फालुन प्रतीक
हमारे फालुन दाफा का प्रतीक फालुन है। जिनके पास दिव्य सिध्दियाँ हैं वे देख सकते हैं कि यह फालुन आवर्तन कर रहा है। वैसा ही हमारे छोटे फालुन चिन्हों के लिए भी सत्य है, वे भी आवर्तन कर रहे हैं। हमारा साधना अभ्यास ब्रह्माण्ड की प्रकृति सत्य-करूणा-सहनशीलता, और ब्रह्माण्ड के क्रम-विकास के सिध्दांतों से निर्देशित होता है। इसलिए, जिसकी हम साधना करते हैं वह बहुत प्रगाढ़ है। एक प्रकार से, यह फालुन प्रतीक ब्रह्माण्ड का एक लघु रूप है। बुध्द विचारधारा में ब्रह्माण्ड की एक दस दिशाओं वाले विश्व की धारणा है जिसके चार मुख हैं और आठ भुजाएँ हैं। हो सकता है कुछ लोग फालुन के ऊपर और नीचे एक लम्बवत् शक्ति स्तम्भ देख सकें। इसके ऊपरी और निचले भाग के साथ, फालुन ठीक एक दस दिशाओं वाले विश्व को बनाता है और इस ब्रह्माण्ड को स्थापित करता है। यह बुध्द विचारधारा के ब्रह्माण्ड को संक्षेप में दर्शाता है।
यह ब्रह्माण्ड नि:संदेह अनेकों आकाशगंगाओं से बना है जिसमें हमारी आकाशगंगा भी सम्मिलित है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड गतिशील है, और साथ ही इसके अंदर सभी आकाशगंगाएँ भी। इसलिए, ताइची चिन्ह और प्रतीक में छोटे
चिन्ह भी आवर्तन कर रहे हैं। संपूर्ण फालुन आवर्तन कर रहा है, और मध्य में बड़ा चिन्ह भी आवर्तन कर रहा है। एक प्रकार से, यह हमारी आकाशगंगा को दर्शाता है। क्योंकि हम बुध्द विचारधारा से हैं, इसलिए मध्य में बुध्द विचारधारा का चिन्ह रखा गया है; इसकी सतह इस प्रकार दिखाई पड़ती है। सभी विभिन्न वस्तुओं के अपने अस्तित्व के रूप होते हैं जो उन दूसरे आयामों में विद्यमान होते हैं जहाँ उनकी बहुत महान और बहुत जटिल विकास की प्रणालियाँ और स्वरूप होते हैं। हमारा फालुन प्रतीक ब्रह्माण्ड का लघु रूप है। इसका सभी आयामों में अपना अस्तित्व का रूप और विकास की प्रणाली भी है, इसलिए मैं इसे एक विश्व कहता हूँ।
जब फालुन घड़ी की दिशा में आवर्तन करता है, यह ब्रह्माण्ड से स्वचालित शक्ति ग्रहण कर सकता है। घड़ी की विपरीत दिशा में आवर्तन करते हुए, यह शक्ति छोड़ सकता है। अन्दर की ओर (घड़ी की दिशा में) आवर्तन स्वयं को मुक्ति प्रदान करता है जबकि बाहर की ओर (घड़ी की विपरीत दिशा में) आवर्तन दूसरों को मुक्ति प्रदान करता है- यह हमारे अभ्यास का एक लक्षण हैं। कुछ लोग पूछते हैं : "जब हम बुध्द विचारधारा से हैं, तो ताइची का प्रयोग क्यों करते हैं? क्या ताइची ताओ विचारधारा से संबंधित नहीं है?" यह इसलिए है क्योंकि जो हम साधना करते हैं वह बहुत प्रगाढ़ है, जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड की साधना करने जैसा है। तब आप सब यह सोचें : यह ब्रह्माण्ड दो मुख्य विचारधाराओं से स्थापित है, बुध्द विचारधारा और ताओ विचारधारा। यदि हम एक को भी छोड़ दें, तो यह एक पूर्ण ब्रह्माण्ड को स्थापित नहीं करेगा, और न ही इसे एक पूर्ण ब्रह्माण्ड कहा जा सकता है। तदनुसार, हमने ताओ विचारधारा से भी वस्तुऐं सम्मिलित की हैं। साथ ही कुछ लोग कहते हैं कि ताओ विचारधारा के अलावा, ईसाई, कन्फ्यूशियन, आदि और दूसरे धर्म भी हैं। मैं आपको बताना चाहूँगा कि इसकी साधना एक बहुत ऊँचे स्तर तक पहुँचने पर, कन्फ्यूशियन मत ताओ विचारधारा से संबंधित होता है; जब अनेक पश्चिमी धार्मिक साधना अभ्यास ऊँचे स्तरों पर पहुँचते हैं, उन्हें हमारी पध्दति की भाँति ही बुध्द विचारधारा से संबंधित माना जाता है। केवल यही दो मुख्य विचारधाराएँ हैं।
तब दो ताइची चिन्हों के ऊपरी भाग में लाल और नीचे भाग में नीला, और दूसरे दो ताइची चिन्हों के ऊपरी भाग में लाल और नीचे भाग में काला क्यों है? जो हम साधारणत: जानते हैं कि ताइची काले और श्वेत दो पदार्थों से बना होता है, जो यिन और येंग की ची है। यह धारणा बहुत निम्न स्तर से आई है, क्योंकि ताइची के विभिन्न आयामों में विभिन्न अभिव्यक्त रूप होते हैं। उच्चतम स्तर पर, इसके रंग इस प्रकार प्रकट होते हैं। जिस ताओ को हम साधारणत: जानते हैं उसमें ऊपर लाल और नीचे काला रंग होता है। उदाहरण के लिए, हमारे कुछ अभ्यासियों के दिव्य नेत्र खुले हैं, और उन्होंने पाया है कि लाल रंग जो वे अपनी ऑंखों से देखते हैं साथ के दूसरे आयाम में हरा है। सुनहरी रंग दूसरे आयाम में बैंगनी दिखाई देता है, क्योंकि इसका ऐसा परिवर्तन होता है। दूसरे शब्दों में, एक आयाम से दूसरे आयाम में रंग बदलते रहते हैं। वह ताइची जिसमें ऊपर लाल रंग है और नीचे नीला महान प्राचीन ताओ विचारधारा से संबंधित हैं, जिसमें चीमन विचारधारा की साधना पध्दतियां भी सम्मिलित हैं। चार छोटे
चिन्ह बुध्द विचारधारा से हैं। वे उसी के समान हैं जैसा मध्य में चिन्ह है, वह भी बुध्द विचारधारा से है। इन रंगों में फालुन अपेक्षाकृत उज्जवल दिखाई देता है, और हम इसे फालुन दाफा के प्रतीक चिन्ह की भांति प्रयोग करते हैं।
फालुन जो हमें दिव्य नेत्र द्वारा दिखाई पड़ता है आवश्यक नहीं कि इन्हीं रंगों में हो, क्योंकि इसका पृष्ठभूमि का रंग बदल सकता है, हालांकि इसकी रूपरेखा नहीं बदलती। जब यह फालुन जिसे मैंने आपके उदर के निचले भाग में स्थापित किया है आवर्तन करता है, आपका दिव्य नेत्र इसे लाल, बैंगनी, हरे रंग में या शायद रंगहीन देख सकता है। इसका पृष्ठभूमि का रंग लाल, संतरी, पीला, हरा, आसमानी, नीला, और बैंगनी रंगों के क्रम में बदलता रहता है। परिणामस्वरूप, हो सकता है जो आप देखें वह भिन्न रंगों में हो, किन्तु इसके अंदर के श्रीवत्स 1 चिन्ह या ताइची के रंग और रूपरेखा समान रहेंगे। हमने पाया कि यह पृष्ठभूमि का रंग अपेक्षाकृत अच्छा दिखाई देता है, इसलिए हमने इसे अपना लिया। जिनके पास दिव्य सिध्दियाँ हैं वे इस आयाम के पार बहुत सी वस्तुएं देख सकते हैं।
कुछ लोग कहते हैं : "यह चिन्ह हिटलर के चिन्ह जैसा दिखाई देता है।" मैं आपको बताना चाहूँगा कि यह चिन्ह स्वयं में किसी वर्ग की धारणा को नहीं दर्शाता। कुछ लोग कहते हैं : "यदि इसका कोना इस ओर झुक जाये, तो यह हिटलर का चिन्ह बन जायेगा।" यह इस प्रकार नहीं है, क्योंकि यह दोनों ओर आवर्तन करता है। हमारा मानव समुदाय इस चिन्ह को बड़े स्तर पर पच्चीस सौ वर्ष पूर्व शाक्यमुनि के समय में जानने लगा था। दूसरे विश्व युध्द के दौरान हिटलर के समय को कुछ दशक ही हुए हैं। उसने इसका प्रयोग किया, किन्तु जो रंग उसने प्रयोग किया वह हमारे से भिन्न था। यह काला था और इसका कोना ऊपर की ओर था, और इसे सीधी स्थिति में प्रयोग किया गया था। मैं इस फालुन के बारे में इतना ही कहूँगा, हालांकि मैंने केवल इसके सतही रूप का वर्णन किया है।
तब यह हमारे बुध्द विचारधारा में क्या दर्शाता है? कुछ लोग कहते हैं कि यह अच्छे भाग्य का सूचक है, जो साधारण लोगों की व्याख्या है। मैं आपको बताना चाहूँगा कि एक बुध्द के स्तर को दर्शाता है। यह केवल बुध्द स्तर पर विद्यमान होता है। किसी बौधिसत्व या अरहत के पास यह नहीं होता। किन्तु मुख्य बौधिसत्व, चार मुख्य बौधिसत्वों के पास यह है। हमने पाया है कि ये चार मुख्य बौधिसत्व साधारण बुध्द स्तर से भी कहीं आगे निकल गई हैं, और वे तथागत से भी ऊँची हैं। तथागत स्तर के आगे, अनेकों बुध्द होते हैं। एक तथागत के पास केवल एक चिन्ह होता है। जो तथागत स्तर से आगे निकल गये हैं उनके पास और अधिक चिन्ह होते हैं। एक बुध्द जिनका स्तर तथागत से दो गुणा अधिक ऊँचा होता है उनके पास दो चिन्ह होते हैं। जो और अधिक ऊँचे होते हैं, उनके पास तीन, चार, पांच, आदि श्रीवत्स होते हैं। कुछ के पास इतने अधिक श्रीवत्स होते हैं कि वे उनके पूरे शरीर पर होते हैं जिसमें उनका सिर, कंधे, और घुटने सम्मिलित हैं। जब वे बहुत अधिक होते हैं, वे उनकी हथेलियों, अंगुलियों, पैर की एड़ियों और पंजों आदि पर भी प्रकट हो जाते हैं। जैसे-जैसे स्तर बढ़ता जाता है, चिन्ह भी और अधिक बढ़ते जाते हैं। इसलिए, चिन्ह एक बुध्द की पदवी को दर्शाता है। जितनी अधिक ऊँची किसी बुध्द की पदवी होती है, उतने अधिक चिन्ह उस बुध्द के पास होते हैं।
चीमन विचारधारा
