भाषा को एक अलौकिक सिध्दि मानना चाहिए? मैं कहता हूं कि ऐसा नहीं है। यह कोई इस प्रकार की अलौकिक सिध्दि नहीं है जो आपसे उत्पन्न हुई हो, न ही यह उस प्रकार की सिध्दि है जो आपके बाहर से आई हो। बल्कि, यह बाहरी परजीवों का कौशल है। इन परजीवों का अस्तित्व कुछ ऊंचे स्तर से है & कम से कम मनुष्य जाति से ऊंचे स्तर से। उनमें से ही एक वार्तालाप करता है, जबकि जो व्यक्ति विश्वक भाषा बोल रहा होता है केवल एक माध्यम का कार्य करता है। अधिकतर लोग स्वयं यह नहीं जानते वे क्या बोल रहे हैं। केवल वे लोग जिनके पास मन को पढ़ पाने की योग्यता है, उन शब्दों का कुछ अर्थ लगा पाते हैं। यह अलौकिक सिध्दि नहीं है, किन्तु कई लोग जो इन भाषाओं को बोल चुके हैं स्वयं को श्रेष्ठ और गर्वान्वित महसूस करते हैं और मानते हैं कि यह एक अलौकिक सिध्दि है। वास्तव में, ऊंचे स्तर के तीसरे नेत्र वाला व्यक्ति निश्चित रूप से यह देख सकता है कि इस व्यक्ति के ठीक ऊपर से एक परजीव उसके मुंह के द्वारा बोल रहा है।
वह परजीव इस व्यक्ति को अपनी कुछ शक्ति देते हुए विश्वक भाषा बोलना सिखाता है। किन्तु इसके बाद यह व्यक्ति उसके नियन्त्रण में होगा, इसलिए यह सच्चा साधना मार्ग नहीं है। यद्यपि वह परजीव कुछ ऊंचे आयाम में है, किन्तु यह सच्चा साधना मार्ग नहीं है। इसलिए वह यह नहीं जानता कि साधकों को स्वस्थ रहना या रोग उपचार करना कैसे सिखाया जाये। इसलिए, वह बोलने के द्वारा शक्ति देने की विधि का प्रयोग करता है। क्योंकि यह बिखर जाती है, इस ऊर्जा में कोई शक्ति नहीं होती। यह कुछ मामूली रोगों के उपचार के लिए प्रभावशाली है किन्तु गंभीर रोगों के लिए अनुपयुक्त है। बुध्दमत बताता है कि कैसे ऊंचे स्तर के जीव साधना नहीं कर पाते क्योंकि वहां कष्ट और विरोधाभास का अभाव होता है; साथ ही, वे स्वयं तप नहीं कर सकते और अपना स्तर बढ़ा पाने में असमर्थ होते हैं। इसलिए वे ऐसे तरीके खोजते हैं जिससे लोगों को अपना स्वास्थ्य सुधारने में मदद मिल सके ओर वे स्वयं का स्तर उठा सकें। यही विश्वक भाषा है। यह न तो कोई अलौकिक सिध्दि है और न ही चीगोंग ।
(5) प्रेत ग्रसित होना (फूटी)
प्रेत ग्रसित (फूटी) होने का सबसे हानिकारक प्रकार किसी निम्न स्तर के परजीव द्वारा ग्रसित होना है। यह किसी दुष्ट मार्ग द्वारा साधना करने से होता है। यह लोगों के लिए वास्तव में हानिकारक है, और प्रेत ग्रसित होने के परिणाम भयावह होते हैं। अभ्यास आरंभ करने के कुछ समय पश्चात ही, कुछ लोगों में रोग उपचार करने और पैसा कमाने की धुन सवार हो जाती है; वे पूरे समय केवल इसी बारे में सोचते रहते हैं। हो सकता है आरंभ में बहुत अच्छे रहे हों और किसी गुरु की देखरेख में हों। किन्तु, जब वे रोग उपचार करने और पैसा कमारे के बारे में सोचने लगते हैं तो बात बिगड़ जाती है। तब वे इस प्रकार के परजीव को आकर्षित कर बैठते हैं। हालांकि यह हमारे भोतिक आयाम में नहीं है किन्तु इसका वास्तव में अस्तित्व होता है।