बुध्द विचारधारा और ताओ विचारधारा के अलावा, एक चीमन विचारधारा है, जो स्वयं को चीमन साधना पध्दति कहती है। जहाँ तक साधना पध्दतियों का प्रश्न है, साधारण लोगों का यह मानना है: प्राचीन चीन से आज तक, लोगों ने बुध्द विचारधारा और ताओ विचारधारा को पारंपरिक साधना मार्ग माना है, और वे उन्हें साधना अभ्यास के उचित मार्ग भी कहते हैं। इस चीमन विचारधारा को कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया, और साहित्यिक पुस्तकों के अलावा, बहुत ही कम लोगों ने इसके अस्तित्व के बारे में सुना है।
क्या चीमन विचारधारा का अस्तित्व है? हाँ। मेरे साधना अभ्यास के क्रम के दौरान, विशेषकर बाद के वर्षों में, मैं चीगोंग विचारधारा के तीन बहुत पहुँचे हुए गुरुओं से मिला। उन्होंने मुझे अपनी पध्दतियों का सार प्रदान किया, जो बहुत अनोखी और बहुत अच्छी वस्तुऐं थीं। क्योंकि यह बहुत अनोखा है, साधना द्वारा जो यह संवर्धन करता है बहुत भिन्न है और अधिकांश लोगों द्वारा नहीं समझा जा सकता। इसके अतिरिक्त, उनका मत है कि वे न तो बुध्द विचारधारा से संबंधित हैं और न ही ताओ विचारधारा से। वे न तो बुध्दत्व की प्राप्ति के लिए साधना करते हैं और न ही ताओ के लिए। यह जानने पर कि वे न तो बुध्दत्व के लिए या ताओ के लिए साधना करते हैं, लोग उन्हें "पार्श्व द्वार और बेढंगा मार्ग" (पैंगमेन जुओताओ) कहते हैं। वे स्वयं को चीमन विचारधारा कहते हैं। पार्श्व द्वार और बेढंगे मार्ग का निम्न भावार्थ है, किन्तु यह नाकारात्मक रूप से नहीं है, क्योंकि यह इस विचारधारा को एक दुष्ट पध्दति नहीं मानता- यह निश्चित है। इस शब्द की साहित्यिक परिभाषा भी इसे दुष्ट पध्दति का दर्जा नहीं देती। इतिहास में, बुध्द विचारधारा और ताओ विचारधारा को "पारंपरिक विचारधाराएँ" कहा गया है। जब यह पध्दति लोगों द्वारा नहीं समझी जा सकती, लोग इसे "पार्श्व द्वार" या बगल का मार्ग और एक गैर-पारंपरिक विचारधारा कहते हैं। इसमें "बेढंगा मार्ग" क्या है ? "बेढंगे" का अर्थ है अव्यवस्थित या उलझा हुआ मार्ग। "बेढंगा" जो प्राचीन चीन का शब्द है उसे अक्सर अव्यवस्थित के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। पार्श्व द्वार और बेढंगा मार्ग इसी भावार्थ का सूचक है।
यह एक दुष्ट पध्दति क्यों नहीं है? यह इसलिए क्योंकि इसकी भी कठोर नैतिकगुण आवश्यकताएँ हैं। इसकी साधना पध्दति भी ब्रह्माण्ड की प्रकृति का पालन करती है। यह ब्रह्माण्ड की प्रकृति या सिध्दांत की अवमानना नहीं करती, और न ही यह बुरे कार्यों में लिप्त होती है। इसलिए, इसे एक दुष्ट पध्दति नहीं कहा जा सकता। बुध्द विचारधारा और ताओ विचारधारा पारंपरिक विचारधाराएं हैं, इसलिए नहीं कि ब्रह्माण्ड की प्रकृति उनकी पध्दतियों के अनुरूप है, बल्कि बुध्द और ताओ विचारधारा दोनों की पध्दतियाँ ब्रह्माण्ड की प्रकृति का पालन करती हैं। यदि चीमन विचारधारा की साधना पध्दति भी ब्रह्माण्ड की प्रकृति के अनुरूप है, तो यह एक दुष्ट पध्दति नहीं है बल्कि एक उचित विचारधारा है। यह इसलिए क्योंकि अच्छाई या बुराई और परोपकार या दुष्टता में भेद करने का मानदण्ड ब्रह्माण्ड की प्रकृति है। इसकी साधना ब्रह्माण्ड की प्रकृति का पालन करती है, इसलिए यह भी एक उचित मार्ग है, हालांकि इसकी आवश्यकताएं बुध्द विचारधारा और ताओ विचारधारा से भिन्न हैं। यह बड़े स्तर पर शिष्यों को शिक्षा नहीं देती, और यह जनसमुदाय के बहुत कम भाग को सिखाया जाता है। ताओ विचारधारा बहुत से शिष्यों को शिक्षा देती है, किन्तु केवल एक शिष्य सच्ची शिक्षाएँ प्राप्त करता है। बुध्द विचारधारा समस्त प्राणियों के उध्दार में विश्वास करती है, इसलिए जो कोई साधना का अभ्यास कर सकता है वह इसे कर सकता है।
एक चीमन विचारधारा पध्दति को दो लोगों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि इतिहास में लम्बे समय से यह केवल एक चुने हुए व्यक्ति को हस्तांतरित होती रही है। इसलिए, पूरे इतिहासकाल में यह साधारण लोगों की नजरों में नहीं आई। नि:संदेह, जब चीगोंग प्रसिध्द था, मैंने पाया कि इस विचारधारा के कुछ लोग सिखाने के लिए सामने आए। कुछ सार्वजनिक शिक्षाओं के बाद, हालांकि, उन्होंने जाना कि यह संभव नहीं है क्योंकि उनके गुरु ने इसमें से कुछ भाग लोगों के बीच सिखाने की मनाही की थी। यदि आप इसे लोगों के बीच सिखाना चाहते हैं, तो आप शिष्यों का चुनाव नहीं कर सकते। जो इसे सीखने आयेंगे वे विभिन्न नैतिकगुण के स्तर और विभिन्न मानसिकताएँ लायेंगे, क्योंकि वे सभी प्रकार के विभिन्न लोग हैं। आप सिखाने के लिए शिष्यों का चुनाव नहीं कर सकेंगे। इसलिए, चीमन विचारधारा को लोगों के बीच बड़े स्तर पर नहीं सिखाया जा सकता। ऐसा करना सरलता से खतरा उत्पन्न कर सकता है क्योंकि इसका अभ्यास बहुत अनोखा है। कुछ लोग आश्चर्य करते हैं कि जब बुध्द विचारधारा में बुध्दत्व की प्राप्ति के लिए और ताओ विचारधारा में ताओ की प्राप्ति के लिए साधना की जाती है, एक चीमन विचारधारा का अभ्यासी साधना पूर्ण होने के बाद क्या बनेगा? यह व्यक्ति एक विचरण करता हुआ देवता होगा जिसकी ब्रह्माण्ड में कोई निश्चित सीमा नहीं होगी। हर कोई यह जानता है कि तथागत शाक्यमुनि का साहा दिव्यलोक है, बुध्द अमिताभ का परमानंद का दिव्यलोक है, और औषध बुध्द का आभावान दिव्यलोक है। प्रत्येक तथागत या महान बुध्द का स्वयं अपना दिव्यलोक है। प्रत्येक महान ज्ञानप्राप्ति व्यक्ति अपने दिव्यलोक का निर्माण करता है, और उसके कई शिष्य वहाँ रहते हैं। किन्तु जो चीमन विचारधारा से हैं उनकी ब्रह्माण्ड में कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं होती, और यह व्यक्ति एक घूमते हुए देवता या अकेले अमर प्राणी की भांति होता है।
दुष्ट साधना का अभ्यास
"दुष्ट साधना का अभ्यास" क्या होता है? इसके कई प्रकार हैं। ऐसे लोग होते हैं जिन्हें दुष्ट साधना के अभ्यास में महारथ हासिल है, क्योंकि पूरे इतिहासकाल में ऐसे लोग रहे हैं जो इन वस्तुओं को हस्तांतरित करते रहे हैं। उन्हें हस्तांतरित क्यों किया जाता रहा है? यह इसलिए क्योंकि वे साधारण लोगों के बीच प्रसिध्दि, निजी लाभ, और धन खोजते हैं; वे यही चाहते हैं। निश्चित ही, इस प्रकार के व्यक्ति का ऊँचे स्तर का नैतिकगुण नहीं होता और वह गोंग प्राप्त नहीं कर सकता। तब वह क्या प्राप्त कर सकता है? कर्म। यदि व्यक्ति के पास बहुत अधिक कर्म है, यह एक प्रकार की शक्ति बन सकता है। किन्तु इस व्यक्ति की कोई पदवी नहीं होती और उसकी एक अभ्यासी के साथ तुलना नहीं की जा सकती। हालांकि, साधारण लोगों की तुलना में, वह उन पर प्रभाव डाल सकता है क्योंकि कर्म भी एक प्रकार की शक्ति होती है। जब इसका घनत्व बहुत अधिक हो जाता है, यह भी व्यक्ति के शरीर की दिव्य सिध्दियों को सुदृढ़ कर सकता है और इस प्रकार का प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। इसलिए, पूरे इतिहासकाल के दौरान कुछ लोग इसे सिखाते रहे हैं। ऐसा व्यक्ति कहता है : "बुरे कार्य करने और अपशब्द कहने से, मैं अपना गोंग बढ़ा सकता हूँ।" वह गोंग नहीं बढ़ा रहा है। वास्तव में, वह अपने काले पदार्थ का घनत्व बढ़ा रहा है, क्योंकि बुरे कार्य करने से बुरा पदार्थ, कर्म उत्पन्न होता है। इसलिए, इस व्यक्ति की छोटी-मोटी जन्मजात दिव्य सिध्दियाँ इस कर्म द्वारा सुदृढ़ हो सकती हैं। वह कुछ छोटी दिव्य सिध्दियाँ विकसित कर सकता है, हालांकि वे कुछ भी महत्वपूर्ण करने में असमर्थ होती हैं। इन लोगों का मानना है कि बुरे कार्य करने से, वे भी गोंग बढ़ा सकते हैं- वे यही कहते हैं।
कुछ लोग कहते हैं : "जबकि एक ताओ एक फुट ऊँचा होता है, एक असुर एक गज ऊँचा होगा।" यह साधारण लोगों द्वारा बनाया गया एक गलत वक्तव्य है। एक असुर कभी भी किसी ताओ से ऊँचा नहीं हो सकता। सत्य यह है कि जिसे हम मनुष्य एक ब्रह्माण्ड मानते हैं वह अनेकों ब्रह्माण्डों में से एक लघु ब्रह्माण्ड है, और हम इसे संक्षेप में ब्रह्माण्ड कहते हैं। हर बार जब हमारा ब्रह्माण्ड बहुत अधिक वर्षों की समयावधि पूरी कर लेता है, यह सदैव एक महान प्रलय को प्राप्त होता है जो ब्रह्माण्ड में सभी कुछ नष्ट कर देता है, जिसमें सभी ग्रह और जीवन सम्मिलित हैं। ब्रह्माण्ड की गति एक सिध्दांत के अनुसार होती है। हमारे इस समय के ब्रह्माण्ड में, मानव समुदाय ही केवल एक प्रजाति नहीं है जो भ्रष्ट हो गई है। अनेको प्राणी पहले से ही इस परिस्थिति को देख चुके हैं, जहाँ तक वर्तमान समय की बात है, बहुत समय पहले इस ब्रह्माण्ड के अंतरिक्ष में एक महान विस्फोट हुआ था। आज, खगोलविद उसे नहीं देख सकते क्योंकि जो हम अब सबसे शक्तिशाली दूरबीनों द्वारा देख सकते हैं वे 150 हजार प्रकाश वर्ष पहले की वस्तुऐं हैं। आज के ब्रह्माण्ड के बदलावों को देखने के लिए, हमें 150 हजार वर्ष गुजरने की प्रतीक्षा करनी होगी। जो एक बहुत सुदूर काल है।
वर्तमान में, संपूर्ण ब्रह्माण्ड पहले ही एक महान बदलाव से गुजर चुका है। जब कभी इस प्रकार का बदलाव होता है, संपूर्ण ब्रह्माण्ड के सभी जीव पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं और छितर जाते हैं। हर बार जब यह परिस्थिति होती है, प्रकृति और पुराने ब्रह्माण्ड के अंदर के संपूर्ण पदार्थ का विस्फोट होना आवश्यक होता है। साधारणत:, इस विस्फोट से सभी जीव समाप्त हो जाते हैं। किन्तु हर बार विस्फोट से हर कोई नष्ट नहीं होता। एक अत्यन्त ऊँचे स्तर के महान ज्ञानप्राप्त प्राणियों द्वारा नये ब्रह्माण्ड के पुनर्निर्माण होने के बाद, कुछ प्राणी विस्फोट से बचे रह जाते हैं। महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति ब्रह्माण्ड का निर्माण उनकी अपनी प्रकृति और आदर्शों के अनुसार करते हैं। इसलिए, इसकी प्रकृति पिछले ब्रह्माण्ड से भिन्न होती है।
जो विस्फोट से बचे रह जाते हैं वे इस ब्रह्माण्ड में कार्य करने के लिए पिछली प्रकृति और सिध्दांतों को जकड़े रहते हैं। नवनिर्मित ब्रह्माण्ड अपने संचालन में नये ब्रह्माण्ड की प्रकृति और सिध्दांतों का पालन करता है। इस प्रकार, जो विस्फोट से बचे रह गये वे असुर बन जाते हैं जो ब्रह्माण्ड के सिध्दांतों में विघ्न डालते हैं। तब भी, वे उतने बुरे नहीं हैं क्योंकि वे केवल पिछले समय के ब्रह्माण्ड की प्रकृति का पालन कर रहे हैं। वे वही हैं जिन्हें लोग परलोक के असुरों की संज्ञा देते हैं। हालांकि, वे साधारण लोगों के लिए खतरा नहीं है, न ही वे लोगों को कोई क्षति पहुंचाते हैं। वे कार्य करने के लिए केवल अपने सिध्दांतों पर अटल रहते हैं। अतीत में, साधारण लोगों द्वारा यह जानने की मनाही थी। मैं कह चुका हूँ तथागत स्तर से आगे बहुत से बुध्द हैं। इन असुरों की क्या तुलना है? वे तुलना में बहुत निम्न हैं। बुढ़ापा, रोग, और मृत्यु भी असुरों के प्रकार हैं, किन्तु उन्हें ब्रह्माण्ड की प्रकृति को व्यवस्थित रखने के लिए बनाया जाता है।
बुध्दमत संसार के क्रम में विश्वास करता है, जिसमें असुर के विषय का वर्णन है। वास्तव में, इसका सन्दर्भ विभिन्न आयामों के प्राणियों से है, किन्तु वे मानवीय, जन्मजात प्रकृति धारण नहीं किये होते हैं। एक महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति के लिए, वे बहुत निम्न स्तर पर होते हैं और बहुत अयोग्य होते हैं। तब भी, वे साधारण लोगों की दृष्टि में भयावह होते हैं क्योंकि उनके पास कुछ शक्ति होती है। वे साधारण लोगों को पशुओं की तरह मानते हैं, इसलिए वे लोगों को ग्रास करने में प्रसन्न होते हैं। गत वर्षों में, वे भी चीगोंग सिखाने के लिए सामने आये हैं। वे किस प्रकार के प्राणी हैं? वे मनुष्यों की भांति कैसे दिखाई दे सकते हैं? वे बहुत भयावह दिखाई पड़ते हैं। एक बार उनकी वस्तुऐं सीख लेने पर, आपको उनके साथ जाना होगा और उनकी प्रजाति बनना होगा। चीगोंग अभ्यास में, यदि कुछ लोगों के बुरे विचार होते हैं जो उनकी मानसिकता से मेल खाते हैं, तो वे इन लोगों को सिखाने आ जायेंगे। एक पवित्र मन सौ बुराइयों को दबा सकता है। यदि आप किसी वस्तु का इच्छा प्रयास न करें, तो कोई भी आपको परेशान करने का साहस नहीं करेगा। यदि आप बुरा विचार उत्पन्न कर लेते हैं या किसी बुरी वस्तु के पीछे जाते हैं, वे आपकी मदद के लिए आ जायेंगे, और आप एक दुष्ट साधना मार्ग का अनुसरण कर रहे होंगे। यह समस्या आ सकती है।
दूसरी परिस्थिति को "अंजाने में एक दुष्ट साधना मार्ग का अभ्यास करना" कहा जाता है। "अंजाने में एक दुष्ट साधना मार्ग का अभ्यास करना" क्या होता है ? यह तब होता है जब कोई बिना जाने हुए किसी दुष्ट मार्ग का अभ्यास करता है। यह समस्या बहुत सार्वजनिक है और बहुत व्यापक हो गई है। जैसा मैंने दूसरे दिन कहा था, कई लोग अपने मन में बुरे विचारों को रखते हुए चीगोंग का अभ्यास करते हैं। हालांकि वे खड़े होकर व्यायाम कर रहे होते हैं और उनके हाथ और पैर थकान से कांप रहे होते हैं, उनका मन शांत नहीं होता। कोई सोचता है : "दाम बढ़ते जा रहे हैं। मुझे व्यायाम समाप्त करके खरीदारी के लिए जाना है। यदि मैं जल्दी नहीं करता, तो वस्तुऐं और मंहगी हो जायेंगी।" दूसरा व्यक्ति सोचता है "कार्यस्थल अब मकानों का आबंटन कर रहा है। क्या मुझे एक मिलेगा? मकानों के आबंटन करने वाले प्रभारी की हमेशा मुझसे अनबन रहती है।" जितना यह व्यक्ति इसके बारे में सोचता है, उतना ही वह क्रोधित होता जाता है : "निश्चित ही वह मुझे मकान आवंटित नहीं करेगा। मैं उससे कैसे झगड़ा करूं।" सभी विचार उभर कर आते हैं। जैसा मैंने पहले कहा, वे पारिवारिक विषयों से लेकर देश की परिस्थिति तक टिप्पणी करते रहते हैं। जब वे दु:खद विषयों के बारे में बात करते हैं, वे और भी क्रोधित हो जाते हैं।
चीगोंग अभ्यास में व्यक्ति को सद्गुण का मान करना आवश्यक होता है। व्यायामों को करते हुए, यदि आप अच्छी बातें नहीं सोच सकते, तो कम से कम आपको बुरी बातें नहीं सोचनी चाहियें। सबसे अच्छा होगा यदि आप कुछ नहीं सोचते। यह इसलिए क्योंकि निम्न स्तर के चीगोंग अभ्यास में, एक आधार बनाना आवश्यक होता है। यह आधार एक निर्णायक भूमिका निभाता है, क्योंकि मनुष्य की मानसिक क्रियायें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। आप सब यह सोचे : आप अपने गोंग में क्या मिला रहे हैं? जो आप अभ्यास कर रहे हैं वह अच्छा कैसे हो सकता है? यह काला क्यों नहीं हो सकता? जो लोग चीगोंग का अभ्यास करते हैं उनमें से कितनों के इस प्रकार के विचार नहीं होते? हालांकि आप हर समय चीगोंग का अभ्यास करते हैं, आपके रोग जाते क्यों नहीं? यद्यपि कुछ लोगों के व्यायाम स्थल पर वे बुरे विचार नहीं होते, वे हमेशा चीगोंग का अभ्यास दिव्य सिध्दियों के मोहभाव, इधर-उधर के इच्छा प्रयासों, विभिन्न मानसिकताओं, और प्रबल इच्छाओं के साथ करते हैं। वास्तव में, उन्होंने पहले से ही अंजाने में दुष्ट साधना का अभ्यास कर लिया है। यदि आप कहते हैं कि यह व्यक्ति एक दुष्ट मार्ग का अभ्यास कर रहा है, तो वह अप्रसन्न हो जायेगा : "मुझे एक सुप्रसिध्द चीगोंग गुरु ने शिक्षा दी थी।" किन्तु उस सुप्रसिध्द चीगोंग गुरु ने आपको सद्गुण का मान रखने के लिए भी कहा था। क्या आपने यह किया? चीगोंग अभ्यास के दौरान, आप हमेशा कुछ बुरे विचार मिला देते हैं। आप कैसे कह सकते हैं कि आप अभ्यास से अच्छी वस्तुओं के साथ निकलेंगे? यह समस्या है, और यह अंजाने में दुष्ट साधना का अभ्यास करना है- जो बहुत सार्वजनिक है।
स्त्री और पुरुष की युग्म साधना