इस प्रकार के साधक अचानक यह अनुभव करते हैं कि उनका तीसरा नेत्र खुल गया है और उनके पास गोंग है, किन्तु यह वास्तव में ग्रसित करने वाली दुष्टात्मा है जिसका उनके मस्तिष्क पर नियंत्रण है। जो यह देखती है उसी की झलक उसके मस्तिष्क पर परावर्तित करती है, जिससे उस व्यक्ति को लगता है उसका तीसरा नेत्र खुल गया है। जबकि उस व्यक्ति का तीसरा नेत्र किसी भी तरह नहीं खुला है। ग्रसित करने वाली दुष्टात्मा या पशु उस व्यक्ति को गोंग क्यों देना चाहते हैं? यह उसकी मदद क्यों करना चाहती है? यह इसलिए क्योंकि हमारे विश्व में पशुओं को साधना करना निषेध है। पशुओं को सच्चे साधना मार्ग की प्राप्ति की अनुमति नहीं है क्योंकि वे न तो नैतिकगुण के बारे में कुछ जानते हैं और न ही अपने में सुधार कर सकते हैं। परिणामस्वरूप, वे मानव शरीर में प्रवेश करके मानव सत्व प्राप्त करना चाहते हैं। इस विश्व में एक दूसरा नियम भी है, अर्थात : हानि के बिना लाभ नहीं मिलता। इसलिए वे प्रसिध्दि और निजी लाभ के प्रति आपकी इच्छा की पूर्ति करना चाहते हैं। वे आपको धनवान और प्रसिध्द बना देंगे, किन्तु वे आपकी मदद मुफ्त में नहीं करेंगे। वे भी कुछ पाना चाहते हैं : आपका सत्व। जब वे आपको छोड़ेंगे आपके पास कुछ नहीं बचेगा और आप बहुत कमजोर, क्षीण हो चुके होंगे। यह आपके गिरे हुए नैतिकगुण के कारण होता है। एक सच्चा मन हजार बुराईयों को दबा सकता है। जब आप सच्चे हैं आप बुराई को आकर्षित नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, एक पवित्र साधक बनें, बुराईयों से बचें और केवल सच्ची साधना मार्ग का अभ्यास करें।
(6) एक सच्चा अभ्यास दुष्ट साधना मार्ग बन सकता है
यद्यपि कुछ लोग जो अभ्यास पध्दतियां सीखते हैं वे सच्चे साधना मार्ग की होती है, वे वास्तव में भूल से दुष्ट मार्ग अपना सकते हैं क्योंकि वे स्वयं पर कठिन आवश्यकताओं की पूर्ति, अपने नैतिकगुण का संवर्धन और अपनी क्रियायें करते हुए बुरे विचारों को रोकना, नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति खड़े होकर मुद्रा या बैठ कर ध्यानमुद्रा में होता है, उसके विचार वास्तव में धान, प्रसिध्दि, निजी स्वार्थ पर होते हैं या यह कि "उसने मेरे साथ बुरा किया है, मुझे अलौकिक सिध्दियां मिल जाऐं फिर मैं इसे देख लूंगा"। या वह किसी अलौकिक सिध्दि के बारे में सोच रहा होता है, जिससे उसके अभ्यास में कुछ बहुत बुरे तत्वों का मिलन हो जाता है और वास्तव में वह दुष्ट मार्ग से अभ्यास कर रहा है। यह बहुत खतरनाक है क्योंकि इससे कुछ निम्नस्तर के परजीव जैसे बुरे तत्व आकर्षित हो सकते हैं। हो सकता है वह व्यक्ति जानता भी न हो उसने उन्हें बुला लिया है। उसकी आसक्ति बहुत अधिक है; अपनी इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से साधना अभ्यास करना अमान्य है। वह पवित्र नहीं है, और उसका गुरु भी उसकी रक्षा करने में असमर्थ होगा। इसलिए, यह आवश्यक है कि साधक अपने नैतिकगुण को कठोरता से संभाले, मन पवित्र रखे और कोई आसक्ति न रखे। इसके विपरीत करने पर समस्याऐं आ सकती हैं।