साधकों के समुदाय में, एक साधना पध्दति है जिसे स्त्री और पुरुष की युग्म साधना कहा जाता है। हो सकता है आपने तिब्बत तंत्र की साधना पध्दतियों को देखा हो, जिसमें एक बुध्द की प्रतिमा या चित्र में, साधना करते हुए एक पुरुष आकृति एक स्त्री के शरीर को थामे होती है। पुरुष आकृति कई बार एक बुध्द की भांति दिखती है, और वह एक नग्न स्त्री को थामे होती है। कुछ बैल-मुख और अश्व-मुख वाले वज्र के रूप में बुध्द के रूपांतरण हो सकते हैं, जो एक निर्वस्त्र स्त्री शरीर को थामे होते हैं। यह इस प्रकार क्यों है? हम पहले इस विषय को सभी को समझायेंगे। हमारे ग्रह में, केवल चीन ही कन्फ्यूशियन मत से प्रभावित नहीं रहा है। कुछ शताब्दियों पहले हमारी पूरी मानव जाति के समान नैतिक गुण थे। इसलिए, यह साधना पध्दति वास्तव में हमारे इस ग्रह से नहीं आई है। यह दूसरे ग्रह से आई थी, किन्तु यह प्रणाली वास्तव में व्यक्ति को साधना के अभ्यास में समर्थ कर सकती है। जब इस साधना पध्दति को उस समय चीन में प्रचलित किया गया, यह चीनी लोगों के लिए अस्वीकार्य थी क्योकि इसमें स्त्री और पुरुष की युग्म साधना और गुप्त पध्दतियों का समावेश था। इसलिए, तांग राजवंश में हवेचांग के शासन काल में शासक ने इस पर हान प्रांतों में पाबंदी लगा दी थी। इसे हान प्रांतों में सिखाने की मनाही थी और इसे उस समय तांग तंत्रविद्या, कहा जाता था। हालांकि यह तिब्बत के अनोखे वातावरण में जो एक विशेष स्थान है, हस्तांतरित होती रही। वे इस प्रकार साधना का अभ्यास क्यों करते हैं? पुरुष और स्त्री की युग्म साधना यिन को एकत्रित करके येंग की पूर्ति करती है और इसके विपरीत भी जिससे परस्पर साधना के लिए परस्पर पूर्ति हो सके, जिससे यिन और येंग को संतुलित करने का लक्ष्य प्राप्त हो सके।
जैसे ज्ञातव्य है कि बुध्द विचारधारा या ताओ विचारधारा के अनुसार, विशेष रूप से ताओ के यिन और येंग के सिध्दांत के अनुसार, एक मानव शरीर में प्राकृतिक रूप से ही यिन और येंग होते हैं। क्योंकि मानव शरीर में यिन और येंग होते हैं, यह साधना अभ्यास द्वारा अनेकों दिव्य सिध्दियां और जीवन सत्ताएं जैसे अमर शिशु, साधना जनित शिशु, फा-शरीर आदि विकसित कर सकता है। यिन और येंग के अस्तित्व के कारण, व्यक्ति साधना द्वारा अनेक जीवन सत्ताएं विकसित कर सकता है, जो तानत्येन में बढ़ सकती हैं भले ही उसका शरीर पुरुष का हो या स्त्री का- यह एक जैसा है। यह सिध्दांत वास्तव में उचित लगता है। ताओ विचारधारा अक्सर ऊपरी शरीर को येंग और निचले शरीर को यिन मानती है। कुछ लोग शरीर के पीछे के भाग को येंग और आगे के भाग को यिन मानते हैं। कुछ लोग शरीर के बांयें भाग को येंग और दांयें भाग को यिन मानते हैं। चीन में, हमारे यहां कहा जाता है कि शरीर का बांया भाग पुरुष है और दांया भाग स्त्री, और इसका निष्कर्ष बहुत तर्क के साथ निकाला जाता है। क्योंकि मानव शरीर में प्राकृतिक रूप से यिन और येंग होते हैं, यिन और येंग की परस्पर क्रिया द्वारा, यह स्वयं ही यिन और येंग के संतुलन का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है; यह इस प्रकार अनेक जीवन सत्ताओं को जन्म दे सकता है।
यह तब एक विषय को स्पष्ट करता है : एक पुरुष और स्त्री की युग्म साधना की पध्दति को अपनाये बिना भी, हम साधना में एक बहुत ऊँचे स्तर पर पहुंच सकते हैं। पुरुष और स्त्री की युग्म साधना की पध्दति को यदि अनुचित प्रकार से प्रयोग में लाया जाता है, तो व्यक्ति को आसुरिक विघ्न का सामना करना होगा, और यह एक दुष्ट पध्दति बन जायेगी। तंत्रविद्या में यदि पुरुष और स्त्री की युग्म साधना को एक बहुत ऊँचे स्तर पर प्रयोग किया जाता है, तो आवश्यक है कि भिक्षु या लामा की साधना का स्तर बहुत ऊँचा होना चाहिए। उस समय, गुरु किसी व्यक्ति का इस प्रकार की साधना पध्दति में मार्गदर्शन कर सकता है। क्योंकि इस व्यक्ति का नैतिकगुण स्तर बहुत ऊँचा है, वह दुष्टता की ओर भटके बिना स्वयं को ठीक से संभाल सकता है। किन्तु जिसका नैतिकगुण निम्न स्तर का है उसे इस पध्दति को बिल्कुल नहीं अपनाना चाहिए। अन्यथा, यह व्यक्ति निश्चित ही दुष्ट पध्दति का अनुसरण करेगा। क्योंकि उसका नैतिकगुण स्तर सीमित है और क्योंकि वह साधारण लोगों की इच्छाओं और वासना को नहीं छोड़ पाया है, जहां उसका नैतिकगुण मानदण्ड है, यदि इसका प्रयोग किया गया तो यह निश्चित ही दुष्ट होगा। इसलिए, हम कह चुके हैं जब इसे निम्न स्तर पर सहज ही सिखाया जाता है, तो यह एक दुष्ट पध्दति को सिखाना है।
हाल के वर्षों में, कई चीगोंग गुरु पुरुष और स्त्री की युग्म साधना सिखाते आ रहे हैं। इसमें इतना विचित्र क्या है? पुरुष और स्त्री की युग्म साधना ताओ विचारधारा की पध्दतियों में भी प्रयोग होने लगी है। इसके अतिरिक्त, इसका आरंभ आज नहीं हुआ है, बल्कि तांग राजवंश में हुआ था। ताओ विचारधारा में पुरुष और स्त्री की युग्म साधना कैसे हो सकती है? ताओ विचारधारा के ताइची सिध्दांत के अनुसार, एक मानव शरीर एक लघु ब्रह्माण्ड है जिसमें प्राकृतिक रूप से यिन और येंग होते हैं। सभी सच्ची, महान पवित्र शिक्षाएं एक सुदूर काल से हस्तांतरित होती आ रही हैं। कोई भी बदलाव या मिलावट उस विशिष्ट विचारधारा की पध्दति को खराब कर देगी और साधना अभ्यास को पूर्ण करने के लक्ष्य की प्राप्ति को असमर्थ कर देगी। इसलिए यदि आपकी पध्दति में पुरुष और स्त्री की युग्म साधना नहीं है, तो आपको इसे साधना में बिल्कुल नहीं करना चाहिए। अन्यथा, आप भटक जायेंगे और समस्याओं में घिर जायेंगे। विशेष रूप से हमारी फालुन दाफा की पध्दति में, पुरुष और स्त्री की युग्म साधना नहीं होती, और न ही हमें इसकी आवश्यकता है। हम इस विषय को इस दृष्टि से देखते हैं।
मन और शरीर की साधना
मन और शरीर की साधना का विषय आपको पहले ही समझाया जा चुका है। मन और शरीर की साधना का संदर्भ अपने नैतिकगुण का उसी समय संवर्धन करने से है जब शरीर का संवर्धन किया जा रहा होता है। दूसरे शब्दों में, मूल शरीर रूपांतरित किया जाता है। रूपांतरण की प्रक्रिया में, मानव कोशिकाएँ क्रमश: उच्च शक्ति पदार्थ से प्रतिस्थापित कर दी जायेंगी, और उम्र का बढ़ना धीमा हो जायेगा। व्यक्ति का शरीर युवावस्था की ओर लौटता हुआ प्रतीत होगा और क्रमबध्द रूपांतरण अनुभव करेगा, जब अंत तक, यह पूरी तरह उच्च शक्ति पदार्थ द्वारा रूपांतरित कर दिया जाता है। तब, इस व्यक्ति का शरीर पहले ही दूसरे प्रकार के पदार्थ के शरीर में परिवर्तित हो चुका होगा। वह शरीर, जैसा मैंने पहले कहा, पंच तत्वों को पार कर जायेगा। क्योंकि यह पंच तत्वों तक सीमित नहीं है, इस व्यक्ति के शरीर का कभी क्षय नहीं होगा।
मठों में किये जाने वाली साधना पध्दति केवल मन की साधना से संबंधित होती है, इसलिए यह व्यायाम या शरीर की साधना नहीं सिखाती। इसमें निर्वाण की आवश्यकता होती है, क्योंकि जो पध्दति शाक्यमुनि ने सिखाई थी उसमें निर्वाण आवश्यक होता है। वास्तव में, शाक्यमुनि का स्वयं अपना महान, उच्च-स्तरीय धर्म था, और वे अपने मूल शरीर को पूरी तरह उच्च शक्ति पदार्थ में रूपांतरित करने और अपने साथ ले जाने के लिए समर्थ थे। इस साधना पध्दति को छोड़ने के लिए, उन्होंने स्वयं निर्वाण का मार्ग अपनाया। उन्होंने यह इस प्रकार क्यों सिखाया? उन्होंने ऐसा इसलिए किया जिससे लोग, जहाँ तक हो सके, मोहभाव और सर्वस्व त्याग सकें, जिसमें अंतत: उनका भौतिक शरीर भी सम्मिलित था; सभी मोहभावों का त्याग किया जाना था। इसलिए उन्होंने निर्वाण का मार्ग अपनाया जिससे लोग इसे जितना संभव हो उतना प्राप्त कर सकें। इसलिए, पूरे इतिहास काल में सभी बुध्दमत के भिक्षुओं ने निर्वाण का मार्ग अपनाया। निर्वाण का अर्थ है कि जब किसी भिक्षु की मृत्यु होती है वह अपना भौतिक शरीर त्याग देता है, और उसकी मूल आत्मा उसके गोंग के साथ उत्थान करती है।
ताओ विचारधारा शरीर की साधना पर बल देती है। क्योंकि यह शिष्यों का चयन करती है और समस्त प्राणियों को मुक्ति प्रदान नहीं करती, इसके शिष्य बहुत विलक्षण प्रतिभा वाले होते हैं। इसलिए, यह तकनीक और जीवन संवर्धन संबंधित विषय सिखाती है। किन्तु बुध्द विचारधारा की इस विशिष्ट साधना पध्दति में, और विशेष रूप से बुध्दमत में, ये नहीं सिखाये जाते। ऐसा नहीं है कि बुध्द विचारधारा की सभी पध्दतियाँ इसे नहीं सिखातीं। बुध्द विचारधारा की भी कई उच्च-स्तरीय पध्दतियाँ इसे सिखाती हैं। हमारी पध्दति भी इसे सिखाती हैं। हमारे फालुन दाफा में मूल-शरीर और अमर शिशु दोनों आवश्यक होते हैं; वे दोनों भिन्न होते हैं। अमर शिशु भी एक शरीर है जो उच्च शक्ति पदार्थ से बना होता है, किन्तु इसे सहज ही हमारे इस आयाम में नहीं दिखाया जा सकता। लम्बे समय तक इस आयाम में एक साधारण व्यक्ति जैसा रूप बनाये रखने के लिए, हमारे लिए हमारा मूल-शरीर आवश्यक होता है। इसलिए, इस मूल-शरीर के रूपांतरित हो जाने पर, इसकी आणविक संरचनाएँ नहीं बदलतीं हालांकि इसकी कोशिकाएँ उच्च-शक्ति पदार्थ द्वारा प्रतिस्थापित की जा चुकी हैं। इस प्रकार, यह शरीर साधारण लोगों के शरीर से बहुत भिन्न नहीं लगेगा। किन्तु एक भिन्नता अवश्य है : वह यह, कि यह शरीर दूसरे आयामों में प्रवेश कर सकता है।
जो पध्दतियाँ शरीर और मन दोनों की साधना करती हैं वे व्यक्ति को दिखने में बहुत युवा बना देती हैं, और व्यक्ति अपनी वास्तविक उम्र से बहुत भिन्न दिखाई देता है। एक दिन एक महिला ने मुझ से पूछा : "गुरुजी, आप क्या समझते हैं कि मेरी उम्र कितनी होगी?" वास्तव में, वह सत्तर वर्ष की होने जा रही थी, किन्तु वह केवल चालीस की लगती थी। उसके चेहरे पर कोई झुर्रियाँ नहीं थीं, और उसका वर्ण गोरा और खिला हुआ था। वह सत्तर की ओर पहुँचती हुई महिला कहीं से दिखाई नहीं पड़ती थी। यह हमारे फालुन दाफा के अभ्यासियों के साथ होगा। एक परिहास सुनाता हूँ, युवा महिलायें हमेशा श्रृंगार करना पसंद करती हैं और अपने रंग रूप को उजला और अच्छा बनाना चाहती हैं। मैं कहूँगा कि यदि आप वास्तव में मन और शरीर के साधना अभ्यास का अनुसरण करें, तो आपको अपने आप ही यह लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा। निश्चित ही आपको श्रृंगार सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हम इस प्रकार के और उदाहरण नहीं देंगे। विगत में, क्योंकि विभिन्न व्यावसायों में अधिकतर वयोवृध्द कॉमरेड थे, मुझे एक युवा की भांति माना जाता था। आजकल स्थिति में सुधार हो रहा है, और सभी व्यावसायों में अब अपेक्षाकृत अधिक युवा लोग हैं। वास्तव में, मैं उतना युवा नहीं हूँ। मैं पचास की उम्र को पहुँच रहा हूँ, क्योंकि मैं पहले ही तैंतालीस साल का हो चुका हूँ।
फा-शरीर
बुध्द प्रतिमा के चारों ओर एक शक्ति क्षेत्र क्यों होता है? कई लोग इसे समझा नहीं पाते। कुछ लोग कहते हैं : "बुध्द प्रतिमा के पास शक्ति क्षेत्र होता है क्योंकि भिक्षु इसकी ओर शास्त्रों का उच्चारण करते हैं।" दूसरे शब्दों में, यह शक्ति क्षेत्र भिक्षुओं के इसके सामने साधना अभ्यास करने से आता है। यदि यह भिक्षुओं या दूसरों के साधना अभ्यास द्वारा आता है, तो इस शक्ति क्षेत्र को सभी ओर फैला हुआ होना चाहिए न कि एक ही दिशा में। मठ के धरातल, छत, और दीवारों सभी ओर समान शक्ति क्षेत्र होना चाहिए। तब बुध्द प्रतिमा पर शक्ति क्षेत्र इतना प्रबल क्यों होता है? विशेष रूप से जो प्रतिमाएँ पर्वतों, गुफाओं या किसी चट्टान पर होती हैं, वहाँ अक्सर शक्ति क्षेत्र होता है। कुछ लोगों ने इसे अलग-अलग तरह से समझाया है किन्तु कोई भी स्पष्ट नहीं समझा पाया। वास्तव में, बुध्द प्रतिमा के पास शक्ति क्षेत्र इसलिए होता है क्योंकि इसमें एक महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति का फा-शरीर होता है। क्योंकि वहाँ ज्ञानप्राप्त व्यक्ति का फा-शरीर हैं, इसमें शक्ति होती है।
शाक्यमुनि हों या बौधिसत्व अवलौकितेश्वर2, यदि इतिहास में वे वास्तव में हुए थे- आप सब यह सोचें- क्या वे भी अपने साधना अभ्यास के दौरान अभ्यासी नहीं थे? जब कोई व्यक्ति पर-त्रिलोक-फा के अत्यन्त ऊँचे स्तर पर साधना अभ्यास करता है, वह फा-शरीर विकसित करेगा। फा-शरीर व्यक्ति के तानत्येन क्षेत्र से जन्म लेता है और फा तथा गोंग से बना होता है। यह दूसरे आयामों में प्रकट होता है। फा-शरीर के पास व्यक्ति की अधिकांश शक्तियाँ होती हैं, किन्तु इसके मन और विचार उस व्यक्ति के नियंत्रण में होते हैं। तब भी फा-शरीर स्वयं में एक पूर्ण, स्वतंत्र और वास्तविक जीवन सत्ता होती है। इसलिए, यह कुछ भी स्वयं स्वतंत्र रूप से कर सकता है। जो फा-शरीर करता है वह बिल्कुल वैसा ही होता है जैसा इसकी मुख्य चेतना इससे चाहती है। यदि कोई व्यक्ति कोई कार्य किसी विशेष प्रकार से करता है, उसका फा-शरीर उसी प्रकार करेगा; हमारा फा-शरीर से संदर्भ यही है। जो मैं करना चाहता हूँ वह सब मेरे फा-शरीर द्वारा किया जा सकता है, जैसे सच्चे अभ्यासियों के शरीरों को व्यवस्थित करना। क्योंकि फा-शरीर साधारण लोगों का शरीर धारण किये नहीं होता, यह दूसरे आयामों में प्रकट होता है। इसका शरीर सीमित नहीं होता जो बदल न सके; बल्कि, यह बड़ा या छोटा हो सकता है। कई बार, यह बहुत बड़ा हो जाता है, इतना बड़ा कि आप इसका पूरा सिर भी नहीं देख सकते। कई बार यह बहुत छोटा हो जाता है, एक कोशिका से भी छोटा।
प्रतिमा को प्रतिष्ठापित करना
कारखाने में निर्मित बुध्द प्रतिमा केवल एक कला की वस्तु है। बुध्द प्रतिमा में बुध्द के फा-शरीर को आमंत्रित करने के लिए इसे "प्रतिष्ठापित" किया जाता है जिससे इसकी साधारण लोगों के बीच दृश्यमान रूप से उपासना की जा सके। साधना अभ्यास में, जब किसी अभ्यासी के हृदय में भक्तिभाव होता है, बुध्द प्रतिमा का फा-शरीर उस व्यक्ति के लिए फा की संभाल करेगा, और उसकी देख-रेख और रक्षा करेगा। प्रतिष्ठापित करने का यही वास्तविक उद्देश्य है। यह औपचारिक प्रतिष्ठापन समारोह में, केवल एक अत्यन्त ऊँचे स्तर के महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति या एक बहुत ऊँचे स्तर के अभ्यासी, जिसके पास यह शक्ति हो, के द्वारा पवित्र विचारों को व्यक्त करने से किया जा सकता है।
एक मठ में यह आवश्यक होता है कि इसकी बुध्द प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई हो, और लोग कहते हैं कि बिना प्रतिष्ठापन के, बुध्द प्रतिमा की कोई उपयोगिता नहीं होगी। आज, मठों के भिक्षु- जो सच्चे महान गुरु थे- सभी जा चुके हैं। महान सांस्कृतिक आंदोलन के बाद से, कई कनिष्ठ भिक्षु जिन्हें कोई वास्तविक शिक्षाएँ प्राप्त नहीं हुई थीं, वे अब मठाधीश बन गये हैं। बहुत सी वस्तुओं का हस्तांतरण नहीं हुआ है। यदि आप उनमें से किसी से पूछें : "प्रतिष्ठापन का क्या उद्देश्य होता है?" वह कहेगा : "बुध्द प्रतिमा प्रतिष्ठापन के बाद कार्य करेगी।" वह स्पष्ट नहीं समझा पाता कि यह विशेष रूप से क्यों उपयोगी है, इसलिए वह केवल इसका समारोह आयोजित करता है। वह बुध्द प्रतिमा के अंदर एक बुध्दमत का शास्त्र रख देगा। तब वह प्रतिमा को कागज में लपेट देगा और इसकी ओर शास्त्रों का उच्चारण करेगा। वह इसे प्रतिष्ठापित करना कहता है, किन्तु क्या इससे प्रतिष्ठापन का उद्देश्य प्राप्त हो गया है? यह इस पर निर्भर करता है कि वह शास्त्रों का उच्चारण किस प्रकार करता है। शाक्यमुनि ने कहा था कि व्यक्ति को शास्त्र का उच्चारण एक पवित्र मन से और एकाग्रचित हो कर करना चाहिए जिससे उनके साधना अभ्यास का दिव्यलोक भी हिल जाये। केवल तभी एक महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति को आमंत्रित किया जा सकता है। और केवल जब किसी महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति का फा-शरीर बुध्द प्रतिमा में आता है तभी प्रतिष्ठापन का उद्देश्य पूर्ण होता है।
वहाँ शास्त्रों का उच्चारण करते समय, कुछ भिक्षु अपने मन में सोच रहे होते हैं : "प्रतिष्ठापन के बाद, मुझे कितना धन मिलेगा?" या शास्त्रों का उच्चारण करते समय, कोई सोचता है : "अमुक ने मेरे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया।" उनके भी व्यक्तिगत मतभेद होते हैं। अब यह धर्मविनाश का काल है। इसे नकारा नहीं जा सकता कि ऐसी परिस्थिति होती है। हम यहाँ बुध्दमत की आलोचना नहीं कर रहे हैं। धर्मविनाश काल में कुछ उपासना स्थल शांतिमय नहीं रह गये हैं। यदि किसी का मन इन्हीं वस्तुओं से भरा हुआ है और वह इस प्रकार के बुरे विचार व्यक्त करता है, तो वह महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति कैसे आ सकता है? प्रतिष्ठापन का उद्देश्य किसी भी प्रकार पूर्ण नहीं हो सकता। किन्तु यह सदैव ऐसा नहीं है, क्योंकि कुछ अच्छे उपासना स्थल और ताओ मठ हैं।
एक शहर में, मैंने एक भिक्षु को देखा जिसके हाथ बहुत काले थे। उसने एक बुध्द प्रतिमा के अंदर शास्त्र रखे और उसे लापरवाही से बंद कर दिया। उसके बाद उसने कुछ शब्द बुदबुदाये, और प्रतिष्ठापन प्रक्रिया पूरी हो गयी। तब वह एक और बुध्द प्रतिमा लाया और फिर से कुछ शब्द बुदबुदाये। वह प्रतिष्ठापन के लिए हर बार चालीस युआन लेता था। आजकल, भिक्षुओं ने प्रतिष्ठापन को व्यवसायिक बना दिया है और इससे धन अर्जित करते हैं। इसे देखने पर, मैंने पाया कि प्रतिष्ठापन पूर्ण नहीं हुआ था क्योंकि वह इसे कर ही नहीं सका था। आजकल भिक्षु इस प्रकार के कार्य भी करते हैं। और मैंने क्या देखा? एक व्यक्ति जो बुध्द उपासक जान पड़ता था वह एक मठ में बुध्द प्रतिमा को प्रतिष्ठापित कर रहा था। उसने एक दर्पण धूप में दिखाया और इसका प्रकाश बुध्द प्रतिमा पर डाला। तब उसने घोषणा की कि प्रतिष्ठापन हो गया है। यह इतना उपहासपूर्ण हो गया है! आज, बुध्दमत इस बिंदु तक आ गया है, और यह एक बहुत साधारण घटना है।
नानजिंग3 में एक बड़ी कांस्य की बुध्द प्रतिमा बनायी गयी, और इसे हांगकांग के लांताओ द्वीप में स्थापित किया गया। यह एक बहुत बड़ी प्रतिमा है। दुनिया भर से अनेक भिक्षु इसे प्रतिष्ठापित करने आये। एक भिक्षु ने दर्पण को धूप में दिखा कर बुध्द प्रतिमा के मुख पर प्रकाश डाला और इसे प्रतिष्ठापन कहा। इतने महान सम्मानीय समारोह में भी, ऐसा कुछ हो सकता है। मैं इसे वास्तव में निंदनीय मानता हूँ! कोई आश्चर्य नहीं कि शाक्यमुनि ने कहा था : "धर्मविनाश काल के समय तक, भिक्षुओं के लिए स्वयं को बचाना भी कठिन होगा, दूसरों का उध्दार करना दूर की बात है।" इसके अतिरिक्त, कई भिक्षु बुध्दमत के शास्त्रों की अपने दृष्टिकोण से विवेचना करते हैं। यहाँं तक की शक्ति रानी माँ के शास्त्र भी उपासना स्थलों में पहुँच गये हैं। कई वस्तुएँ जो पारंपरिक बुध्दमत की सामग्री नहीं हैं वे भी उपासना स्थलों तक पहुँच गई हैं, जिससे ये स्थान अब बहुत अशांत और उलझन भरे हो गये हैं। निश्चित ही, ऐसे भिक्षु अभी भी हैं जो सच्चे रूप से साधना अभ्यास करते हैं और बहुत अच्छे हैं। प्रतिष्ठापन वास्तव में एक महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति के फा-शरीर को बुध्द प्रतिमा पर रहने के लिए आमंत्रित करना है। यह प्रतिष्ठापन है।
यदि किसी बुध्द प्रतिमा का सफलतापूर्वक प्रतिष्ठापन नहीं हुआ है, तो इसकी उपासना नहीं करनी चाहिए। यदि इसकी उपासना की जाती है तो परिणाम गंभीर होंगे। इसके क्या गंभीर परिणाम होंगे? आज, मानव शरीर के शोधकर्ताओं ने यह पता लगाया है कि हमारे मानवीय मन की क्रियायें या मानवीय विचार एक पदार्थ को उत्पन्न कर सकते हैं। एक बहुत ऊँचे स्तर पर, हमने पाया है कि यह वास्तव में एक पदार्थ है, किन्तु यह पदार्थ मस्तिष्क तरंगों के रूप में नहीं है जैसा हमें आज खोज द्वारा पता लगा है। बल्कि, यह एक संपूर्ण मानवीय मस्तिष्क रूप में है। क्योंकि इसमें शक्ति नहीं होती, यह उसके कुछ समय बाद बिखर जाता है। इसके विपरीत, एक अभ्यासी की शक्ति एक लम्बे समय तक संरक्षित रह सकती है। कहने का अर्थ यह नहीं है कि कारखाने में बनने के बाद बुध्द प्रतिमा का कोई मन होता है। इसका कोई मन नहीं होता। कुछ बुध्द प्रतिमाओं का प्रतिष्ठापन नहीं हुआ है, और न ही उपासना स्थलों में ले जाने के बाद प्रतिष्ठापन का उद्देश्य पूर्ण हुआ। यदि प्रतिष्ठापन किसी पाखण्डी चीगोंग गुरु या किसी दुष्ट पध्दति के व्यक्ति द्वारा किया जाता है, तो यह और भी खतरनाक होगा, क्योंकि कोई भेड़िया या नेवला बुध्द प्रतिमा पर आ जायेगा।
कोई बुध्द प्रतिमा जो प्रतिष्ठापन की प्रक्रिया से नहीं गुजरी है, यदि आप इसकी उपासना करते हैं, तो यह बहुत खतरनाक होगा। यह कैसे खतरनाक होगा? मैं बता सकता हूँ जैसे मनुष्य जाति का आज तक विकास हुआ है, सभी कुछ विकृत हो रहा है। पूरा समाज और संपूर्ण ब्रह्माण्ड में सभी कुछ एक के बाद एक भ्रष्ट हो रहा है। जो कुछ साधारण लोगों के साथ हो रहा है वह स्वयं उन्हीं के कारण है। अनेक ओर से विघ्न के कारण, एक उचित मार्ग का पता करना या उचित मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। कोई बुध्द की उपासना करना चाहता है, किन्तु कौन बुध्द है? उपासना के लिए उनमें से किसी को ढूंढना बहुत कठिन है। यदि आप इस पर विश्वास नहीं करते, तो मैं बताता हूँ। यदि कोई व्यक्ति किसी बुध्द प्रतिमा की उपासना करता है जो प्रतिष्ठापन की प्रक्रिया से नहीं गुजरी है तो बहुत बुरा होगा। आज कितने लोग हैं जो बुध्द की उपासना साधना में उचित फल की प्राप्ति के लिए करते हैं? ऐसे लोग बहुत कम हैं। अधिकतर लोगों का बुध्द की उपासना करते समय क्या उद्देश्य रहता है? वे कठिनाइयों को हटाना चाहते हैं, समस्याओं को सुलझाना चाहते हैं, और धन अर्जित करना चाहते हैं। क्या ये वस्तुऐं बुध्दमत के शास्त्रों से हैं? उनमें ये वस्तुएँ तनिक भी नहीं हैं।
कल्पना कीजिए एक बुध्द उपासक जिसका मन धन के पीछे है, वह किसी बुध्द की प्रतिमा या बौधिसत्व अवलौकितेश्वर या किसी तथागत के सामने समर्पित होता है और कहता है : "मुझे कुछ धन प्रदान करने की कृपा करें।" तभी एक पूर्ण मन बन जायेगा। क्योंकि यह आग्रह एक बुध्द प्रतिमा को किया गया है, यह तुरंत ही उस बुध्द प्रतिमा पर चला जायेगा। दूसरे आयाम में, एक सत्ता बड़ी या छोटी बन सकती है। जब यह विचार इस सत्ता पर आता है, तो बुध्द प्रतिमा का एक मस्तिष्क और मन विकसित हो जायेगा, किन्तु इसके पास शरीर नहीं है। और लोग भी बुध्द प्रतिमा की उपासना के लिए आते हैं। इस प्रकार की उपासना से, वे धीरे-धीरे उसे कुछ शक्ति प्रदान करेंगे। यह और भी खतरनाक होगा यदि कोई अभ्यासी इसकी उपासना करता है, क्योंकि यह उपासना धीरे-धीरे उसे शक्ति प्रदान करेगी और उसका एक दृश्यमान शरीर विकसित हो जायेगा। किन्तु यह दृश्यमान शरीर दूसरे आयाम में विकसित होता है। इसके बनने के बाद, यह दूसरे आयाम में रहता है और ब्रह्माण्ड का कुछ सत्य भी जान सकता है। इसलिए, यह लोगों के लिए कुछ कार्य कर सकता है। इस प्रकार, यह कुछ गोंग भी विकसित कर सकता है। किन्तु यह लोगों की मदद शर्त के साथ और दाम सहित करता है। यह दूसरे आयाम में स्वतंत्र घूम सकता है और साधारण लोगों को बहुत सरलता से नियंत्रित कर सकता है। यह दृश्यमान शरीर बिल्कुल वैसा ही दिखाई पड़ता है जैसी वह प्रतिमा। इसलिए यह मनुष्य की उपासना द्वारा है जिससे किसी पाखण्डी बौधिसत्व अवलौकितेश्वर या किसी नकली तथागत की रचना हो जाती है, जो बुध्द के स्वरूप के साथ ठीक बुध्द प्रतिमा जैसी दिखाई पड़ती है। किन्तु पाखण्डी बुध्द या पाखण्डी बौधिसत्व का मन बहुत बुरा होता है और धन के पीछे होता है। इसका जन्म दूसरे आयाम में होता है। मन के होने से, यह कुछ सत्य जानती है और कोई बड़ा दुष्कर्म करने का साहस नहीं करती, किन्तु यह छोटे दुष्कर्म करने का साहस अवश्य करती है। कई बार यह इन लोगों की मदद भी करती है; अन्यथा यह पूरी तरह दुष्ट होगी और उसे समाप्त कर दिया जायेगा। यह लोगों की मदद किस प्रकार करती है? जब कोई प्रार्थना करता है : "हे बुध्द, कृपया मेरी मदद करें क्योंकि मेरे घर में कोई बीमार है," तब, यह आपकी मदद करेगी। यह आपको दानपात्र में धन दान करने देगी। क्योंकि इसका मन धन के पीछे है। जितना अधिक धन आप दानपात्र में डालते हैं, उतनी ही जल्दी बीमारी ठीक होगी। क्योंकि इसमें कुछ शक्ति होती है, यह दूसरे आयाम से साधारण व्यक्ति को नियंत्रित कर सकती है। यदि कोई अभ्यासी इसकी उपासना के लिए जाता है तो यह विशेष रूप से खतरनाक होगा। यह अभ्यासी किसलिए प्रार्थना करता है? धन के लिए। आप सब यह सोचें : एक अभ्यासी को धन के पीछे क्यों जाना चाहिए? परिवार के सदस्यों के अभाग्य मिटाने और रोग दूर करने के लिए प्रार्थना करना अपने परिवार के साथ भावुकता का मोहभाव दर्शाता है। क्या आप दूसरे लोगों का भाग्य बदलना चाहते हैं? सभी का अपना-अपना भाग्य होता है ! यदि आप इसकी उपासना करते हैं और बुदबुदाते हैं : "कृपया मुझे कुछ धन प्राप्त करने में मदद कीजिए," तब, यह आपकी मदद करेगी। यह चाहेगी कि आप और अधिक धन के पीछे जायें, क्योंकि जितना आप इसे चाहेंगे, उतनी ही वस्तुऐं यह आप से ले सकती है। यह एक संतुलित व्यवसाय है। दूसरे उपासक दानपात्र में बहुत सा धन डाल चुके हैं, और यह आपको कुछ ले लेने देगी। यह किस प्रकार किया जाता है? द्वार से बाहर निकल कर आपको कोई बटुआ मिल सकता है, या कार्यस्थल आपको कोई पारितोषिक दे सकता है। किसी भी प्रकार, यह आपके लिए धन पाने की व्यवस्था कर देगी। यह आपकी मदद बिना शर्त क्यों करेगी? कोई त्याग नहीं तो कोई प्राप्ति नहीं। यदि इसकी आवश्यकता है तो यह आपका कुछ गोंग ले लेगी, या यह आपके द्वारा साधना में अर्जित तान ले जायेगी। यह इन वस्तुओं को चाहती है।
ये पाखण्डी बुध्द कई बार बहुत खतरनाक होते हैं। हमारे कई अभ्यासी जिनके दिव्य नेत्र खुले हैं, सोचते हैं कि उन्होंने किसी बुध्द को देखा है। कोई कहता है कि इस मंदिर में आज बुध्द का एक समूह आया, जिसमें अमुक बुध्द अगवाही कर रहे थे। यह व्यक्ति वर्णन करेगा कि कल कैसा समूह था, और आज कैसा समूह है, और जैसे ही एक समूह जाता है, उसके कुछ देर बाद दूसरा समूह आ जाता है। वे कौन हैं? वे इस वर्ग से संबंधित हैं- वे सच्चे बुध्द नहीं हैं, बल्कि पाखण्डी हैं। ऐसी घटनाएँ बहुतायात से होती हैं।
यह और भी खतरनाक होगा यदि यह किसी मंदिर में होता है। यदि भिक्षु इसकी उपासना करते हैं, यह उन पर हावी हो जायेगी : "क्या तुम मेरी उपासना नहीं कर रहे हो? और तुम यह एक स्पष्ट मन से कर रहे हो! क्या तुम साधना अभ्यास नहीं करना चाहते? मैं तुम्हारी देख-रेख करूँगा और बताऊँगा कि साधना अभ्यास कैसे किया जाये।" यह आपके लिए व्यवस्था करेगी। यदि वे साधना पूरी करते हैं तो वे कहाँ जायेंगे? क्योंकि साधना अभ्यास की व्यवस्था इसके द्वारा की गई थी, कोई भी उच्च स्तर की पध्दति आपको स्वीकार नहीं करेगी। क्योंकि इसने आपके लिए पूरी व्यवस्था की है, भविष्य में आपको इसका अनुसरण करना होगा। क्या आपकी साधना व्यर्थ नहीं जायेगी? मैं बता चुका हूँ मनुष्य जाति के लिए साधना में उचित फल प्राप्त करना बहुत कठिन है। यह परिस्थिति बहुतायात से होती है। आपमें से अनेकों ने सुप्रसिध्द पर्वतों और मुख्य नदियों के किनारे बुध्द प्रकाश को देखा है। इनमें से अधिकांश इस वर्ग से संबंधित है। इसमें शक्ति होती है और यह स्वयं को प्रकट कर सकती है। एक सच्चा महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति अकारण ही स्वयं को प्रकट नहीं करता।
विगत में, ऐसे तथाकथित सांसारिक बुध्द या सांसारिक ताओ बहुत कम होते थे। हालांकि, अब ये बहुत हैं। जब वे कोई दुष्कर्म करते हैं, उच्च प्राणी उन्हें मार देते हैं। जब यह होने वाला होता है, वे भागकर बुध्द प्रतिमा पर चढ़ जाते हैं। अक्सर, एक महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति साधारण लोगों के नियमों में अकारण विघ्न नहीं डालता। महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति का स्तर जितना ऊँचा होता है, उतना ही कम वह साधारण लोगों के नियमों में विघ्न डालने की परवाह करता है, वह जरा भी परवाह नहीं करता। अन्तत:, यह उच्च प्राणी अचानक ही विद्युत गिरा कर बुध्द प्रतिमा को विखण्डित नहीं कर देगा, वह ऐसा नहीं करेगा। यदि वे बुध्द प्रतिमा पर चढ़ जाते हैं तो उच्च प्राणी उन्हें छोड़ देगा। यदि वे मारे जाने वाले होते हैं तो वे जान जाते हैं, इसलिए वे बच निकलने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार, जो आपने देखा क्या वह वास्तविक बौधिसत्व अवलौकितेश्वर थी? क्या जो आपने देखा वह वास्तविक बुध्द था? यह बताना कठिन है।
आप में से कई इस बारे में सोच रहे होंगे : "घर में जो बुध्द प्रतिमा हैं हमें उसका क्या करना चाहिए?" शायद बहुत से लोगों ने मेरे बारे में सोचा है। अभ्यासियों को साधना अभ्यास में मदद करने के लिए, मैं आपको बता रहा हूँ कि आप इस प्रकार कर सकते हैं। बुध्द प्रतिमा को हाथ में रख कर, आप मेरी पुस्तक (क्योंकि इसमें मेरा चित्र है) या मेरा चित्र ले सकते हैं। तब आप बड़ी कमल पुष्प हस्त मुद्रा बनायें और गुरु से प्रतिष्ठापन के लिए आग्रह करें, जैसे आप मुझसे आग्रह कर रहे हों। यह आधे मिनट में हो जायेगा। मैं सभी को बताना चाहूँगा कि यह केवल हमारे अभ्यासियों के लिए किया जा सकता है। यह प्रतिष्ठापन आपके संबंधियों या मित्रों के लिए कार्य नहीं करेगा, क्योंकि हम केवल अभ्यासियों की देख-रेख करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे मेरा चित्र अपने संबंधियों या मित्रों के घर दुष्ट आत्माओं को हटाने के लिए ले जायेंगे। मैं यहाँ साधारण लोगों के लिए दुष्ट आत्माएँ हटाने के लिए नहीं हूँ- यह गुरु के लिए सबसे बुरा अनादर है।
सांसारिक बुध्द या सांसारिक ताओ की बात की जाये तो, एक और विषय आता है। प्राचीन चीन में, ऐसे बहुत से लोग थे जो सुदूर पर्वतों और गहन वनों में साधना अभ्यास करते थे। उनमें से कोई आज क्यों नहीं है? वास्तव में, वे लुप्त नहीं हुए हैं। वे केवल साधारण लोगों को जानने नहीं देते, उनमें से एक भी कम नहीं हुआ है। इन सभी लोगों के पास दिव्य सिध्दियाँ हैं। ऐसा नहीं है कि गत वर्षों में वे यहाँ नहीं हैं- वे अभी भी हैं। संसार में आज भी ऐसे कई हजार लोग हैं। उनमें से अपेक्षाकृत हमारे देश में अधिक हैं, विशेष रूप से प्रसिध्द विशाल पर्वतों में और मुख्य नदियों के किनारे। वे कुछ ऊँचे पर्वतों में भी वास करते हैं, किन्तु वे अपनी गुफाएँ दिव्य सिध्दियों से बंद कर देते हैं जिससे आप उन्हें न देख सकें। उनकी साधना की प्रक्रिया अपेक्षाकृत धीमी होती है, और उनकी पध्दतियाँ अपेक्षाकृत उलझी हुई होती हैं क्योंकि उन्होंने साधना का मूल ग्रहण नहीं किया है। हम, इसके विपरीत, सीधे व्यक्ति के मन को साधते हैं और ब्रह्माण्ड की उच्चतम प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वरूप के अनुसार साधना अभ्यास करते हैं। स्वाभाविक ही, गोंग अति शीघ्र विकास करता है। यह इसलिए क्योंकि साधना अभ्यास के मार्ग एक पिरामिड की तरह होते हैं; केवल मध्य का मार्ग मुख्य मार्ग होता है। उन किनारों के और लघु मार्गों पर, हो सकता है साधना अभ्यास में व्यक्ति का नैतिकगुण ऊँचा न हो। हो सकता है व्यक्ति को साधना में ऊँचा स्तर प्राप्त किये बिना ही ज्ञानप्राप्ति हो जाए। वे, हालांकि, सच्चे साधना अभ्यास के मुख्य मार्ग से कहीं निम्न हैं।
इस प्रकार की अभ्यास पध्दति में भी शिष्यों को लिया जाता है। क्योंकि इस अभ्यास में साधना स्तर इतना ही ऊँचा पहुँच सकता है और व्यक्ति का नैतिकगुण स्तर इतना ही ऊँचा बढ़ सकता है, सभी शिष्य केवल इसी स्तर की ओर साधना का अभ्यास करते हैं। कोई बगल मार्ग की अभ्यास पध्दति जितनी अधिक साधना के बाहरी किनारे के पास होती है, उतनी ही अधिक इसकी आवश्यकताएँ होंगी और उतना ही जटिल इसका साधना अभ्यास होगा, क्योंकि यह साधना के मूल को नहीं समझ सकी है। साधना में, व्यक्ति को मुख्यत: अपने नैतिकगुण का संवर्घन करना चाहिए। वे अब भी यह नहीं जानते और मानते हैं कि वे केवल कठिनाइयाँ भोग कर साधना का अभ्यास कर सकते हैं। इसलिए, एक बहुत लम्बी समयावधि के बाद और कई सौ वर्षों या एक हजार वर्ष से अधिक साधना अभ्यास करने के बाद, वे केवल थोड़ा सा गोंग प्राप्त करते हैं। वास्तव में, यह उनके कठिनाई भोगने के कारण नहीं है कि उन्हें गोंग प्राप्त हुआ है। वे इसे कैसे प्राप्त करते हैं? यह एक साधारण व्यक्ति की स्थिति के समान है : युवावस्था में व्यक्ति के बहुत से मोहभाव होते हैं, किन्तु जब तक वह वृध्द होता है, समय गुजरने के साथ उसका भविष्य निराशाजनक जान पड़ता है। ये मोहभाव स्वाभाविक ही समाप्त हो जाते हैं और छूट जाते हैं। ये बगल-मार्ग के अभ्यास भी इस पध्दति को अपनाते हैं। उन्होंने पाया है कि जब व्यक्ति साधना में विकास के लिए ध्यानमुद्रा, समाधि, और कठिनाइयाँ भोगने पर आश्रित होता है, तो वह गोंग भी बढ़ा सकता है। किन्तु वे यह नहीं जानते कि उनके साधारण लोगों के मोहभाव एक लम्बे और कठोर समय काल के दौरान धीरे-धीरे हट जाते हैं, और यह उनके धीरे-धीरे मोहभाव छोड़ने के कारण है कि गोंग बढ़ जाता है।
हमारे अभ्यास का एक दिशा लक्ष्य है और वास्तव में उन मोहभावों को उजागर करता है। उन्हें छोड़ने पर, व्यक्ति साधना में बहुत शीघ्र विकास करेगा। मैं कुछ स्थानों पर गया हूँ जहाँ मैं अक्सर ऐसे लोगों के सम्मुख हुआ हूँ जिन्होंने कई वर्षों तक साधना अभ्यास किया है। उन्होंने कहा : "यह कोई नहीं जानता कि हम यहांँ हैं। जहाँ तक जो आप कर रहे हैं, हम इसमें कोई विघ्न नहीं डालेंगे या कठिनाई उत्पन्न नहीं करेंगे।" ये लोग उस वर्ग में आते हैं जो अपेक्षाकृत अच्छे हैं।
उनमें से कुछ बुरे भी रहे हैं जिनसे हमें निपटना पड़ा। उदाहरण के लिए, जब मैंने ग्वेज़ू4 में पहली बार कक्षा ली, कोई मुझे कक्षा के दौरान खोजता हुआ आया और बोला कि उसके प्रमुख गुरु मुझसे मिलना चाहते हैं। उसने अपने प्रमुख गुरु का वर्णन किया और बताया कि कैसे उन्होंने वर्षों तक साधना अभ्यास किया है। मैंने पाया कि यह व्यक्ति गंदली ची धारण किये हुए था और उसका चेहरा पीलापन लिये हुए बहुत दुष्ट दिखाई पड़ता था। मैंने कहा कि मेरे पास उनसे मिलने का समय नहीं हैं और उसे मना कर दिया। इसके बाद, उसका वृध्द गुरु नाराज हो गया और मेरे लिए परेशानियाँ खड़ी करने लगा, और लगातार हर रोज परेशानियाँ उत्पन्न करता। मैं इस प्रकार का व्यक्ति हूँ जो दूसरों से झगड़ा करना पसंद नहीं करता, और न ही वह झगड़ा करने योग्य था। जब कभी वह कुछ बुरी वस्तुएँ मुझ पर छोड़ता, मैं उन्हें हटा देता था। उसके बाद, मैं अपना व्याख्यान आरंभ कर देता।
मिंग5 राजवंश में एक ताओ अभ्यासी था, जिसे उसकी ताओ साधना के दौरान एक सर्प ने ग्रसित कर लिया था। बाद में, इस ताओ अभ्यासी की साधना पूर्ण किये बिना ही मृत्यु हो गयी। सर्प ने ताओ अभ्यासी के शरीर पर कब्जा कर लिया और एक मनुष्य रूप धारण कर लिया। उस व्यक्ति का प्रमुख गुरु मनुष्य रूप में वह सर्प था। क्योंकि उसका स्वभाव नहीं बदला था, वह स्वयं को बड़े सर्प में रूपांतरित करके मेरे लिए परेशानी खड़ी करने लगा। मैंने सोचा कि उसने यह बहुत अधिक कर लिया है, इसलिए मैंने उसे अपने हाथ में पकड़ लिया। मैंने एक बहुत शक्तिशाली गोंग जिसे "विलय करने वाला गोंग" कहा जाता है का प्रयोग उसके शरीर के निचले भाग को विलय करने के लिए किया और इसे पानी में परिवर्तित कर दिया। उसका ऊपरी शरीर घर की ओर वापस भाग गया।
एक दिन, उस व्यक्ति का शिष्य ग्वेजू क़े हमारे निर्देशन संस्थान की स्वयंसेवी निदेशक को मिला, जिसने कहा कि उसके प्रमुख गुरु उससे मिलना चाहते हैं। निदेशक वहाँ गयी और एक अंधकारमय गुफा में प्रवेश किया जहाँ वह वहाँ एक बैठी हुई परछाई के अलावा कुछ और नहीं देख सकी, जिसकी ऑंखें हरी रोशनी से चमक रही थीं। जब वह अपनी ऑंखें खोलता, तो गुफा प्रकाशमान हो जाती। यदि वह ऑंखें बंद करता तो गुफा फिर से अंधकारमय हो जाती। उसने एक स्थानीय भाषा में कहा : "ली होंगज़ी फिर वापस आयेंगे, और इस समय हममें से कोई भी दोबारा वैसी परेशानियाँ उत्पन्न नहीं करेगा। मैं गलत था। ली होंगज़ी लोगों का उध्दार करने के लिए आये हैं।" उसके शिष्य ने उससे पूछा : "प्रमुख गुरु, कृपया खड़े हो जाइये। आपके पैरों को क्या हुआ?" उसने उत्तार दिया : "मैं खड़ा नहीं हो सकता क्योंकि मेरे पैर घायल हैं।" जब उससे पूछा गया कि वे कैसे घायल हो गये, वह अपनी परेशानी खड़ी करने वाली प्रक्रिया के बारे में बताने लगा। 1993 की पूर्वी स्वास्थ्य प्रदर्शनी के दौरान, वह फिर मुझसे उलझा। क्योंकि वह सदैव बुरे कार्य करता था और मेरे दाफा सिखाने में विघ्न डालता था, तब मैंने उसे पूर्णतया समाप्त कर दिया। उसके समाप्त होने पर, उसके सब भाई-बंधु बदला लेना चाहते थे। उस समय, मैंने कुछ शब्द कहे। वे सब चौंक गये और इतने भयभीत हो गये कि उनमें से कोई भी कुछ करने का साहस नहीं कर सका। उन्हें भी समझ आ गया कि क्या हो रहा है। उनमें से कुछ अभी भी पूरी तरह साधारण व्यक्ति थे हालांकि उन्होंने बहुत लम्बे समय तक साधना अभ्यास किया था। ये कुछ उदाहरण हैं जो मैंने प्रतिष्ठापन के विषय का वर्णन करने के लिए दिये।
झाड़-फूंक का विषय
झाड़-फूंक क्या होता है? साधक समाज में, चीगोंग सिखाने के दौरान कई लोग इसे साधना के एक विषय की तरह सिखाते हैं। वास्तव में, यह ऐसा कुछ नहीं है जो साधना अभ्यास के विषय से संबंधित हो। इसे विधियों, मंत्रों और तकनीक की तरह सिखाया जाता है। इसमें आकृतियाँ बनाने, धूप जलाने, कागज जलाने, मंत्र उच्चारण करने, आदि का प्रयोग किया जाता है। इससे रोग ठीक हो सकते हैं, और इसके उपचार के तरीके बहुत विचित्र होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी के चेहरे पर कोई फोड़ा है, अभ्यासी जमीन पर सिंदूरी स्याही में डूबी कलम से वृत बनायेगा और वृत के मध्य में क्रॉस का निशान बनायेगा। वह उसे वृत के मध्य में खड़े होने के लिए कहेगा। तब वह मंत्र उच्चारण आरंभ कर देगा। इसके बाद वह सिंदूरी स्याही में डूबी कलम से उसके चेहरे पर वृत बनायेगा। आकृति बनाते समय, वह मंत्र उच्चारण करेगा। वह तब तक आकृति बनाता रहेगा जब तक उस फोड़े के ऊपर कलम से एक बिंदु न बना दे, और तब मंत्र उच्चारण बंद हो जाता है। वह उसे बतायेगा कि वह अब ठीक है। जब वह फोड़े को महसूस करेगी, उसे भी लगेगा कि यह वास्तव में छोटा हो गया है और दर्द नहीं कर रहा है, इस प्रकार यह प्रभावी हो सकता है। वह छोटे रोग ठीक कर सकता है, किन्तु बड़े नहीं। यदि आपके हाथ में दर्द होता है तो वह क्या करेगा? वह आपके हाथों को उठाने के लिए कहेगा और मंत्रों का उच्चारण आरंभ कर देगा। वह आपके इस हाथ के हेगू 6 बिंदु पर फूंक मारेगा और यह आपके दूसरे हाथ के हेगू बिंदु से निकलेगी। आपको एक हवा का झोंका महसूस होगा, और जब आप अपनी बांह को छूऐंगे, इसमें पहले जैसा दर्द महसूस नहीं होगा। इसके अतिरिक्त, कुछ लोग कागज जलाने, आकृतियाँ बनाने, आकृतियों को भेजने, आदि क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। वे इन वस्तुओं को करते हैं।
ताओ विचारधारा की सांसारिक बगल-मार्ग की पध्दतियाँ जीवन का संवर्धन नहीं करतीं। ये पूरी तरह भाग्य बताने, फेंग-श्वे 7, दुष्ट आत्माओं को भगाने, और रोग ठीक करने में समर्पित हैं। इनमें से अधिकतर सांसारिक बगल-मार्ग की पध्दतियों में प्रयोग होते हैं। ये रोग ठीक कर सकते हैं, किन्तु प्रयोग किये तरीके अच्छे नहीं होते। हम यह नहीं बतायेंगे कि वे रोग ठीक करने के लिए किसका प्रयोग करते हैं, किन्तु दाफा के अभ्यासियों को उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि उनमें बहुत निम्न और बहुत बुरे संदेश समाहित होते हैं। प्राचीन चीन में, उपचार के तरीकों को विषयों में वर्गीकृत किया हुआ था जैसे, टूटी हड्डियों को जोड़ने के तरीके, एक्यूपंक्चर, मालिश, हस्तरेखा विद्या, एक्यूप्रेशर, चीगोंग उपचार, जड़ी-बूटी उपचार, इत्यादि। वे कई भागों में वर्गीकृत थे। प्रत्येक उपचार के तरीके को एक विषय कहा जाता था। यह झाड़-फूंक का तरीका भी तेरहवें विषय पर वर्गीकृत किया गया था। इसलिए, इसका पूरा नाम है "संख्या तेरह का झाड़-फूंक का विषय।" झाड़-फूंक का हमारी साधना पध्दति से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि यह साधना अभ्यास से प्राप्त गोंग नहीं है। बल्कि, यह एक तकनीक की तरह है।
1 श्रीवत्स (स्वास्तिक)— "प्रकाश चक्र" संस्कृत भाषा से, यह चिन्ह 2500 वर्ष से भी अधिक प्राचीन है और यूनान, पेरू, भारत और चीन के सांस्कृतिक अवशेषों में पाया गया। शताब्दियों से इसे अच्छे भाग्य का प्रतीक, सूर्य का प्रतीक, अच्छाई का प्रतीक माना गया।
2 बौधिसत्व अवलौकितेश्वर — वे परमानंद के दिव्यलोक में दो वरिष्ठ बौधिसत्व में से एक हैं, वे अपनी करूणा के लिए जानी जाती हैं।
3 नानजिंग — ज्यांगसू प्रांत की राजधानी।
4 ग्वेजू — दक्षिण-पश्चिम चीन का एक प्रान्त।
5 मिंग राजवंश — चीनी इतिहासकाल में 1368 ए.डी. से 1644 ए.डी. तक।
6 हेगू बिंदु — हाथ के पीछे अंगूठे और पहली अंगुली के बीच का एक्यूपंक्चर बिंदु।
7 फेंग-श्वे — चीनी वास्तुशास्त्र।